सैम्यूल स्टोक्स : भारत के लिए अग्रेजों से लड़ने वाला अमेरिकी

हिमाचल बिजनेस/ शिमला
भारतीय स्वतंत्रता के इतिहास को जब भी खंगाला जाएगा एक ऐसे अमेरिकी का जिक्र भी जरूर आएगा, जिसने ऊपरी शिमला को अपना कार्यक्षेत्र बनाकर अंग्रेजों के खिलाफ आवाज बुलंद की। सैम्यूल स्टोक्स जिन्हें लोग सत्यानंद स्टोक्स के नाम से भी जानते हैं, ने हमेशा ब्रिटिश राज का विरोध किया।
उस दौर में भारतीय पुरुषों को जबरदस्ती ब्रिटिश सेना में भर्ती होने के लिए मजबूर किया जाता था। इसके खिलाफ सत्यानंद स्टोक्स ने कई बार ब्रिटिश सरकार को नोटिस भेजकर इस प्रथा को बंद करने की मांग की।
उन्होंने ब्रिटिश सरकार को कड़े शब्दों में चेताया कि वे न तो लोगों जबरदस्ती सिपाही बना सकते हैं और न ही ब्रिटिश अधिकारियों का सामान ढ़ोने को मजबूर कर सकते हैं। उनकी लड़ाई रंग लाई और ब्रिटिश अधिकारियों ने भारतीयों को सिपाही बनने के लिए मजबूर करना बंद कर दिया।
जलियांवाला कांड के चलते बने सेनानी

सैम्यूल स्टोक्स ने न केवल अपनी जिंदगी भारत में बिताई, बल्कि अंग्रेजों के खिलाफ भारत के स्वतंत्रता संग्राम में बढ़- पढ़ कर भाग भी लिया। साल 1919 में हुए निर्मम जलियांवाला कांड ने उनके दिल को अंदर तक आहत किया। भारतीय लोगों के खिलाफ हिंसा देख कर उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में शामिल होने का फैसला किया।
‘गांधी के भारत में एक अमेरिकी’ पुस्तक में आशा शर्मा लिखती हैं कि जलियांवाला बाग में निहत्थे भारतीयों पर गोलियां चलाने की घटना के बाद सैम्यूल स्टोक्स ने पूरी तरह से एक भारतीय स्वतंत्रता सेनानी की तरह मोर्चा संभाल लिया।
वे ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ होने वाले प्रदर्शनों व सभाओं में भागीदारी करने लगे। वे पंजाब प्रांतीय कमेटी के सदस्य बने। वर्ष 1920 में अखिल भारतीय कमेटी के नागपुर सत्र में भाग लेने वाले सेम्युल स्टोक्स न केवल एकमात्र अमेरिकी थे बल्कि एकमात्र गैर भारतीय थे। इस वह बैठक में वे कोटगढ़ (शिमला हिल्स) प्रतिनिधि थे।
प्रिंस ऑफ वेल्स की भारत यात्रा का विरोध

वर्ष 1921 में अन्य भारतीय कांग्रेस सदस्यों की तरह सैम्यूल स्टोक्स ने भी प्रिंस ऑफ वेल्स की भारत यात्रा का विरोध किया। अंग्रेजों ने उन्हें वाघा में गिरफ्तार कर लिया और जेल भेज दिया।
आशा शर्मा ने लिखती हैं कि अमेरिका के एक प्रतिष्ठित कारोबारी परिवार का बेटा भारत की आजादी की जंग लड़ा और उम्र भर दीन- दुखियों की सेवा भी की।
हिमालय का सम्मोहन

