‘जीवन का रंगमंच’ : अमरीश पुरी के खास शिमला के एहसास
हिमाचल बिजनेस टीम/ शिमला
जब फिल्म ‘गदर’ का गाना ‘मैं निकला गड्डी लेकर’ फिल्माया जा रहा था, उस दौरान अमरीश पुरी आखिरी बार शिमला आए थे और अपने बचपन, किशोरावस्था और जवानी के दिनों को याद कर काफी भावुक हो गए थे। 12 जनवरी 2005 को 72 वर्ष की उम्र में ब्रेन ट्यूमर ने अमरीश पुरी के जीवन के रंगमंच का पर्दा गिर गया, लेकिन उनकी आत्मकथा ‘जीवन का रंगमंच’ आज भी शिमला से उनके खास रिश्ते पर कई प्रसंग सुनाती है।
शिमला में बचपन, फिर जवानी के दिन
मोगैंबो खुश हुआ या डांग कभी रांग नहीं होता- जैसे डायलॉग्स से खलनायकी में पहचान बनाने वाले अभिनेता अमरीश पुरी का शिमला से खास रिश्ता रहा। जालंधर के नवांशहर में 22 जून 1932 को पैदा होने वाले अमरीश पुरी की शिमला की हसीन वादियों में कई यादें हैं।
‘जीवन का रंगमंच’ के मुताबिक शिमला में उनके बचपन का कुछ समय बीता, फिर शिमला के बीएम कॉलेज में बीए की पढ़ाई की। कॉलेज की पढ़ाई के दौरान उनके अंदर अभिनय के अंकुर फुटे और वे रंगमंच से जुड़ गए। इस दौरान गेयटी थियेटर में उन्होंने कई नाटकों में अभिनय किया।
शिमला से ही अमरीश पुरी ने अभिनय की दुनिया में नाम कमाने के लिए मुंबई की ओर रुख किया। पहले से ही उनके दो बड़े भाई मदन पुरी और चमन पुरी फिल्म नगरी में अभिनय में नाम कमा रहे थे।
नाभा एस्टेट में किराये का घर
‘जीवन का रंगमंच’ में लिखे प्रसंग के मुताबिक, अमरीश के पिता लाला निहाल सिंह दिल्ली में ब्रिटिश शासन काल में क्लर्क की नौकरी करते थे। ग्रीष्मकालीन राजधानी होने के चलते गर्मियों के महीनों में उनके पिता का तबादला दिल्ली से शिमला हो जाया करता था। इस तरह उनके परिवार को भी शिमला आना पड़ता था।
उस दौरान छह वर्ष की उम्र में अमरीश पुरी शिमला के फ्रैंक ब्वॉयज स्कूल में कुछ दिन के लिए पढ़े थे। 1942 में ब्रिटिश सरकार की नौकरी से सेवानिवृत्त होने बाद उनके पिता ने सोलन ब्रूरी में नौकरी की और उनका परिवार फिर शिमला आकर रहने लगा।
यहां वे नाभा एस्टेट में एक मकान को किराये पर लिया था। इस दौरान अमरीश पुरी ने लक्कड़ बाजार स्कूल में पांचवीं कक्षा में दाखिला लिया था।
घोड़े पर शिमला में घूमते देखे नेहरू
अमरीश पुरी की यादों में सदा शिमला बसा रहा। ‘जीवन का रंगमंच’ में इस अभिनेता ने बताया है कि 1945 में वायसरीगल लॉज में हुई शिमला कांफ्रेंस में विभाजन के मुद्दे पर वायसराय लॉर्ड वेवल के साथ चर्चा करने के लिए भारत के सभी बड़े लीडर इकट्ठे हुए थे।
वे स्कूल आते-जाते पंडित जवाहर लाल नेहरू, सरदार पटेल, सरोजनी नायडु, मोहम्मद अली जिन्ना और अनेक नेताओं को देखते थे।
उन्होंने पंडित नेहरू को काले चकते वाले सफेद घोड़े पर सवार होकर माल रोड पर घूमते अक्सर देखते थे। महात्मा गांधी भी समरहिल में ठहरे हुए थे, जिनकी प्रार्थना सभा में शामिल होने के लिए वे हर रोज जाते थे।
‘जीवन का रंगमंच’ में जाखू के बंदर
अमरीश पुरी की यादों में दिसंबर 1946 की शिमला की सर्दियां हमेशा रहीं। अपनी आत्मकथा ‘जीवन का रंगमंच’ में वे लिखते हैं कि 1946 के दिसंबर में शिमला में दस फुट तक बर्फ पड़ी थी। बर्फ के कारण रेलवे स्टेशन की छत ढह गई थी।
