प्रो नरेंद्र अरुण इसलिए आते रहेंगे याद, उन्होंने किया है रविन्द्र नाथ टैगोर की ‘गीतांजलि’ का हिमाचली में अनुवाद

प्रो नरेंद्र अरुण इसलिए आते रहेंगे याद, उन्होंने किया है रविन्द्र नाथ टैगोर की ‘गीतांजलि’ का हिमाचली में अनुवाद
विनोद भावुक/ कुनिहार
प्रो नरेंद्र अरुण को इस दुनिया को छोड़े दस साल होने जा रहे हैं, लेकिन आज भी पहाड़ के दिल में वे गहरे रचे- बसे हैं। वे इसलिए भी हमेशा याद आते रहेंगे क्योंकि उन्होंने रविन्द्र नाथ टैगोर की नोबल पुरस्कार विजेता कृति ‘गीतांजलि’ का हिमाचली में अनुवाद किया है। उन्होंने राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर के महाकाव्य ‘रश्मि- रथी’ का भी ‘पुण्य रथी’ के नाम से हिमाचली में अनुवाद किया। उन्होंने पहाड़ के 160 लोकगीतों का संकलन ‘मांडव्य’ भी तैयार किया और प्रजामण्डल के जनक बाबू राम पर पुस्तक भी लिखी।
प्रो नरेंद्र अरुण इंदिरा गांधी मानव संग्रहालय भोपाल और भाषा अकादमी दिल्ली से जुड़कर भी साहित्य और संस्कृति संरक्षण का काम करते रहे। उन्होंने शिमला दूरदर्शन के लिए लोककथाओं और लोक नाटयों पर कई वृतचित्र तैयार किए। इससे पहले कि उनकी 12 कहानियों के संग्रह ‘डोलमा’ का प्रकाशन हो पता, दिल के रोग ने उन्हें हमसे छीन लिया।
आखिरी राजा के सबसे छोटे बेटे
नरेंद्र अरुण का जन्म सोलन जिले की छोटी विलायत कहे जाने वाले कुनिहार में 26 जनवरी 1939 को हुआ। वे कुनिहार रियासत के आखिरी राजा राणा हरदेव सिंह के सबसे छोटे बेटे थे। उन की मैट्रिक की पढ़ाई सुबाधू स्कूल से हुईं। घर में गीत- संगीत का माहौल होने के चलते अरुण को बचपन में कला-संस्कृति के प्रति गहरा लगाव हो गया।
नरेंद्र अरुण के पिता राणा हरदेव सिंह संगीत की अच्छी समझ रखते थे। जब कभी राणा हरदेव सिंह का मूड हरमोनियम बजाने का होता तो अरुण तबले पर संगत देते। तबला वादन में मामूली सी गलती होने पर पिता से झाड़ तक सुननी पड़ती थी। इस तरह पिता ही उनके पहले साहित्यिक- सांस्कृतिक गुरु हुये।
पुलिस के एएसआई से कॉलेज प्रोफेसर तक
मैट्रिक करने के बाद नरेंद्र अरुण शिमला चले गए और प्रभाकर में दाखिला लिया। एफए और बीए करने के बाद उन्होंने पंजाब यूनिवर्सिटी से एमए हिन्दी की पढ़ाई पूरी की। हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय से एमफिल की पढ़ाई कर साल 1957 में पुलिस में एएसआई भर्ती हुए। इस नौकरी के दौरान ही उनका पहला नाटक ‘बरासा रे फूल’ प्रकाशित हुआ।
पुलिस विभाग से वे दो साल के लिए हिमाचल प्रदेश भाषा, कला एवं संस्कृति अकादमी शिमला में डेपुटेशन पर आ गए। इससे पहले कि वापिस मूल विभाग में लौटते, उनकी नियुक्ति कॉलेज लेक्चरर के तौर पर हो गई। यहीं पर वे प्रोफेसर नरेंद्र अरुण के नाम से विख्यात हो गए। साल 1993 में शिक्षा विभाग से स्वैच्छित सेवानिवृति लेकर साहित्य सृजन के लिए समर्पित हो गए।
अकादमी पुरस्कार के पहले विजेता
उन दिनों हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय के युवा उत्सवों में प्रोफेसर नरेंद्र अरुण के नाटकों का मंचन होता, जिसके निर्देशन का जिम्मा वे खुद संभालते थे। उनके काव्य संग्रह ‘रंग बिरंगे फूल’ को हिमाचल कला संस्कृति भाषा अकादमी ने पुरस्कृत है। भाषा, कला एवं संस्कृति अकादमी का पहला पुरस्कार प्रोफेसर नरेंद्र अरुण को मिला।
अध्ययन, अध्यापन, शोध और लेखन संग वे हिमाचली भाषा की पैरवी करने वाले अग्रदूतों में शामिल रहे। साल 2014 में 14 जून की शाम को अपने पैतृक गाँव थावना में दिल का दौर पड़ने से वे इस दुनिया को अलविदा बोल गए। हिमाचली साहित्य को नया फलक देने वाले प्रोफेसर नरेंद्र अरुण हमेशा पहाड़ के दिल में धड़कते रहेंगे।
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