बशेशर महादेव बजौरा : हुनर से पत्थरों में डाल दी है जान
विनोद भावुक/कुल्लू
बशेशर महादेव बजौरा मंदिर के निर्माण में लगे हुनरमंद हाथ मानो पत्थरों में जान डालने की जिद पर अड़े थे। बेशक कुल्लू जिले में कम से कम 20 पत्थर के मंदिर हैं, लेकिन बशेशर महादेव बजौरा सबसे पुराना और सबसे खास है। यह मंदिर कुल्लू में सबसे बड़ा पत्थर का मंदिर है। बशेशर महादेव बजौरा को बशेश्वर महादेव और विश्वेश्वर महादेव भी कहा जाता है। संस्कृत में विश्वेश्वर या ‘ब्रह्मांड का भगवान बोलते हैं।
बशेशर महादेव बजौरा मंदिर को भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) विभाग ने राष्ट्रीय महत्व का संरक्षित स्मारक घोषित किया है। अगर आप भी पुरातत्व प्रेमी अथवा शिव उपासक हैं तो कुल्लू- मनाली के अपने टूअर में इस मंदिर को जरूर देखना चाहिए।
निर्माण के समय पर सवाल
कला इतिहासकार और पुरातत्वविद् बशेशर महादेव बजौरा मंदिर के निर्माण के समय पर सहमत नहीं हैं। पुरालेखविद जे पी एच वोगल ने मंदिर के निर्माण का समय नहीं बताया है। फ्रांसीसी पुरातत्वविद् ओडेट विएनोट के अनुसार, यह पत्थर का स्मारक 8वीं शताब्दी के अंत या 9वीं शताब्दी की शुरुआत का है, जब राजा ललितादित्य शासन करते थे।
कला इतिहासकार मदन जीत सिंह ने अपनी पुस्तक ‘हिमालयन आर्ट’ में कहा है कि जब 1018 में महमूद गजनवी ने कन्नौज पर आक्रमण किया तो लोग भाग गए और पहाड़ियों में शरण ली।बशेशर महादेव बजौरा की तरह की पत्थर की संरचनाएं 11वीं शताब्दी में पाल मूर्तिकारों द्वारा बनाई गई थीं।
जर्मन कला इतिहासकार हर्मन गोएट्ज़ ने ‘द अर्ली वुडन टेंपल्स ऑफ़ चंबा’ में लिखा है कि बाजौरा मंदिर की मूर्तियां शायद 11वीं शताब्दी की हैं। निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि मंदिर 8वीं और 11वीं शताब्दी के बीच बनाया गया होगा।
बाहरी हिस्से में नाग दंपत्तियों की नक्काशी
ब्यास नदी के तट के पास स्थित बशेशर महादेव बजौरा मंदिर में असामान्य रूप से मोटी मीनार या शिखर के साथ एक भव्य संरचना है। मंदिर की बाहरी दीवारों पर बर्तन और पत्ते की उत्कृष्ट नक्काशी का एक दोहराया हुआ पैटर्न है।
पोर्च के ऊपर चारों तरफ छोटी मीनारें हैं, जो हर तरफ निर्माता, रक्षक और विध्वंसक के तौर पर भगवान शिव के तीन चेहरे दिखाती हैं। बशेशर महादेव बजौरा के बाहरी हिस्से को नाग दंपत्तियों की नक्काशी से सजाया गया है, जिसमें सांप की पूंछ आपस में जुड़ी हुई है, गले मिलते हुए किन्नर, पक्षी और हाथी हैं।
बशेशर महादेव बजौरा के गर्भगृह में लिंग विराजमान
पूजा स्थल के गर्भगृह में एक लिंग विराजमान है। बशेशर महादेव बजौरा के सामने के बरामदे पर दो महिला आकृतियां गंगा और जमुना हैं, जो दो नदियों का प्रतिनिधित्व करती हैं।
बशेशर महादेव बजौरा के शेष तीन कोनों में भगवान गणेश, भगवान विष्णु और देवी दुर्गा की आकृतियां रखी गई हैं। मंदिर के दक्षिण की ओर के कोने में हाथी के सिर वाले गणेश की आकृति है, जो कमल के सिंहासन पर विराजमान हैं। गणेश के समर्थन में दो शेर हैं।
नक्काशीदार मूर्तियों का आकर्षण
बशेशर महादेव बजौरा के पीछे या पश्चिमी कोने पर भगवान विष्णु की सुंदर नक्काशीदार छवि है। चतुर्भुज भगवान अपने एक हाथ में एक चक्र, कमल का फूल और अपने दूसरे हाथ में एक गदा और शंख धारण किए हुए हैं।
