आशा शैली : जिंदगी की ढलान, उम्मीदें परवान

आशा शैली : जिंदगी की ढलान, उम्मीदें परवान
  • 82 साल की उम्र में साहित्यिक पत्रिका निकालने वाली  साहित्यकर

वीरेंद्र शर्मा वीर/ चंडीगढ़

बचपन में सुदेश कुमारी के नाम से जानी जाने वाली नटखट बच्ची जीवन के 81 बसंत पार कर ‘आशा शैली’ के नाम से साहित्य जगत के आकाश में चमकता सितारा हैं । वे एक वरिष्ठ साहित्यकार और शैल सूत्र साहित्यिक पत्रिका की संपादक हैं। आज उनका 82वां जन्मदिन है।

सात साल पहले आशा शैली के  व्यक्तित्व और कृतित्व को लेकर विस्तृत बातचीत हुई थी। पेश हैं उस साक्षात्कार के कुछ अंश।

जन्म के समय चल रही थी आजादी के जंग

सुदेश से आशा शैली बन कर चमकी इस बच्ची की  सौतेली दादी के कटु व्यवहार के कारण उनके माता-पिता को गांव वाला घर छोडक़र रावलपिंडी उनके ताऊ के बेटे के पास आना पड़ा।

स्व.विशेषर नाथ ढल्ल एवं स्व. वीरां बाली के घर 2 अगस्त, 1942 को रावलपिंडी (पाकिस्तान) के एक गांव में जन्मीं एक नटखट और शैतान लडक़ी सुदेश कुमारी का जब जन्म हुआ तो देश आजादी की जंग लड़ रहा था।

सुदेश से आशा शैली बन कर चमकी इस बच्ची की  सौतेली दादी के कटु व्यवहार के कारण उनके माता-पिता को गांव वाला घर छोडक़र रावलपिंडी उनके ताऊ के बेटे के पास आना पड़ा।

आशा शैली जब दस माह की अबोध थी तभी उनकी दूसरी बहन का जन्म हो गया। अत: आशा के लालन-पालन का जिम्मा फिर दादी के हाथों आ गया।

पाकिस्तान से विस्थापन, भारत में पुनर्वास

सुदेश से आशा शैली बन कर चमकी इस बच्ची की  सौतेली दादी के कटु व्यवहार के कारण उनके माता-पिता को गांव वाला घर छोडक़र रावलपिंडी उनके ताऊ के बेटे के पास आना पड़ा।

चार वर्ष की उम्र में पिता ने उम्र दो वर्ष ज्यादा बढ़ाकर आशा शैली को स्कूल में दाखिल करवा दिया। इतने में दंगे भडक़ उठे। उनके परिवार को भी विस्थापन का दंश झेलना पड़ा।

पाकिस्तान एक अलग मुल्क बन चुका था। यह परिवार पाकिस्तान छोड़ भारत आ गया और इस विस्थापित परिवार को उत्तर प्रदेश के सितारगंज में बसने को जगह मिली।

सुदेश से बन गई आशा

काम की तलाश में परिवार को सितारगंज से हल्द्वानी शहर आना पड़ा। आशा शैली अभी साढ़े तेरह वर्ष की थी कि परिवार ने उससे नौ वर्ष बड़े एक अनाथ लडक़े मोहन लाल के साथ वर्ष 1956 में उसकी शादी करवा दी गई।

काम की तलाश में परिवार को सितारगंज से हल्द्वानी शहर आना पड़ा। आशा शैली अभी साढ़े तेरह वर्ष की थी कि परिवार ने उससे नौ वर्ष बड़े एक अनाथ लडक़े मोहन लाल के साथ वर्ष 1956 में उसकी शादी करवा दी गई।

पति ने पत्नी में भावी जीवन में आशाओं की किरण देखी तो उसका नाम सुदेश से बदलकर आशा शैली कर दिया।

कहानी लेखन का किया कोर्स

शादी के बाद आशा शैली खूब पढऩे लग गई और गीत, गजल, लघुकथा लिखने लग पड़ी। छोटे भाई केवल कृष्ण ढल्ल ने पत्रिका ‘लघुभारत’ के संपादक और प्रकाशक मशहूर कहानीकार अंबाला निवासी डॉ. महाराज कृष्ण जैन का पता दिया, जिनके मार्गदर्शन में आशा शैली ने कहानी लेखन का कोर्स पूरा किया।

