जीणा कांगड़े दा : लोकगीतों का बादशाह प्रताप शर्मा रहा फाकों का गवाह

जीणा कांगड़े दा : लोकगीतों का बादशाह प्रताप शर्मा रहा फाकों का गवाह
जीणा कांगड़े दा : लोकगीतों का बादशाह प्रताप शर्मा रहा फाकों का गवाह
वीरेंद्र शर्मा ‘वीर’/ कांगड़ा
1960 के दशक की बात है। समय प्रोफेसर चंद्रबर्कर कांगड़ा के जिला लोक संपर्क अधिकारी थे और संगीतकार मास्टर श्याम सुंदर लोक संपर्क विभाग कांगड़ा की ड्रामा तैनात थे। प्रोफेसर चंद्रबर्कर ने एक रोज प्रताप शर्मा से कहा कि कोई ऐसा गीत और उसकी धुन तैयार करो, जो कुदरत के साथ जुड़ा हो और कांगड़ा के लोकजीवन की झलक पेश करता हो। प्रताप शर्मा ने कुछ दिनों के बाद जिला लोक संपर्क अधिकारी को गीत का मुखड़ा गाकर सुनाया तो वे इस कलाकार के कायल हो गए।
उनकी प्रेरणा से प्रताप शर्मा ने इस गीत के अंतरे लिखे और इस तरह कालजयी गीत ‘ठंडी ठंडी हवा जे झुलदी, झुलदे चीलां दे डाळु, जीणा कांगड़े दा’ की रचना हुई। उन्होंने इस गीत को इतनी बार और इतनी शिद्दत से गाया कि लोगों की जुबान पर चढ़ गया। यह सदाबहार गीत आज भी कांगड़ा जनपद के गीतों में शीर्ष स्थान पर है।
खुद तैयार किया लोकवाद्य यंत्र धंतारू
लोकगायन के प्रति दिवानगी इतनी कि प्रताप शर्मा ने खुद लोकवाद्य इकतारा जिसे स्थानीय भाषा में धंतारू कहते हैं, बना कर उस पर कई कालजयी धुनों की रचना की। घिया सूखा कर उस पर एक तरफ बकरे खाल, पतली तार और बांस की डंडी लगाकर बनने वाले लोकवाद्य धंतारू पर बनाई गई धुनों ने प्रताप शर्मा को अपने दौर का सबसे हिट गायक बना दिया।
प्रताप शर्मा ने गांवों में गाई जाने वाली राग- रागणियों का अध्ययन किया और एक से बढ़कर एक गीत लिखे। भारत- चीन युद्ध के दौरान उनका लिखा ‘जे तू चल्ला नेफा नौकरी, मेरे गळे दे हारे लैंदा जायां’ लिखकर तहलका मचा दिया। साल 1968 में प्रताप शर्मा के गीतों का प्रसारण आकाशवाणी शिमला से शुरू हो गया। साल 1984 के बाद वे जालंधर दूरदर्शन से जुड़े और कई कार्यक्रम पेश किए।
पिता से सीखी गीत- संगीत की बारीकियां 
प्रताप शर्मा का जन्म 23 जनवरी 1927 को कांगड़ा जिला के ऐतिहासिक प्रागपुर कस्बे के नळेटी गांव के पंडित झाणुराम और माता काळोदेवी के घर हुआ। प्रागपुर के व्यापारी सेठ नुहारू मल्ल ने शिक्षा धर्मसभा और संस्कृत शिक्षा के नाम से प्राइमरी स्कूल खोला था, जहां चौथी तक पढ़ाई होती थी। इसी स्कूल से प्रताप शर्मा ने तीसरी क्लास तक पढ़ाई की। साल 1941 में जब प्रताप शर्मा की उम्र महज 14 साल थी, घर वालों में उनकी शादी कर दी।
पंडित झाणुराम खेती और मजदूरी करने के साथ कथा- कीर्तण भी करते थे। वे लोक संगीत के अच्छे जानकार थे और लोकगीत गाया करते थे। पिता की संगत में बेटे प्रताप को भी गायन का चस्का लग गया। पिता ने देख कि उनके बेटे के पास लोक गायन के लिए अच्छा कंठ है, तो उन्होंने उसे लोकगायकी के गुर सिखाए। इस तरह पिता अपने बेटे के पहले गुरु बन गए।
गायकी ने दिलवाई नौकरी
साल 1961 में प्रताप शर्मा के पिता का स्वर्गवास हो गया और इसके कुछ समय बाद उनका बनाया घर भी गिर गया। परिवार का गुजर- बसर करने के लिए प्रताप शर्मा को मजदूरी करनी पड़ी। 26 जनवरी 1962 को देश की आजादी पर खुद का लिखा और संगीतबद्ध किया एक कांगड़ी गीत प्रागपुर स्कूल में आयोजित गणतन्त्र दिवस कार्यक्रम के अवसर पर सुनाया।
