ब्रिटिश लेखिका : कुल्लू से किया प्यार, यहीं छोड़ दिया संसार
विनोद भावुक/ कुल्लू
कहानी ब्रिटिश लेखिका पेनेलोप चेटवुड की, जो पहली बार जब 18 साल की उम्र में कुल्लू आई तो यहां की वादियों के सम्मोहन में ऐसी बंधी कि बार- बार ये वादियां उसे अपने पास बुलाती रहीं।
पेनेलोप चेटवुड भी खच्चर की पीठ पर सवार होकर बेहद कठिन यात्रा कर कुल्लू पहुंचती रही। उसने स्थानीय बोली तक सीख ली थी और कुल्लू पर चर्चित पुस्तक भी लिखी।
74 साल की उम्र में जब ब्रिटिश लेखिका पेनेलोप चेटवुड तीसरी बार कुल्लू की यात्रा कर रही थीं तो इन्हीं वादियों में आखिरी सांस ली।
18 साल की उम्र में पहली यात्रा
पेनेलोप चेटवुड 18 साल की उम्र में ब्रिटेन से पहली बार साल 1930 में अपने पिता भारत में कमांडर-इन-चीफ फील्ड मार्शल फिलिप वालहाउस चेटवुड के साथ शिमला के स्नोडन में रहने के लिए आई थीं। उसने कुल्लू घाटी की पहली यात्रा साल 1931 में अपनी मां हेस्टर एलिस कैमिला के साथ की थी। उस यात्रा की व्यवस्था सी-इन-सी के एडीसी जेफ्री केली ने की गई थी और इस यात्रा में वे भी उनके साथ भी गए थे। फिर वह ब्रिटेन लौट गईं।
शादी टूटी तो चली गईं स्पेन
पेनेलोप की शादी ब्रिटेन के कवि सर जॉन बेट्जेमैन से हुई थी। साल 1948 के आसपास शादी टूटने के बाद पेनेलोप स्पेन चली गईं और देश के दक्षिणी हिस्से की यात्रा की। उन्होने सफल पुस्तक ‘टू मिडिल-एज्ड लेडीज इन एंडालुसिया’ लिखी। ब्रिटिश लेखिका पेनेलोप की कुल्लू की यात्रा पर लिखी ‘कुल्लू – द एंड आफ हैबिटेबल वर्ल्ड’ पुस्तक में कुल्लू घाटी के विभिन्न स्थानों और मंदिरों के बारे में तथ्यात्मक जानकारी दी गई है।
51 साल की उम्र में दूसरी यात्रा
साल 1963 में ब्रिटेन से ब्रिटिश लेखिका पेनेलोप फिर भारत लौटी और 51 साल की उम्र में खच्चर की पीठ पर सवार होकर फागू, ठियोग, नारकंडा, आनी, खनाग से होते हुए जलोड़ी दर्रे को पार किया।
फिर लारजी, औट और बंजार से होते हुये रोहतांग दर्रे पर पहुंची। पेनेलोप चेटवुड बशलेओ दर्रे को पार कर सराहन, अरसू और रामपुर से होते हुए शिमला लौटीं। इस यात्रा के आधार पर उन्होंने ‘कुल्लू – द एंड आफ हैबिटेबल वर्ल्ड’ किताब लिखी।
संजौली से किराये पर किए खच्चर
ब्रिटिश लेखिका पेनेलोप चेटवुड ने अपनी इस यात्रा के लिए संजौली के एक किराना दुकानदार से चार सप्ताह के लिए 20 रुपए प्रतिदिन के हिसाब से दो खच्चर किराए पर लिए थे। छोटे खच्चर का नाम शांति था, जिस पर पेनेलोप सवार होती थीं।
बड़ी खच्चर दुर्गी उसका सामान ढोती थी। भागवत राम, जिसे पेनेलोप बीआर कहती थी, इन खच्चरों के साथ चलता था। इन चारों ने जलोड़ी और बशलेओ दर्रे से गुजरते हुए लगभग 150 मील की कठिन यात्रा की थी।
तीसरी यात्रा बन गई अंतिम यात्रा
अप्रैल 1986 में पेनेलोप फिर भारत आई और बाहरी सिराज में 6000 फीट की ऊंचाई पर स्थित दलाश गांव गई। पेनेलोप ने अपनी नर्स और समूह के दो अन्य सदस्यों के साथ खड़ी चढ़ाई चढ़ी। वे तीन घंटे में मुतिशर पहुंच गए।
वहां माथा टेकने के बाद जब वापस लौटी तो अपना सिर दीवार पर टिका दिया। उसकी नर्स ने सब कुछ किया, लेकिन पेनेलोप नहीं रही।
‘रहने योग्य दुनिया का अंत’
ब्रिटिश लेखिका पेनेलोप चेटवुड ‘अपनी बहुचर्चित पुस्तक कुल्लू – द एंड आफ हैबिटेबल वर्ल्ड’ में एक जगह लिखती हैं, ‘एक प्राचीन परंपरा के अनुसार कुल्लू घाटी का मूल नाम कुलंतपीठ था, जिसका अर्थ है ‘रहने योग्य दुनिया का अंत’।
कोई भी जो कुल्लू और लाहौल के बीच रोहतांग दर्रे के शीर्ष पर खड़ा हुआ हो, वह इस नाम को समझ जाएगा।’ उसकी खुद की दुनिया का अंत कुल्लू घाटी में हुआ।
स्मारक के रूप में यादें
खनाग के बाशिंदों ने ब्रिटिश लेखिका पेनेलोप चेटवुड का अंतिम संस्कार कर उनकी अस्थियों को उनकी इच्छा अनुसार ब्यास नदी में बहा दिया गया। उनकी पोती इमोजेन लाइसेट ग्रीन ने खनाग आकार उनकी याद में स्मारक स्थापित किया, जिस पर लिखा है-‘वह इन पहाड़ियों में मरीं, जिनसे उन्होंने बहुत प्यार किया था।‘ इस स्मारक के बहाने ब्रिटिश लेखिका कुल्लू की यादों में जिंदा है।
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