Choudhary मसरूर मंदिर बनाने वाले कुशल कारीगर कांगड़ा के चौधरी !
विनोद भावुक/ कांगड़ा
घृत जाति की उत्पत्ति के बारे में कोई प्रामाणिक रिकॉर्ड नहीं है। कांगड़ा के Choudhary घृतों की उत्पत्ति उतनी ही अस्पष्ट और रहस्य से भरी हुई है, जितनी कि मसरूर के रॉक कट मंदिरों की। तो क्या मसरूर मंदिर बनाने वाले कुशल कारीगर है कांगड़ा के Choudhary ( चौधरी ) ।
Choudhary घृत समुदाय के कई पुराने लोगों का मानना है कि वे राजस्थान और मध्य भारत से कहीं से आए हैं। डी के चौधरी की ‘द घृत ए डेमोग्राफिक यूनिकनेस ऑफ कांगड़ा’ पुस्तक एक परिकल्पना विकसित करके घृतों की उत्पत्ति का पता लगाने का प्रयास है।
आईपीएस डॉक्टर डी के चौधरी हिमाचल प्रदेश पुलिस में डीआईजी हैं। Choudhary घृत की उत्पत्ति का स्थान मध्य प्रदेश और दक्षिण-पूर्वी राजस्थान के मालवा क्षेत्र में है, पुस्तक में ऐसी परिकल्पना की गई है।
लेखक ने लंबी यात्राएं कर मध्य प्रदेश की मंदसौर जिला पुलिस, गुजरात की दाहोद जिला पुलिस और द्वितीय आर.ए.सी. बटालियन कोटा के सहयोग से पुस्तक के लिए प्रत्यक्ष जानकारी जुटाने के प्रयास किए हैं।
खेती करने लगी कारीगर
इस पुस्तक के मुताबिक कन्नौज के शासक यशोवर्मा ने 8वीं शताब्दी ई. में मसरूर के चट्टान काटकर बनाए गए मंदिरों का निर्माण करवाया था। मसरूर में मंदिर की स्थापत्य योजना और डिजाइन मध्य भारत की स्थापत्य परंपराओं से मिलते- जुलते हैं। उनके साम्राज्य में जलंधर-त्रिगर्थ शामिल थे।
मध्य भारत के हजारों कुशल कारीगरों ने मसरूर की एकांत पहाड़ी पर काम किया होगा। तब मालवा की कृषि अनियमित मानसून पर निर्भर थी, जबकि कांगड़ा में वर्ष में दो बार वर्षा होती थी तथा नदियों और नालों के रूप में पानी की बारहमासी धाराएं थीं। सालों मंदिर का काम करने वाले कारीगरों ने वापस न जाने का फैसला किया और अपनी आजीविका के लिए कांगड़ा की भूमि पर खेती करने को चुना।
एक जैसे त्यौहार
पुस्तक इस संयोग का भी खुलासा करती है कि कांगड़ा के Choudhary घृत समुदाय की अविवाहित युवतियां ‘रली’ का त्यौहार मनाती हैं। मालवा क्षेत्र और दक्षिणी राजस्थान में मनाए जाने वाले गण-गौर त्यौहार भी रली त्यौहार जैसा ही है। दोनों त्यौहारों के दौरान भगवान शिव और पार्वती की पूजा की जाती है।
गण-गौर के त्यौहार का इतिहास मालवा से लगाव रखने वाली रानो बाई से जुड़ा है, जिसका विवाह राजस्थान में हुआ था। एक दिन जब रानो बाई अपने मायके से ससुराल लौट रही थीं, तो उन्होंने नदी में छलांग लगा। ‘रली’ के बारे में लगभग यही किंवदंती है।
रली की शादी उससे बहुत छोटे लड़के से हुई थी और वह इस बात से खुश नहीं थी। रली अपने ससुराल के लिए निकली। रास्ते में वह पालकी से कूद गई और नदी में डूब गई।
घृत, बहती और चाहंग
घृत मुख्य रूप से हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा, ऊना और हमीरपुर में रहते हैं। घृत पंजाब के पठानकोट, गुरदासपुर, होशियारपुर और रोपड़ (रूपनगर) जिलों में भी रहते हैं।
जम्मू और कश्मीर के कठुआ, जम्मू और पुंछ जिलों और उत्तराखंड के देहरादून में भी रहते हैं। वे 1881 और उसके बाद सिरमौर जिले की पौंटा घाटी में भी बस गए।
कांगड़ा जिले में घृत को Choudhary के नाम से भी जाना जाता है। घृत समुदाय को पंजाब के रूपनगर, होशियारपुर और जालंधर जिले में ‘बहती’ और होशियारपुर, गुरदासपुर और पठानकोट जिले में चाहंग के नाम से जाना जाता है।
तीनों एक ही समुदाय हैं। बेहट (बंजर भूमि) में बसने वाले लोग बहती बन गए। चंगर में बसने वाले लोगों को चांहग नाम दिया गया और घाटी में बसने वाले लोगों को घृत कहा गया।
घृत की उत्पत्ति की खोज
‘द घृत ए डेमोग्राफिक यूनिकनेस ऑफ कांगड़ा’ में Choudhary (घृतों) के जनसांख्यिकीय वितरण, धार्मिक मान्यताओं, व्यवहारगत और शारीरिक विशेषताओं तथा उनके कुलों की विविधता का वर्णन किया गया है।
पुस्तक Choudhary (घृतों ) की सामाजिक स्थिति, जाति के पारंपरिक नियमों, महिलाओं की स्थिति, खान-पान की आदतों, आवास गृह, वेश-भूषा और त्यौहारों पर भी प्रकाश डालती है। पारंपरिक व्यावसायिक गतिविधियों और राजनीति में घृतों की भागीदारी का भी उल्लेख पुस्तक में किया गया है।
प्रचलित मान्यताओं, ऐतिहासिक तथ्यों, भौगोलिक वितरणों, सांस्कृतिक प्रथाओं, पारंपरिक कला प्रथाओं, खान-पान की आदतों और भाषा विज्ञान की सहायता से Choudhary (घृत) की उत्पत्ति का पता लगाने के प्रयास किए गए हैं।
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