केलंग बजीर : कुगती में क्यों वर्जित है मुर्गा खाना ?
हिमाचल बिजनेस/ चंबा
हिमाचल प्रदेश के चंबा जिला के भरमौर उपमंडल के दुगर्म क्षेत्र कुगती गांव में देव मान्यता के चलते आज तक न तो मुर्गा पाला जाता है और न ही खाया जाता है। मान्यता है कि मुर्गा देवता के झंडे में विराजमान है, जबकि मोर उनका वाहन है।
कुगती में कार्तिक स्वामी का मशहूर मंदिर है, जिसे केलंग बजीर से नाम से ख्याति प्राप्त है। केलंग बजीर गद्दी समुदाय के अलावा कांगड़ा-चंबा और लाहौल-स्पीति के लोगों के ईष्ट देवता हैं।
कार्तिक स्वामी भगवान शिव शंकर के ज्येष्ठ पुत्र हैं, जिन्हें देवभूमि हिमाचल प्रदेश में केलंग बजीर के नाम से मान्यता प्राप्त है। मणिमहेश यात्रा के दौरान शिव भक्त इस मंदिर में पहुंच कर आशीर्वाद लेना नहीं भूलते।
बैसाखी के दिन खुलते मंदिर के कपाट
सर्दियों के दिनों में कुगती में बर्फबारी होने के कारण संभवत: नवंबर माह से केलंग बजीर मंदिर के कपाट बंद कर दिए जाते हैं, जो प्राचीन परंपरा के अनुसार अप्रैल में बैसाखी के दिन खोले जाते हैं।
हर वर्ष केलंग बजीर का जन्मदिवस सात-आठ दिनों के लिए विशेष पूजा-पाठ के साथ मई अथवा जून माह में मनाया जाता है। इस दौरान देवता के चेले और गूर पारंपरिक वाद्य यंत्रों से देवधुनें निकालते हैं। इस दौरान देवता के मंदिर में खेल का भी आयोजन होता है।
सात किलोमीटर का पैदल सफर
केलंग बजीर का भव्य मंदिर भरमौर मुख्यालय से करीब 33 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इस मंदिर तक पहुंचने के लिए भरमौर से 26 किलोमीटर तक वाहन में सफर तय होता है, जबकि सात किलोमीटर का सफर पैदल तय करना होता है।
मणिमहेश यात्रा पर आने वाले श्रद्धालु पवित्र डल की परिक्रमा करने के उपरांत कार्तिक स्वामी के दर्शन करने के लिए अवश्य जाते हैं। लाहुल-स्पीति से कुगती होकर मणिमहेश यात्रा पर आने वाले शिव भक्त कार्तिक स्वामी के दर्शन करने के बाद मणिमहेश पहुंचते हैं।
केलंग बजीर के गूर, डल तोड़ने की रस्म
राधाष्टमी के दिन मणिमहेश झील में शाही स्नान शुरू करने से पहले डल तोड़ने की अहम रस्म में केलंग बजीर के गूरों की खास भूमिका है। संचूई के शिव चेले डल तोड़ने की रस्म को निभाते हैं। डल तोड़ने की रस्म निभाने से पहले शिव चेलों समेत भद्रवाह से आई छडिय़ां डल झील की परिक्रमा करती हैं।
इसके बाद केलंग बजीर के गूर संचूई के शिव चेलों को इशारा करते हैं और देखते ही देखते चेले डल झील में कूद कर इसे आर-पार कर जाते हैं। डल तोड़ने की रस्म पूरी होते ही मणिमहेश झील पर शाही स्नान शुरू हो जाता है।
शिव पार्वती से नाराज हो गए केलंग बजीर
एक किवदंती के अनुसार युद्ध के देवता माने जाने वाले केलंग बजीर का जन्म ताडक़ासुर राक्षस का वध करने के लिए हुआ था। हिमालय पर्वतमाला में शिव शंकर के साथ कार्तिक स्वामी का भी वास है। भरमौर के कुगती में मुख्य मंदिर में केलंग बजीर विराजमान है।
