कारगिल विजय दिवस : शहीद के पिता को पाकिस्तानी ने भेजी कुरान

कारगिल विजय दिवस : शहीद  के पिता को पाकिस्तानी ने भेजी कुरान

विनोद भावुक/ पालमपुर

पालमपुर के कैप्टन सौरभ कालिया कारगिल युद्ध के पहले शहीद हैं। इससे पहले कि पहला वेतन बैंक में आ पाता, साल वर्ष 1999 में 22 साल के सौरभ कालिया शहीद हो गए थे।

सौरभ कालिया को और उनके पाँच साथियों को पाकिस्तान ने तीन हफ्तों से ज्यादा समय तक बंधक बनाकर अमानवीय यातनाएं दी थी। बाद में उनके सिरों में गोलियां मारकर शव भारत को लौटा दिए गए।

कारगिल में सौरभ कालिया की शहादत के बाद दिल छू लेनेवाला एक श्रद्धांजलि संदेश अमेरिका में बसे एक पाकिस्तानी की तरफ से आया था। उसने शहीद के पिता डॉ. नरिंदर के. कालिया को 'कुरान' की एक प्रति और फूलों के बीज भेजे थे। शोक संदेश में लिखा था,’सौरभ के साथ जो कुछ हुआ, उसका बेहद अफसोस है। हमारा देश अब मुल्लाओं के नियंत्रण में है।‘

कारगिल युद्ध में सौरभ कालिया की शहादत के बाद दिल छू लेनेवाला एक श्रद्धांजलि संदेश अमेरिका में बसे एक पाकिस्तानी की तरफ से आया था। उसने शहीद के पिता डॉ. नरिंदर के. कालिया को कुरान की एक प्रति और फूलों के बीज भेजे थे। शोक संदेश में लिखा था,’सौरभ के साथ जो कुछ हुआ, उसका बेहद अफसोस है। हमारा देश अब मुल्लाओं के नियंत्रण में है।‘

बोरियां भर कर आती रहीं चिट्ठियां

रचना विष्ट रावत अपनी पुस्तक ‘कारगिल’ में लिखती हैं कि सौरभ की शहादत के बाद कई वर्षों तक उनके घर पालमपुर में आने-जानेवालों का तांता लगा रहा। बोरियों में भर-भर कर चिट्टियां आतीं थी।

रचना विष्ट रावत अपनी पुस्तक ‘कारगिल’ में लिखती हैं कि सौरभ की शहादत के बाद कई वर्षों तक उनके घर पालमपुर में आने-जानेवालों का तांता लगा रहा। बोरियों में भर-भर कर चिट्टियां आतीं थी।

कारगिल शहीद सौरभ कालिया के पिता के मेलबॉक्स में अब भी लोगों के मेल आते रहते हैं। शहीद के पिता की तरफ से दाखिल सार्वजनिक न्याय याचिका पर दो लाख से ज्यादा लोगों ने हस्ताक्षर  किए हैं। यूरोपीय परमाणु शोध संगठन की एक वैज्ञानिक ने शहीद के परिजनों को अपने साथ स्विट्जरलैंड रहने की प्रार्थना भी की।

पहला वेतन आने से पहले शहादत

कारगिल के शहीद जवानों की पोस्ट-मॉर्टम रिपोर्ट से खुलासा हुआ कि उन्हें जलती सिगरेटों से जलाया गया था। गरम सलाखों से उनके कान के परदे छेदे गए और आँखें निकालने से पहले उनमें छेद कर दिए गए।

कृषि विश्वविद्यालय, पालमपुर से ग्रेजुएशन करने के बाद सौरभ ने कंबाइंड डिफेंस सर्विसेज की परीक्षा पास की और साल 1997 में आई.एम.ए. में गए। सौरभ के माता-पिता दोनों ही साल 1998 को उनकी पासिंग आउट परेड देखने गए थे।

