पंडित संत राम बोले, ‘अच्छा यह हैं नड्डा साहब!’
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जेपी नड्डा विपक्ष के नेता थे, उनके पिता डॉ. नारायण लाला नड्डा वीरभद्र सरकार में शिक्षा बोर्ड के चेयरमैन थे
विनोद भावुक, धर्मशाला
राजनीतिक परम्परा तो यही है कि हिमाचल प्रदेश में सरकार बदलने पर सभी निगमों- बोर्डों के अध्यक्ष- उपाध्यक्ष अपने- अपने पद से इस्तीफ़ा दे देते हैं, लेकिन एक बार ऐसा भी हुआ है कि प्रदेश में सरकार बदलने के बावजूद हिमाचल प्रदेश शिक्षा बोर्ड के चेयरमैन ने इस्तीफ़ा नहीं दिया।
वे नई बनी सरकार में भी चेयरमैन के तौर पर निर्धारित समय अवधि तक इस पद पर तैनात रहे और बोर्ड में कन्तिकारी सुधारों को लेकर सुर्ख़ियों में रहे।
भाजपा के वर्तमान राष्ट्रीय अध्यक्ष एवं केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री जगत प्रकाश नड्डा जब हिमाचल प्रदेश विधानसभा में विपक्ष के नेता थे, उनके पिता डॉ. नारायण लाला नड्डा तब वीरभद्र सिंह के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार में हिमाचल प्रदेश शिक्षा बोर्ड के चेयरमैन थे।
शांता की पसंद, वीरभद्र सिंह ने डाला मोल
डॉ. नड्डा को प्रदेश की शांता कुमार के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार ने शिक्षा बोर्ड के चेयरमैन पद पर तीन साल के लिए नियुक्त किया था। 6 दिसंबर 1992 को अयोध्या में बाबरी मस्जिद के ढहने की घटना हुई और शांता कुमार सरकार बरखास्त कर दी गई। राज्य की बागडोर राज्यपाल बलीराम भगत के हाथ चली गई।
साल 1993 में विधानसभा चुनाव हुए और वीरभद्र सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार बनी। मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह ने विशुद्ध शिक्षक और शिक्षार्थी डॉ. नारायण लाला नड्डा की क़ाबलियत पर भरोसा रखा। शिक्षा बोर्ड के रजत जयन्ती समारोह के आयोजन सहित बोर्ड प्रबंधन में क्रांतिकारी सुधार लाकर डॉ. नड्डा ने अपनी प्रतिभा का परिचय दिया। 27 सितम्बर 1995 को उनका कार्यकाल समाप्त हुआ।
फोन पर सहमति, तीन दिन में अधिसूचना
डॉ. नड्डा ने अपनी पुस्तक ‘विधि की एक रचना – आत्मकथा’ में हिमाचल प्रदेश स्कूल शिक्षा बोर्ड के चैयरमैन बनने के प्रसंग को सचित्र लिखा है। वे लिखते हैं,‘ एक दिन घर पर मुझे तत्कालीन मुख्यमंत्री शांता कुमार जी का फोन आया और उन्होंने सीधे सीधे पूछा।
‘क्या आप हिमाचल प्रदेश स्कूल शिक्षा बोर्ड के अध्यक्ष पद पर काम करने के लिए तैयार हैं? वे लिखते हैं , मैंने कहा, ‘मैं 65 साल का हो चुका हूं और यूजीसी इससे अधिक उम्र वालों को ऐसे पदों पर काम करने की अनुमति नहीं देता।’
‘इस समस्या को आप मुझ पर छोड़ दीजिये’, शांता कुमार के इतना कहने पर उन्होंने हामी भर दी। तीन दिन में अधिसूचना जारी हो गई और 29 सितम्बर को उन्होंने कार्यभार सभाल लिया।
इस्तीफ़ा देने का सवाल पैदा नहीं होता
डॉ. नड्डा पुस्तक में उल्लेख करते हैं कि 1993 में प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनी और वीरभद्र सिंह मुख्यमंत्री बने तो दूसरे की दिन वे उनको बधाई देने उनके कार्यालय पहुंचे। उन्होंने मुख्यमंत्री से कहा कि वे विशुद्ध शिक्षक और शिक्षार्थी हैं।
अगले रोज ट्रिब्यून में खबर छपी डॉ. नड्डा शिक्षा बोर्ड के अध्यक्ष पद से हट गए हैं। वे धर्मशाला लौट आये तो दो रोज बाद शिक्षा सचिव का फोन आया, जिसमे कहा गया कि सभी बोर्डों के चेयरमैनों ने इस्तीफे दे दिए हैं, आप भी दे दें।
इस पर डॉ. नड्डा ने जवाब दिया कि मैं राजनीतिज्ञ नहीं हूं, केवल शिक्षाविद हूं। तीन साल के लिए नियुक्ति हुई है, इसलिए इस्तीफ़ा देने का सवाल पैदा नहीं होता।
पंडित संत राम की बातों से मिला इशारा
डॉ. नड्डा लिखते हैं कि कुछ दिनों बाद गग्गल हवाई अड्डे पर एक समारोह हुआ। मंत्री परिषद् में नम्बर दो पर पंडित संत राम शर्मा समारोह के अध्यक्ष थे। बोर्ड के सचिव ने उनका मंत्री से परिचय करवाया। हमने एक दूसरे को पहले कभी नहीं देखा था।
मिलते ही पंडित संत राम ने कहा, ‘अच्छा यही है नड्डा साहब। बीजेपी ने अपने शासन में अच्छे काम नहीं किये हैं। केवल एक ही अच्छा काम किया है, वह है बोर्ड में आपकी नियुक्ति।‘
डॉ. नड्डा लिखते हैं कि इस घटना से उन्हें लगा कि पूरे समय तक उन्हें बोर्ड का अध्यक्ष बनाये रखने के बारे में सर्वोच्च स्तर पर विचार विमर्श हो चुका है।
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