दक्षिण भारत में भी केलंग बजीर ने अधिक समय बिताया है, जहां वह अपने पिता शिव और माता पार्वती से नाराज होकर चले गए थे। उन्हें वहां पर कार्तिक स्वामी के नाम से पूजा जाता है। वहीं पर केलंग बजीर ने शुरपदमण राक्षस को भी हराया था।
देश- दुनिया में कार्तिक स्वामी के मंदिर
कुगती के अलावा हिमाचल प्रदेश में कुल्लू, मनाली और लाहौल-स्पीति में केलंग बजीर के मंदिर बने हुए हैं। कांगड़ा के खनियारा के थातरी गांव में केलंग बजीर का मंदिर स्थापित किया गया है। उत्तराखंड के रूद्रप्रयाग में भी कार्तिक स्वामी का ऐतिहासिक मंदिर स्थिति है।
केलंग बजीर को दक्षिण भारत में कार्तिक स्वामी, मुरुगन, दंडपानी, कुमारहण और श्रीसुब्रह्मण्यम के नाम से पूजा जाता है। कर्नाटक व आंध्रप्रदेश के अलावा श्रीलंका, मोरिशियस, सिंगापुर, मलेशिया, में भी कार्तिक स्वामी के मंदिर हैं।
चेले से गूर बनाने की प्रक्रिया
लाहौल से हर साल शिवभक्त मणिमहेश यात्रा के लिए आते हैं। लाहौल से मणिमहेश झील में पवित्र स्नान करने आने वाले भक्तों के लिए कुगती के केलंग बजीर का खास महत्व है। त्रिलोकीनाथ मंदिर लाहौल से यात्रा शुरू करने वाले शिवभक्त चौथे दिन कार्तिक स्वामी के मंदिर में पहुंचते हैं।
इसी मंदिर में चेले से गूर बनाने बनाने की प्रक्रिया चलती है। चेले से गूर बनने की प्रक्रिया कठिन तथा लंबी होती है। केलंग बजीर के मंदिर में मानदंडों को पूरा करने वाले नए चेलों को गूर की उपाधि दी जाती है।
सबसे दुर्गम यात्रा
लाहौल से कुगती जोत होकर मणिमहेश यात्रा का रास्ता सबसे दुर्गम और मुश्किल है। लाहौल से मणिमहेश कैलाश के दर्शन के लिए 16,568 फुट ऊंचे कुगती जोत की खतरनाक ऊंचाई चढऩी होती है। लाहौल के शिव- भक्तों के लिए मणिमहेश की यात्रा काफी मायने रखती है।
शिव भक्त अपनी जान जोखिम में डालकर दुर्गम रास्तों को पार कर लाहौल से मणिमहेश झील पर पहुंचते हैं। शिवभक्त यात्रा में पांच पड़ाव के बाद छठे दिन लाहौल से मणिमहेश पहुंचते हैं।
यात्रा के कई पड़ाव
उदयपुर में आयोजित होने वाले पोरी मेले के आखरी दिन त्रिलोकीनाथ मंदिर से शिव भक्तों का दल मणिमहेश यात्रा के लिए निकलता है। पहली रात सिंदवाड़ी गांव के नीचे बिताने के बाद दूसरा पड़ाव रापे गांव के ऊपर होता है।
तीसरे दिन का रात्रि विश्राम अल्यास में करने के बाद शिवभक्त चौथे दिन कार्तिक स्वामी के मंदिर में पहुंचते हैं। पांचवें दिन केलंग मंदिर से यात्रा शुरू कर छठे दिन मणिमहेश झील पर पहुंचते हैं।
नंगे पांव सफर करते कई शिव उपासक
लाहौल से मणिमहेश झील तक पहुंचने का रास्ता सबसे दुर्गम और मुश्किल माना जाता है। कुगती जोत होकर पथरीले पहाड़ों और बर्फ पर नंगे पांव कई शिव उपासक कठिन सफर तय करते हैं। मणिमहेश यात्रा से लौटकर शिव भक्त अपने घर पहुंच कार शिव को जातर देते हैं, जिसे ‘धणी जातर’ कहा जाता है।
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