जाखू हनुमान मंदिर में बंदरों का संगठित गिरोह होता था। उस समय शिमला में बंदरों का काफी आतंक था। लोग अकसर उनसे परेशान रहते थे।
कॉलेज में फेल हुये तो लौटे शिमला
अमरीश पुरी ने दसवीं तक शिक्षा शिमला में ही पूरी की। उसके बाद सेना में जाने के लिए उन्होंने ज्वॉइंट सर्विसस विंग जो अब पुणे में राष्ट्रीय सुरक्षा अकादमी है, में फॉर्म भरा था और होशियारपुर चचेरे भाई प्रीतम के पास चले गए और डीएम कॉलेज होशियापुर में आगे की पढ़ाई शुरू कर दी।
वे यहां कॉलेज में होने वाले नाटकों में भी भाग लेने लगे थे। ‘जीवन का रंगमंच’ के मुताबिक एफएससी परीक्षा में गणित में कमजोर होने की वजह से फेल हुए तो फिर शिमला लौट आए। शिमला में भार्गव म्यूनिसिपल कॉलेज अर्थात जेबीएम या बीएम कॉलेज जो लक्कड़ बाजार में था, में इंटर साइंस विषय पास करने के लिए परीक्षा दी।
स्टूडेंट्स यूनियन के सचिव बने अमरीश पुरी
अमरीश पुरी की आत्मकथा ‘जीवन का रंगमंच’ में दर्ज है कि शिमला में कॉलेज की पढ़ाई के दौरान वे स्टूडेंट्स यूनियन के सचिव भी बन गए थे। इसके लिए उन्हें एक कमरा भी मिल गया था, जहां वे संगीत व नाटक से संबंधित गतिविधियां करते थे।
उन्होंने खेलकूद, संगीत और नाटकों में खूब हिस्सा लिया। एमैच्योर आर्टिस्ट एसोसिएशन के साथ जुड़कर गेयटी थियेटर और कालाबाड़ी हॉल में कई नाटक किए।
दोस्तों के साथा तत्तापानी का सफर
शिमला के दोस्तों के साथ उनकी कई यादें हैं। कॉलेज के दिनों में वे तत्तापानी तक घूमने गए थे। सतलुज नदी के किनारे एक फुट दूर एक तरफ खोलता गर्म पानी और नदी का ठंडे पानी उन्हें हैरान करता था। आखिरी बार 1952 में मशहूर फिल्मकार विजय आनंद के साथ तत्तापानी गए थे।
शिमला से फिल्मनगरी मुंबई तक सफर
‘जीवन का रंगमंच’ में उन दिनों को याद कर अमरीश पुरी बताते हैं कि स्नातक की पढ़ाई के बाद अमरीश पुरी ने शिमला से फिल्म नगरी की राह पकड़ी। मुंबई में 1960 के दशक में रंगमंच से अपने अभिनय करियर की शुरुआत की।
उन्होंने सत्यदेव दुबे और गिरीश कर्नाड के लिखे नाटकों में प्रस्तुतियां दीं। रंगमंच पर बेहतर प्रस्तुति के लिए उन्हें 1979 में संगीत नाटक अकादमी की तरफ से पुरस्कार दिया गया, जो उनके अभिनय कॅरियर का पहला बड़ा पुरस्कार था।
चार सौ फिल्मों में किया अभिनय
अमरीश पुरी के फ़िल्मी करियर की शुरुआत साल 1971 की ‘प्रेम पुजारी’ से हुई। 1980 के दशक में उन्होंने कई बड़ी फिल्मों में अपनी छाप छोड़ी। 1987 में शेखर कपूर की फिल्म ‘मिस्टर इंडिया में मोगैंबो की भूमिका के जरिए वे सभी के जेहन में छा गए। 1990 के दशक में उन्होंने ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे ‘घायल’ और ‘विरासत’ में अपनी सकारात्मक भूमिका के जरिए सभी का दिल जीता।
हिंदी के अलावा कन्नड़, पंजाबी, मलयालम, तेलुगू, तमिल तथा हॉलीवुड की फिल्मों सहित अपने कॅरियर में 400 से ज्यादा फिल्मों में अभिनय किया। उनकी अंतिम फिल्म ‘किसना’ थी जो उनके निधन के बाद रिलीज हुई।
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