शादी के बाद आशा शैली खूब पढऩे लग गई और गीत, गजल, लघुकथा लिखने लग पड़ी। छोटे भाई केवल कृष्ण ढल्ल ने पत्रिका ‘लघुभारत’ के संपादक और प्रकाशक मशहूर कहानीकार अंबाला निवासी डॉ. महाराज कृष्ण जैन का पता दिया, जिनके मार्गदर्शन में आशा शैली ने कहानी लेखन का कोर्स पूरा किया।

आशा शैली के पति हिमाचल प्रदेश में एचपीपीडब्ल्यूडी में सर्वेयर के पद पर शिमला जिला के रामपुर में तैनात थे। शादी के तीन साल बाद साल 1959 में इस दंपति ने रामपुर के गौरा गांव में जमीन खरीद ली और सेब का बगीचा भी लगाया और एक घर भी बनाया।

चित्रकला में आजमाया हाथ

आशा शैली ने लेखन के साथ पेंटिंग में हाथ आजमाया। आशा ने घर की फैंकी जाने वाली बेकार की कई वस्तुओं पर चित्रकारी शुरू कर दी।

चित्रकला में शिखर पर पहुंचती, साल1982 में पति की एक्सीडेंट में अकाल मृत्यु के पश्चात आशा शैली के ब्रश के रंग सूखते गए। आशा ने अंतिम चित्र अपने अपने पति के पोट्रेट के रूप में ही बनाया।

फिर थाम ली कलम

गौरा में रहते-रहते आशा शैली कवि सम्मेलनों में जाने लगी थी। उपन्यासकार कुशवाहा कांत, गोविंद बल्लभ पंत, जगदीश चंद्र, राहुल सांकृत्यायन उनके मीरा उनके पसंदीदा लेखक हैं, जिन्होंने कलम पकडऩे के लिए उसे फिर उकसाया।

आशा ने देश के हर छोटे-बड़े पत्र-पत्रिका को बहुत सामग्री छपने को भेजी। कुछ ने छापा, कुछ ने नहीं। इसी वजह से देशभर के लेखकों से पहचान भी होती गई।

सीखीं उर्दू लेखन की बारीकियां

आशा शैली ने उर्दू लेखन सीखने के लिए बड़े शायर रघुवीर सहाय, जो साहिर स्यालकोटी के नाम से मशहूर थे, को पत्र लिखकर संपर्क साधा।

वह उन्हें पत्र के जरिये प्रश्न पूछती, अपनी रचना भेजती और वे सुधार कर वापस भेज वह उनसे कभी मिली नहीं थी। एक दिन आया कि उनका जवाब आना बंद हो गया।

डेढ़ साल बाद जालंधर के ही एक और बड़े शायर प्रो. मेहर गिरा जब गियेटी थियेटर शिमला में एक कार्यक्रम में मिले तो आशा शैली को साहिर स्याल कोटी के इंतकाल के बारे पता चला।

वह गियेटी थियेटर में फूट-फूट कर रो पड़ी। उसके बाद प्रो. मेहर गिरा ने ही उन्हें लगातार 14 साल लेखन की बारिकियां समझाईं।

पत्रकारिता की पढ़ाई, पुस्तक लेखन

आशा शैली ने 1971 में जर्नलिज्म किया और कई अखबारों के लिए भी काम किया। उसी समय उनकी एक किताब आई। वर्ष 2005 में पत्रिका के प्रकाशन का विचार तो चला पर योजना आगे नहीं बढ़ सकी, लेकिन 2006 में अभावों के बावजूद ‘शैल-सूत्र’ पत्रिका शुरू हो गई।

आशा शैली ने 1971 में जर्नलिज्म किया और कई अखबारों के लिए भी काम किया। उसी समय उनकी एक किताब आई। वर्ष 2005 में पत्रिका के प्रकाशन का विचार तो चला पर योजना आगे नहीं बढ़ सकी, लेकिन 2006 में अभावों के बावजूद ‘शैल-सूत्र’ पत्रिका शुरू हो गई।

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