उत्तरी कोने में रखी गई तीसरी मूर्ति देवी दुर्गा की है, जो एक राक्षस का वध कर रही हैं। देवी आठ भुजाओं वाली हैं और अपने एक हाथ से वह राक्षस के शरीर में त्रिशूल घोंपती हैं, जबकि तीन अन्य हाथों में वज्र, एक तीर और एक तलवार है।
दुर्लभ है ऐसे मंदिरों का निर्माण
डच पुरातत्वविद् एवं पुरालेखशास्त्री जे.पी.एच. वोगल ने इस मंदिर पर व्यापक अध्ययन किया था। वे अपने शोधपत्र ‘द टेंपल ऑफ महादेव एट बाजौरा’ में लिखते हैं, ‘बाजौरा का मंदिर बहुत ही पुरातात्विक महत्व का है, क्योंकि इस प्रकार के मंदिर टॉवर, जो पूरी तरह से पत्थर से बने हैं, पहाड़ों में उतने ही दुर्लभ हैं, जितने मैदानी इलाकों में।’ उनके शोधपत्र को भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की 1909-10 की वार्षिक रिपोर्ट में प्रकाशित किया गया था।
1869-71 तक कुल्लू के सहायक आयुक्त ए.एफ.पी. हरकोर्ट ने भी बशेशर महादेव बजौरा मंदिर को सबसे उल्लेखनीय मंदिर माना है। हरकोर्ट अपनी पुस्तक ‘द हिमालयन डिस्ट्रिक्ट्स ऑफ कुलू, लाहूल एंड स्पीति’ में लिखते हैं कि कुल्लू के सभी मंदिरों में से बाजौरा का मंदिर अपनी अलंकृत नक्काशी के लिए सबसे उल्लेखनीय है। बाहरी दीवारों और प्रवेश द्वार पर चित्रित आकृतियां निश्चित रूप से भारत में कहीं और नहीं देखी गई होंगी।
मूर्तियों की टूटी नाक का कांगड़ा कनेक्शन
1820 में अपनी यात्रा के दौरान बशेशर महादेव बजौरा मंदिर का दस्तावेजीकरण करने वाले पहले विदेशी यात्री विलियम मूरक्रॉफ्ट के अनुसार, मंदिर में मूर्तियों की नाक कांगड़ा की सेना द्वारा विकृत कर दी गई थी।
मूरक्रॉफ्ट ने अपनी पुस्तक ‘ट्रेवल्स इन द हिमालयन प्रोविंसेस ऑफ हिंदुस्तान एंड द पंजाब’ में लिखा है कि वहां कई मूर्तियां थीं, जिनमें से अधिकांश अच्छी तरह से संरक्षित थीं, सिवाय उनकी नाक के, जिनके बारे में कहा जाता है कि कुल्लू पर आक्रमण के दौरान संसार चंद के दादा के सैनिकों ने उन्हें तोड़ दिया था।
बाज़ार से बना ‘बजौरा’
एक समय वह भी था जब बजौरा काफी महत्वपूर्ण स्थान था। मंडी- कुल्लू की सीमा पर ब्यास नदी के तट पर स्थित बजौरा उस व्यापार मार्ग पर स्थित था जो कुल्लू घाटी एक तरफ मंडी और उसके आगे के मैदानों से तथा दूसरी तरफ लद्दाख से जोड़ता था। ऐसा लगता है कि बजौरा शब्द बाज़ार से आया है।
जब सड़कें नहीं थीं तो बजौरा वह पहला स्थान था जहां यात्री और व्यापारी कुल्लू को मंडी से जोड़ने वाले सबसे पुराने और कमोवेश आसान दुलची दर्रे से कुल्लू में प्रवेश करने के बाद पहुंचते थे। इसी रास्ते से पहले पश्चिमी यात्री विलियम मूरक्रॉफ्ट और जॉर्ज ट्रेबेक साल 1820 के मानसून में कुल्लू घाटी में दाखिल हुए थे।
विष्णु पूजा को लोकप्रिय बनाने के प्रयास
1960 के दशक में कुल्लू का दौरा करने वाली अंग्रेजी लेखिका पेनेलोप चेटवुड ने ‘द एंड ऑफ हैबिटेबल वर्ल्ड’ में लिखा है कि कुल्लू के मंदिरों का निर्माण तत्कालीन राजाओं द्वारा स्थानीय देवताओं के स्वदेशी अनुष्ठानों के स्थान पर घाटी में भगवान विष्णु की पूजा को लोकप्रिय बनाने के प्रयास में किया गया था, जिसमें पशु बलि शामिल थी।
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