हिंदोस्तान के बंटबारे और दंगों का दर्द बेशुमार, लाहौर, डलहौजी और शिमला से जुड़े मार्मिक कथा के तार
हिंदोस्तान के बंटबारे और दंगों का दर्द बेशुमार, लाहौर, डलहौजी और शिमला से जुड़े मार्मिक कथा के तार
विनोद भावुक। शिमला
इस सत्यकथा में हिंदोस्तान के बंटबारे और दंगों का बेशुमार दर्द है। इसके कई मार्मिक प्रसंग लाहौर, डलहौजी और शिमला से जुड़े हैं। ‘माय मेमोरीज ऑफ लाहौर एंड द पार्टिशन’ इंदिरा कुमार यानी इंदिरा आनंद की बहुचर्चित आत्मकथा है, जिसमें 1947 के भारत विभाजन के दर्दनाक अनुभवों को बहुत ही भावुक शब्दों में पिरोया गया है।
जब लाहौर में हिंदुओं पर हमले हो रहे थे, सौभाग्य से उस समय इंदिरा कुमार का परिवार डलहौज़ी में था। वे इसलिए बच गए, पर उनका लाहौर का मकान, संपत्ति और सब कुछ छिन गया। उनके पिता ने शिमला में लॉ कॉलेज शुरू किया।1986 में इंदिरा कुमार अपने कॉलेज के दोस्तों के साथ पाकिस्तान गईं तो उनकी कई पुरानी यादें ताज़ा हो उठीं।
लाहौर लॉ कॉलेज के प्रिंसिपल की बेटी
‘माय मेमोरीज ऑफ लाहौर एंड द पार्टिशन’ में इंदिरा कुमार ने बंटवारे से पहले के लाहौर, अपने बचपन, परिवार और फिर 1947 के विभाजन के दर्दनाक अनुभवों को बहुत नर्म शब्दों में लिखा है। इंदिरा कुमार का जन्म 1929 में लाहौर में एक बड़े, पढ़े-लिखे और प्रतिष्ठित हिंदू परिवार में हुआ था। उनके पिता सी.एल. आनंद लाहौर लॉ कॉलेज के प्रिंसिपल थे।
उनका परिवार 36, डेविस रोड के विशाल घर में रहता था। उनके घर में कई कमरे, बड़ा बगीचा, खेती-बाड़ी, गाय-भैंस, नौकर-चाकर सबकी पर्याप्त व्यवस्था थी। जीवन बेहद सरल, सुरक्षित और खुशहाल था। इस मुहल्ले में हिन्दू-मुस्लिम सब साथ रहते थे। मोहल्ले में जज, डॉक्टर, राजनेता, और आईसीएस अफसर आदि बड़े-बड़े नामी लोग रहते थे।

पाकिस्तान की मांग, जहरीला हुआ माहौल
इंदिरा कुमार लिखती हैं कि बच्चे साइकिल से स्कूल जाते थे। घर में एक साथ संगीत सीखते, खेलते और त्योहारों पर मेल-मिलाप खूब होता था। इंदिरा कुमार गंगाराम स्कूल और फिर लड़कियों के लिए सबसे प्रतिष्ठित किन्नार्ड कॉलेज में पढ़ीं। गंगाराम स्कूल में वह स्कूल की हेड गर्ल थीं और नेहरू, सरोजिनी नायडू, मौलाना आज़ाद जैसे नेताओं को नज़दीक से देखा।
अपनी आत्मकथा में इंदिरा कुमार लिखती हैं, किन्नार्ड कॉलेज में हिन्दू-मुस्लिम लड़कियां मिलजुल कर रहती थीं, लेकिन धीरे-धीरे जिन्ना की पाकिस्तान की मांग ने इस दोस्ती में दरार डाल दी। हिन्दू- मुसलमान का खेल चरम पर था। साल1947 के आते-आते लाहौर में माहौल पूरी तरह से ज़हरीला हो गया था।
पहले खुद बेघर हुईं, फिर राहत शिविर में सेवा
भारत विभाजन के चलते लाहौर में हिंदुओं पर हमले होने लगे। इंदिरा जी का परिवार उस समय डलहौज़ी में था, इसलिए बच गया, लेकिन उनका लाहौर का मकान, संपत्ति और सब कुछ छिन गया। इंदिरा लिखती हैं, सड़कें लाशों से भरी थीं। हजारों लोग मारे गए या बेघर हुए। यह दर्दनाक दृश्य देखकर इंदिरा कुमार भीतर तक टूट गईं।
दिल्ली आने के बाद उन्होंने अपनी बहन के साथ करनाल, पानीपत और कुरुक्षेत्र के राहत शिविरों में काम किया। महिलाओं पर हुए अत्याचार, बिछुड़े हुये परिवारों का दर्द और टूटे लोगों की हालत देखकर, वे खुद भी मानसिक रूप से बहुत प्रभावित हुईं। ट्रॉमा सेंटर में काम करते उनकी हालत बिगड़ गई। बाद में उन्हें इस सेवा से मुक्त कर दिया।

शिमला से नई ज़िंदगी की शुरुआत
इंदिरा कुमार लिखती हैं कि शिमला में उनके पिता ने नया लॉ कॉलेज शुरू किया। धीरे-धीरे परिवार ने नई ज़िंदगी सँभाली। कई साल बाद,1986 में, वे पुराने किन्नार्ड कॉलेज के दोस्तों के साथ पाकिस्तान गईं, जहां मीडिया ने उनका गर्मजोशी से स्वागत किया और उनकी बचपन और जवानी की कई पुरानी यादें ताज़ा हो उठीं।
‘माय मेमोरीज ऑफ लाहौर एंड द पार्टिशन’ की कहानी लाहौर के सुनहरे दिनों, हिन्दू-मुस्लिम सद्भाव, पढ़ाई-लिखाई और संपन्न जीवन से लेकर 1947 के बंटवारे की हिंसा, दर्द, शरणार्थियों की त्रासदी और नए सिरे से जीवन शुरू करने की संघर्षगाथा है। यूं भी कहा जा सकता है कि यह किताब इतिहास का एक मानवीय और दिल छू लेने वाला दस्तावेज है।
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