इस कार्यक्रम में उपस्थित विद्वान पंडित दुर्गादत्त शास्त्री उनके लिखे बोलों और मखमली आवाज पर बहुत प्रभावित हुए। दुर्गादत शास्त्री और पंडित सुशील रत्न की सिफ़ारिश पर प्रताप शर्मा की मास्टर श्याम सुंदर के नेतृत्व में लोक संपर्क विभाग कांगड़ा की संगीत पार्टी में अंशकालिक नौकरी लग गई। लोक संपर्क विभाग कांगड़ा में तैनात मास्टर श्याम सुंदर ने उन्हें गीत लिखने और उनको संगीत से सजाने में माहिर कर दिया।
प्रताप शर्मा के गीतों पर फिदा हुए महिंद्र कपूर
1962-1986 तक लोक संपर्क विभाग कांगड़ा की सेवा करने यह महान गायक अनुबंध कर्मचारी रहे। उन्हें सिर्फ कार्यक्रम पेश करने के हिसाब से भुगतान किया जाता था। शुरू में हर कार्यक्रम के लिए पाँच रुपये मिलते थे, जो 1986 के आने तक 400 रुपये प्रति कार्यक्रम तक पहुंचे थे। प्रताप शर्मा ने 1982 में उत्तर क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र पटियाला के संगीत नाटक विभाग के साथ जुड़ कर चंडीगढ, दिल्ली, लखनऊ और जम्मू में भारत सरकार के कार्यक्रमों में गायन किया।
उत्तर क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र ने साल 2005 में उनके लिखे गीतों को ‘मेरी धरती मेरे गीत’ शीर्षक से पुस्तक में प्रकाशित किया। इस पुस्तक में उनके लिए 112 भजन और गीत शामिल हैं। एक बार हमीर उत्सव में मुंबई से केके, शैलेंद्र सिंह और महिंद्र कपूर सरीखे बॉलीवुड गायक भाग लेने आए थे। इस उत्सव में प्रताप शर्मा भी भाग ले रहे थे। श्रोताओं ने प्रताप चंद को सुनने की ज़ोरदार मांग उठा दी। महिन्द्र कपूर ने गाना छोड़ माइक प्रताप शर्मा को थमा कर एक श्रोता बन कर कार्यक्रम का आनंद लिया।
गायन के लिए मिले सम्मान
प्रताप शर्मा को 23 सितंबर 1969 को मंत्री लालचंद प्रार्थी ने उन्हें प्रमाण पत्र देकर सन्मानिात किया। 27 अक्तूबर 1974 को हिमाचल साहित्यकार परिषद और 30 अक्तूबर 1981 कांगड़ा लोक साहित्य परिषद ने भी उन्हें सम्मानित किया। लोक संस्कृतिक और लोक गीत विधा में योगदान के लिए उन्हें भारत सरकार ने राष्ट्रीय पुरस्कार दिया।
उन्हें हिमाचल कला संस्कृति अकादमी ने संस्कृत साहित्य प्रथम पुरस्कार, उत्तर प्रदेश संस्कृत अकादमी ने महाकवि वाणभट्ट पुरस्कार, अखिल भारतीय राष्ट्रीय एकता सम्मेलन ने 1994 में राष्ट्रीय एकता पुरस्कार, उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान ने विशिष्ट विद्वान पुरस्कार और राष्ट्रपति कार्यालय की तरफ से भी उन्हें प्रमाण पत्र प्रदान किया गया।
सरस्वती रही मेहरबान, लक्ष्मी रही हमेशा रूठी
अमर गीतों के रचियाता प्रताप शर्मा पर सरस्वती खूब मेहरबान रही, लेकिन लक्ष्मी हमेशा रूठी ही रही। उनकी कला के लिए सम्मान तो मिले, लेकिन उनकी आर्थिक स्थिति हमेशा डांबाडोल ही रही। हिमाचल प्रदेश के भाषा, कला एवं संस्कृति विभाग ने कालजयी गीतों के सृजक प्रताप शर्मा को जररतमंद साहित्यकारों और कलाकारों को मिलने वाली पैंशन के काबिल भी नहीं समझा। जीवन के आखिरी सालों में जरूर उन्हें उन्हें बुढापा पैंशन लगी।
जीवन के आखिरी दिनों में जब वे गंभीर रूप से बीमार थे तब भी कोई संस्था उनकी मदद करने आगे नहीं आई। उनकी मौत के बाद तत्कालीन सांसद शांता कुमार के प्रयासों से उनके परिवार को जरूर एक लाख की आर्थिक मदद मिली। आधी सदी लोक गायन को समर्पित कर कई अमर गीत रचने वाले प्रताप शर्मा का 27 नवंबर 2018 को 92वें साल की उम्र में देहावसान हो गया। पोते मोहित शर्मा अपने दादा के तमाम रचनाकर्म को सहेजने में जुटे हैं।
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Jyoti maurya

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