British Hindustan Govt Employees ब्रिटिशकालीन हिंदुस्तान का सरकारी नौकर- दिल्ली में जो अनजान, शिमला में खास मेहमा

विनोद भावुक/ शिमला
ब्रिटिश हिंदुस्तान में सरकारी नौकर (British Hindustan Govt Employees ) शिमला पहुंचते ही एकदम सामाजिक प्राणी बन जाता था। दिल्ली में ये लोग दफ्तर से बाहर, महीनों एक-दूसरे की शक्ल नहीं देखते थे लेकिन शिमला में लगभग प्रतिदिन कोई न कोई महफिल जमती या टी-पार्टी होती। कारण यह था कि शिमला जैसी जगह पर उन दिनों मात्र एक ही सिनेमाहॉल था-वह भी चौड़ा मैदान के लक्कड़ बाजार में। माल रोड पर ‘गेयटी’ में थियेटर होता था। एक तो दूरी, रिक्शा वगैरह पर आने-जाने में बेकार खर्च से बचने के लिए निकटस्थ घरों के लोग मिलकर जश्न मनाते और मनोरंजन करते थे। द्रोणवीर कोहली की पुस्तक ‘बुनियाद अली की बेदिल दिल्ली’ के एक रोचक किस्से के अनुसार शिमला-प्रवास के दौरान सरकारी बाबुओं में बागबानी का शौक भी जोर मारता था। दिल्ली में जो लोग कभी खुरपी हाथ में नहीं लेते थे, वे भी अपने क्वार्टर के पास सीढ़ीदार खेतों में टमाटर, फराशबीन, यहां तक कि भुट्टे भी उगाते थे। खासकर टमाटर की खेती बड़ी लाभप्रद थी। पच्चीस-तीस पौधों से प्रतिदिन लगभग पांच किलो तक टमाटर उतरता था।
मुसलमानों और पंडितों के बीच शास्त्रार्थ
द्रोणवीर कोहली लिखते हैं, ‘गर्मियों में शिमला में कादियानी मुसलमानों के धार्मिक नेताओं और आर्यसमाज के पंडितों के बीच भारी शास्त्रार्थ होता था। लोअर बाजार में आर्यसमाज मंदिर था और तमाशा देखने वालों में सभी धर्मों के लोग सम्मिलित होते थे। शास्त्रार्थ में दोनों तरफ से अत्यंत कड़वी बातें कही जातीं। दोनों पक्ष एक-दूसरे की बखिया उधेड़कर रख देते। खूबसूरती की बात यह थी कि इस बिना पर कभी कोई झगड़ा-फसाद नहीं हुआ, बल्कि वाक्पटुता के आधार पर एक-दूसरे को चित करने की कोशिश की जाती और श्रोता इसका भरपूर आनंद लेते।‘
दिल्ली वापसी के लिए बेकरार
छह-सात महीनों की अवधि काफी लंबी होती है। बाबू लोग जिस उत्सुकतावश शिमला कूच की तारीख का इंतजार करते थे, उतनी ही व्यग्रता से दिल्ली वापसी का भी। फिर वही सिलसिला शुरू हो जाता। आते-जाते लोग एक-दूसरे से दरयाफ्त करते कि हेल्थ कमिश्नर कब तारीख निकाल रहे हैं। जब तक हेल्थ कमिश्नर का यह प्रमाण नहीं मिल जाता था कि दिल्ली का मौसम अब रहने लायक हो गया है, ये लोग दिल्ली की तरफ मुंह नहीं करते थे। अंग्रेजों को दिल्ली के मच्छरों से बहुत डर लगता था। उनके दिल्ली लौटने से पहले मच्छर-मार अभियान चलाया जाता और तब कहीं अक्तूबर महीने में ये लोग उतरकर आते एक बार तो दीवाली के बाद ही इन्हें लौटने की इजाजत मिली थी। द्रोणवीर कोहली के अनुसार, ‘शिमला से दिल्ली लौटती बार बाबू लोग बनपशा, दंदासा और अखरोट जैसी तीन-चार चीजें अपने साथ ले जाना नहीं भूलते थे। इसके अतिरिक्त, शिमला में ‘रसपीपन’ किस्म का सेब बड़ा प्रसिद्ध था, जो चार-छह महीने चल जाता था। इसलिए शिमला से लौटती बार ये लोग दस मन सेब भरवाकर लाते और दिल्ली में अपने मित्रों-संबंधियों को सौगात बांटते थे।