रचना विष्ट रावत लिखती हैं कि सौरभ कालिया कुछ दिनों की छुट्टी आए तो बहुत खुश थे। सौरभ ने अपनी मां को दस्तखत किया एक खाली चेक पकड़ाते हुये कहा था, ‘मैंने कमाना शुरू कर दिया है। जब जरूरत हो, निकाल लेना।’ दुखद यह कि पहला वेतन बैंक में आ पाता, इससे पहले ही सौरभ शहीद हो गए।

जन्मदिन मनाने घर आने वाला था सौरभ

सौरभ ने 30 अप्रैल,1999 को अपने छोटे भाई वैभव के 20वें जन्मदिन पर उसे बधाई देने के लिए फोन किया था। तब सौरभ ने कहा था कि वह फॉरवर्ड पोस्ट के लिए रवाना हो रहा है। अगर चिठृठी नहीं लिख पाऊँ या फोन नहीं कर पाऊँ तो परेशान मत होना।

तब 29 जून को अपना जन्मदिन मनाने के लिए घर आने की बात सौरभ ने कही थी। घरवालों को की गई सौरभ की वह आखिरी फोन कॉल थी। 9 जून को पाकिस्तान ने भारत को छह क्षत-विक्षत और विकृत शव लौटाए। उन शवों में 4 जाट के 22 साल के कैप्टन सौरभ कालिया का शव भी शामिल था।

सैनिकों को दी थी भयावह यातनाएं

कारगिल के शहीद जवानों की पोस्ट-मॉर्टम रिपोर्ट से खुलासा हुआ कि उन्हें जलती सिगरेटों से जलाया गया था। गरम सलाखों से उनके कान के परदे छेदे गए और आँखें निकालने से पहले उनमें छेद कर दिए गए।

दांत और सिरों की हड्डियां तोड़ दी गई थीं। उनके होंठ, नाक और गुप्तांग काटकर उन्हें भयावह यातनाएं दी गई थीं। ये सभी यातनाएं सैनिकों को मरने से पहले दी गई थीं। बाद में सभी को गोली मार दी गई थी।

रेडक्रॉस ने नहीं करवाया पोस्ट-मॉर्टम

तत्कालीन सेना प्रमुख जनरल वी.पी. मलिक ने अपनी पुस्तक ‘कारगिल: फ्रॉम सरप्राइज टू विक्ट्री’ में लिखा है कि सेना ने भारत के रेडक्रॉस और रेडक्रॉस की अंतरराष्ट्रीय समिति से इन जवानों के शवों के पोस्ट-मॉर्टम करने की विनती की थी, लेकिन दोनों ही एजेंसियों ने ऐसा करने से इनकार कर दिया। बाद में सेना ने दिल्ली में शहीदों का पोस्ट मोर्टम करवाया तो पाक की नापाक हरकत का खुलासा हुआ।

बेटे की लड़ाई लड़ रहे पिता

कारगिल शहीद कैप्टन सौरभ कालिया के बुजुर्ग पिता डॉ. नरिंदर के कालिया अपने शहीद बेटे और उनके पाच साथियों के मानवाधिकारों के लिए दो दशक से भी लंबे समय से लड़ाई लड़ रहे हैं।

सैनिकों के साथ पाकिस्तान के कुकृत्य को वह  ‘जेनेवा समझौते’ का उल्लंघन मानते हैं। इस मामले को अंतरराष्ट्रीय कोर्ट तक ले जाने के लिए उन्होंने लगभग हर दरवाजा खटखटाया है। वे देश के प्रधानमंत्रियों, ,दूतावासों और कॉन्सुलेट तक पहुंचे, लेकिन अफसोस अभी तक कुछ हासिल नहीं हो पाया है। 24 साल बीत जाने के बाद भी वे इस जंग को लड़ रहे हैं। यह जंग कारगिल विजय दिवस पर सालती है।

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