अमेरिका की स्टॉक्स एंड पैरिश मशीन कंपनी का वारिस होते हुए भी सैम्यूल स्टोक्स ने अपना जीवन भारत में कोढ़ से पीड़ित मरीजों की सेवा करते हुए बिताया। वर्ष 1904 में अमेरिका में अपनी आराम की जिंदगी छोड़कर वे भारत आए।
उनके पिता को यकीन था कि उनका बेटा जल्द घर लौटेगा, लेकिन वे अनजान थे कि भारत की यह यात्रा उनके बेटे को अमेरिकी से भारतीय बना देगी। सैम्यूल स्टोक्स ने हिमालय की गोद में बसे शिमला के कोटगढ़ में पहुंच कर कुष्ठ रोगियों की सेवा करनी शुरू कर दी।
प्रेम में गहरे रंगे स्टोक्स
वर्ष 1912 में सैम्यूल स्टोक्स को राजपूत- क्रिश्चन मूल की लड़की बेंजामिन एनिहस से प्यार हो गया, जिनसे बाद में उन्होंने शादी कर ली। आशा शर्मा लिखती है कि जब सैम्युल भारत में काम कर रहे थे तो उन्हें अहसास हुआ कि अभी भी भारतीय लोग उन्हें बाहरी ही समझते हैं।
सैम्यूल स्टोक्स चाहते थे कि भारतीय लोग उन्हें अपना ही हिस्सा समझें, इसलिए उन्होंने भारतीयों की तरह कपड़े पहनना शुरू कर दिए। उन्होंने पहाड़ी बोली बोलना भी सीखा और ठेठ पहाड़ी के रूप में ढल गए। वे लोगों के साथ उन्हीं की जुबां में बात करते थे, उन्हीं की तरह रहते थे। धीरे-धीरे सभी लोग उन्हें अपना मानने लगे और उन्हें समझ आया कि वे उनकी सेवा के लिए यहां रह रहे हैं।
भारतीयता से गहरा प्रेम
आशा शर्मा लिखती हैं कि वह किस कद भारतीयता के रंग में रंग चुके थे, इसे इस बात से समझा जा सकता है कि ब्रिटिश सरकार को लिखे गए उनके पत्रों ने भारतीय मजदूरों के बारे में उन्हें के बजाय ‘हम’ के रूप में बात की थी।
उनके इस रवैये से पता चलता है कि वे खुद को पूरी तरह से भारतीय मानते थे। यह उनका भारतीयता से प्रेम ही था, जिसने उन्हें के रंगों में डाल दिया था।
सैम्यूल स्टोक्स से बन गए सत्यानंद
अपने सात बच्चों में से एक की बहुत कम उम्र में ही मौत हो जाने के बाद सैम्यूल स्टोक्स को गहरा धक्का लगा। उन्होंने अपना धर्म परिवर्तन कर हिन्दू धर्म को अपना लिया। वे सैम्युल स्टॉक्स से सत्यानंद बन गए।
उनकी पत्नी ने भी अपने पति का अनुसरण करते हुए हिन्दू धर्म अपना लिया और वे प्रिय देवी बन गई। दंपति ने अपने सभी बच्चों को भारतीयों की तरह पाला। उन्होंने कहा कि ‘मैंने एक भारतीय से शादी की और भारत में रहना चाहता हूं, इसलिए मेरे बच्चों को भारतीयों के रूप में जाने जाना चाहिए, न कि एंग्लो-इंडियंस के रूप में।
आज भी दिलों में गहरे बसे हैं
बीमारी के चलते सैम्यूल स्टोक्स ने 14 मई 1946 को आखिरी सांस ली। उन्हें शिमला के कोटघर में दफनाया गया। इतना लम्बा अर्सा बीत जाने के बावजूद आज भी ऊपरी शिमला के लोगों में उसके प्रति खास श्रद्धा है।
उन्होंने न केवल क्षेत्र के पीड़ितों के दुख दर्द को बांटने का काम किया, बल्कि देश की आजादी के लिए स्थानीय लोगों में देशभक्ति की अलख़ भी जगाई है।
शिमला को सेब का सौगात
आज सेब उत्पादन का हिमाचल की आर्थिकी में अहम रोल है यहां पैदा होने वाला सेब अब निर्यात भी किया जा रहा है। बेशक अब हिमाचल में कई नई वैरायटीज के सेब पैदा हो रहे हैं, लेकिन कभी इस पहाड़ी प्रदेश में सेब की शुरुआत अमेरिका से लाए सेब के पौधों से हुई थी।
यह पौधे अमेरिका से यहां पहुंचाने वाले थे सैम्यूल स्टोक्स। वर्ष 1915 में अपनी अमरिका यात्रा के दौरान उन्हें लाल एवं स्वादिष्ट सेब की एक प्रजाति के बारे में पता चला। इस प्रजाति को हिमालय के मौसम और मिट्टी में भी उगाया जा सकता है।
वे अमेरिका से सेब के पौधे लाए और खुद बागवानी शुरू की और पहाड़ के लोगों को सेब की खेती करने के लिए जागरूक किया, ताकि उन्हें रोजगार मिल सके। पांच साल बाद सैम्यूल की मां ने उपहार स्वरूप उन्हें गोल्डन सेब के पौधे भेजे।
सेब बन गया आर्थिकी का आधार
सैम्यूल स्टोक्स के प्रयासों से तेजी से शिमला हिल्स में सेब बागानों की संख्या बढ़ती गई और कुछ सालों बाद ही सेब यहां की प्रमुख नकदी फसल बन गई। उन्होंने अपने सम्पर्कों के जरिये सेब की बिक्री के लिए दिल्ली के बाजार के रास्ते भी खुलवा दिए। इससे सेब उत्पादकों को अपना उत्पाद बाजार तक पहुंचने का रास्ता मिला।
सैम्यूल ने शिमला हिल्स में सेब उगाने का जो सपना संजोया, वह शिमला से होता हुआ, कुल्लू, मंडी, चंबा लाहौल और किन्नौर तक जा पहुंचा।
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