इदरीस : रहस्य से आजाद, उजियारे में सूफीवाद

विनोद भावुक/ शिमला
16 जून 1924 को ब्रिटिश भारत की तत्कालीन ग्रीष्मकालीन राजधानी शिमला में एक अफगान भारतीय पिता और स्कॉटिश मां के घर पैदा हुए इदरीस सूफी परंपरा को भारत से बाहर फैलाने वाले सबसे महान साधकों, विचारकों और शिक्षकों में से एक थे।
इदरीस ने अपना सारा जीवन इंग्लैंड में बिताया और सूफी आंदोलन के इस संदेश के प्रचार में जुटे रहे कि प्रेम ही ईश्वर की खोज का एकमात्र साधन है।

इदरीस के जीवन के प्रारंभिक सालों में लेखक एवं राजनयिक पिता इकबाल अली शाह के साथ पूर्व के प्रमुख बुद्धिजीवियों और राजनेताओं से संपर्क हुआ। उन्हें बौद्धिक लाभ के ऐसे कई अवसर मिले, जिससे उन्हें दुनिया की व्यापक दृष्टि रखने वाला व्यक्ति बनने में सहायता मिली।
इदरीस एक ऐसे व्यक्ति बने, जिन्होंने सूफीवाद से जुड़े रहस्यवाद का अनावरण किया और उसे उजागर किया। इदरीस ने आध्यात्मिकता, मनोविज्ञान, यात्रा वृतांत और सांस्कृतिक अध्ययन के व्यापक दायरे में तीन दर्जन से अधिक पुस्तकें लिखीं।
उन्होंने अपना जीवन पश्चिम की जरूरतों के लिए सूफी शास्त्रीय साहित्य के प्रमुख कार्यों को इकट्ठा करने, अनुवाद करने और अनुकूल करने के लिए समर्पित कर दिया।
‘द सूफीज’ से खोला सूफी रहस्यवाद
इदरीस के प्रारंभिक कार्य जादू और तंत्र-मंत्र पर आधारित अल्पसंख्यक विश्वास प्रणालियों से संबंधित थे, लेकिन साल 1964 में प्रकाशित ‘द सूफीज’ में उन्होंने सूफी रहस्यवाद को पश्चिमी बुद्धिजीवियों के लिए अधिक आकर्षक और पठनीय रूप दिया और सूफी रहस्यवाद को दुनिया में सबसे आगे ला दिया।
उन्होंने लिखा है कि सूफी सिद्धांत को पश्चिम में वैज्ञानिक पद्धति के रूप में जाना जाता है और बाद का पश्चिमी विज्ञान काफी हद तक इस पर आधारित है।
मनोवैज्ञानिक उपचार है सूफीवाद
इदरीस ने सूफीवाद को एक मनोवैज्ञानिक उपचार के रूप में पेश किया, जिससे यह आध्यात्मिक ज्ञान एक वैज्ञानिक उपकरण बन गया। यह आत्म-प्राप्ति और जीवन के प्रति हमारी चेतना का विकास करने में सहायता करता है।
‘द सूफीज’ की प्रस्तावना में उन्होंने लिखा है कि सूफीवाद, आंतरिक आवाज से जुड़ने से संबंधित हैं। उन्होंने विद्वतावाद और सूफीवाद के बीच अंतर को स्पष्ट किया।
विद्वतावाद जानकारी जमा करने और उससे निष्कर्ष निकालने में रुचि रखता है, जबकि सूफीवाद परम ज्ञान के साथ संचार की एक श्रृंखला विकसित करने पर लगा हुआ है।
लोककथाओं के जरिये सूफी परंपरा का प्रसार
इदरीस ने कहानी कहने और लोककथाओं की सूफी परंपरा को जन-जन तक पहुंचाने का बड़ा काम किया। उन्होंने अपने पश्चिमी पाठकों के लिए कहानियों को पुनर्जन्म दिया। उनकी सबसे प्रसिद्ध और मान्यता प्राप्त कहानियों में से एक ‘बुद्धिमान’ मूर्ख मुल्ला नसरुद्दीन पर केंद्रित है। हास्य और जटिल ज्ञान से भरी ये कहानियां साल 1970 में बीबीसी पर प्रसारित डॉक्यूमेंट्री ‘ड्रीमवॉकर्स’ का हिस्सा बनीं।
लोग इदरीस की लिखी कहानियों को पढ़ते हैं, उनका विश्लेषण करते हैं और उनमें निहित अर्थों की छिपी परतों को उजागर करते हैं। फिर भी ये कहानियां सभी उम्र के लोगों के लिए सही समय पर सही ज्ञान प्रदान करने के लिए उपयुक्त साबित हुईं।
नए दृष्टिकोणों को प्रकट करती ये कहानियां किसी की चेतना को मथने और जीवन को देखने का एक नया नजरिया प्रदान करती हैं।
कई भाषाओं में हुआ किताबों का अनुवाद
इदरीस की किताबों का कई भाषाओं में अनुवाद हुआ और दुनिया भर में पढ़ी गईं। उनका प्रयास अपने लेखन के माध्यम से सूफी विचार को प्रचारित करने तक ही सीमित नहीं था।
उन्होंने मानव व्यवहार, संस्कृति और सूफी के विभिन्न पहलुओं पर विद्वानों की बातचीत और बहस का समर्थन करने के लिए चैरिटी शिक्षा, सांस्कृतिक अनुसंधान संस्थान लंदन की स्थापना की।
पूरब और पश्चिम का अनोखा संगम
‘बुक्स आय हैव लव्ड’ में रजनीश ओशो ने इदरीस के बारे में कुछ इस तरह से लिखते हैं कि रहस्य के पर्दे में ढंके सूफियों को दिन के उजाले में लाने का महत्वमपूर्ण काम इदरीस ने किया है।
इदरीस एक अद्भुत व्यक्तित्व हैं। वे जीवन के आखरी दस साल सूफी विरासत के पौधे को समकालीन पाश्चात्य चिंतन के आंगन में लगाने का बहुमूल्य काम करते रहे।
इदरीस शाह के भीतर पूरब और पश्चिम का अनोखा संगम था, इसलिए बेबूझ, अतर्क, सूफी साहित्य को पश्चिम की बुद्धिवादी तर्क सरणी में प्रभावशाली ढंग से अभिव्यक्त कर सके।
पूरब की मय, पश्चिम का पैमाना
सूफी साहित्य पर उनकी लगभग एक दर्जन किताबें हैं। ओशो कहते हैं कि सूफी लोगों को आप कोई भी व्यवस्था नहीं दे सकते। उनके न तो मंदिर बन सकते हैं, न शास्त्र न क्रिया कांड, इसलिए उनका स्कूल, कॉलेजों में अध्ययन नहीं किया जा सकता।
सूफियों का दर्शन शास्त्र नहीं है, क्योंकि उनका ज्ञान शब्दों में संरक्षित नहीं है। वह सद्गुरु के अंतर्मन में समाहित हैं। सद्गुरु अपनी आंखों में, आचरण से, खामोशी और अपने वजूद से शिष्यों को संप्रेषित करता है, इसलिए सूफियों में सद्गुरु का महत्व असाधारण होता है।
सूफी सद्गुरु प्रतीकों में बात करते हैं। उनकी बातें समझने के लिए तर्क संगत मस्तिष्कों को परे हटाना होता है। सूफी आबो-हवा इदरीस की रग-रग में समाई थी। साथ ही उन्हें पाश्चात्य शिक्षा भी नसीब हुई थी, इसलिए वे पूरब की मय को पश्चिम के पैमाने में उंडेलने का काम बखूबी करते रहे।
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