चंबा नहीं अचंभा: देश में गद्दियों के पहरावे का कोई तोड़ नहीं

मनीष वैद/ चंबा
चंबा नहीं अचंभा: देश में गद्दियों के पहरावे का कोई तोड़ नहीं ही। भारत में कहीं भी दूसरी जगह आदिवासियों की वेशभूषा और आभूषण इतने आकर्षक, रंगीन और विविध नहीं हैं, जितने चंबा में हैं।
दरअसल, चंबा सदियों से बाहरी दुनिया से दूर रहा। इसी वजह से चंबा अपनी इस समृद्ध कला और सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित करने में कामयाब रहा और कबायलियों के पहरावे में चंबा टॉप पर है।
हर्मन गोएट्ज़ जैसे कई कला इतिहासकारो ने टिप्पणी की है कि गद्दी की वेशभूषा दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व की कुषाण कला में पाए जाने वाले इंडो-सीथियन दाता आकृतियों के समान है और गुज्जर 7वीं-8वीं शताब्दी ईस्वी के लुप्त हुए गुर्जर-प्रतिहार साम्राज्य के अवशेष हैं।
सांस्कृतिक विरासत के विकास की कहानी
एक दशक के गहन अध्ययन और शोध के बाद के.पी. शर्मा और एस.एम. सेठी की साल 1997 में प्रकाशित पुस्तक कास्ट्यूम्स एंड ऑर्नमेंट्स ऑफ चंबा’ चंबा की वेशभूषा और आभूषणों का अध्ययन कर चंबा के समग्र सांस्कृतिक विकास को उजागर करती है।
किताब में मुगल दरबार व सिख दरबार तक निकटता और चंबा में वैष्णव प्रभाव के प्रसार के बारे में पोशाकों के माध्यम से संकेत देने का प्रयास किया है। इस पुस्तक को दो भागों में विभाजित किया गया है। पहला भाग चंबा की वेशभूषा और दूसरा भाग चंबा के आभूषणों से संबंधित है।
इस पुस्तक के लेखकों ने चंबा के विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों, विभिन्न जातियों, विविध वर्गों और विविध व्यावसायिक समूहों के संदर्भ में चंबा की वेशभूषा और आभूषणों को सूचीबद्ध कर उनका वर्गीकरण और विश्लेषण किया है।
रेफरेंस के अभाव में कंटेन्ट की खोज
लेखकों के लिए इस पुस्तक के लिए कंटेन्ट जुटाना कोई आसान काम नहीं था। पहरावे और आभूषणों को लेकर पुराने समय के बारे में कोई स्रोत सामग्री या रेफरेंस उपलब्ध नहीं था, इसलिए लेखकों को मौजूदा सामग्री, स्थानीय परंपराओं और मान्यताओं पर निर्भर रहना पड़ा।
सनद रहे कि किसी भी विशिष्ट समाज में स्थानीय परंपराएं और मान्यताएं यथोचित रूप से प्रामाणिक होती हैं। लेखकों ने विषय से संबन्धित मूल स्रोत सामग्री का जो संग्रह और संरक्षण किया है, आने वाले समय में बहुआयामी शोध में सहायक सिद्ध होगा।
वोकल फॉर लोकल की जरूरत
पुस्तक खुलासा करती है कि आज दुनिया तेजी से बदल रही है। प्रशासनिक, राजनीतिक, वाणिज्यिक, शैक्षिक और व्यावसायिक उद्देश्यों के लिए दूर- दराज में बसे चंबा के पांगी जैसे दुर्गम क्षेत्र भी बाहरी दुनिया के लिए तेजी से खुल रहे हैं।
आसान विकल्प मानवीय आदतों में बदलाव ला रहे हैं। रेडीमेड सामग्रियों के दौर में स्थानीय वेशभूषा और आभूषणों के कारोबार को लगभग खत्म कर दिया है। दशक, दो दशक पहले की बात है, वस्तुएं जो सदियों से उपयोग में थीं अचानक गायब हो गईं।
आशंका है कि अगले कुछ दशकों में स्थानीय वेशभूषा और स्थानीय आभूषण सदा के लिए लापता हो जाएं।
वेशभूषा और आभूषणों का विज्ञान
पुस्तक की प्रस्तावना में लिखा यह तथ्य देखिये- साल, दो साल का बच्चा सबसे पहले अपनी नग्नता को प्रदर्शित करना पसंद करता है। बच्चा उसी पर जोर देता है। नग्नता की किसी भी चिंता के बिना, वह अपनी सहज इच्छा और प्रदर्शन करने की भावना से प्रेरित होकर अपने शरीर को पत्तियों, फूलों, मिट्टी के रंगों, कागजों और कपड़े के टुकड़ों से सजा लेता है।
रिसर्च साबित कर चुकी है कि प्रदर्शनवाद मानव मन की गुणवत्ता है। यह सभी प्रकार की वेशभूषा और आभूषणों के विकास के लिए उत्प्रेरक है।
गंभीर शोध, गहन अध्ययन की जरूरत
इस पुस्तक के लिए डांटेंट जुटाने में लेखकों को खूब पसीना बहाना पड़ा। चंबा के पहरावे और आभूषणों की विशेषताओं को लेकर इतिहास मौन ही रहा है। इनके बारे में कम ही जानकारी सामने आ पाई है।
लेखकों ने स्वाकार किया है कि चंबा के पहरावे और आभूषणों के बारे में बहुत कम साहित्य उपलब्ध है। इससे पहले कि आधुनिकता की दौड़ में चंबा की यह सांस्कृतिक धरोहर लोप हो जाये, इसके संरक्षण की दिशा में पहल की वकालत यह पुस्तक करती है।
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