मौत का दर्रा क्यों कहा जाता है रोहतांग दर्रा ?
हिमाचल बिजनेस/ रोहतांग
अटल टनल रोहतांग के निर्माण से पहले कुल्लू से लाहौल जाने के लिए रोहतांग दर्रा पार करना ही एकमात्र विकल्प था। इस जोत को पार करने का मतलब था मौत के मुंह से होकर गुजरना। दर्रा जोखिम भरे रास्तों और अविश्वसनीय मौसम के कारण सदा से ही बदनाम रहा।
अक्तूबर 1862 को एक बर्फानी तूफान में फंसने के कारण 70 से अधिक मजदूर इस दर्रे में मारे गए थे। ये लोग रोहतांग के उस ओर खोकसर गांव में चंद्रा नदी के ऊपर बनने वाले पुल का काम करके कुल्लू वापिस आ रहे थे। इसी तरह से साल 1939 की गर्मियों में भी इस जोत पर बहुत से लोगों की जानें गई थीं।
रोहतांग थांग से रोहतांग
साल 1635 के बाद कुल्लू का अधिपत्य लगभग खत्म हो गया और लद्दाखियों ने लाहुल को फिर से उनसे छीन लिया। साल 1670 तक लाहुल लद्दाखियों के आधीन रहा। तिब्बत के राजा पल्टन-नम्म्याल ने लाहुल को अपने आधीन कर लिया। साल 1645 में ट्रश छेवाड़ तिब्बत का शासक बना। तिब्बत और मंगोल के आक्रमणकारियों ने लाहुल पर आक्रमण किया।
लद्दाख के राजा ने कश्मीर के सुल्तान की सहायता से मंगोल सैनिकों को करारी मात दी। बहुत सारे मंगोल सैनिक कुल्लू की ओर जाते हुए रोहतांग दर्रा की चोटी में एक बर्फानी तूफान में फंस कर बर्फ में दब कर सदा-सदा के लिए सो गए। इसी घटना के कारण इस दर्रे का नाम रोहतांग-थांग पड़ा। कालांतर में यह रोहतांग के नाम से जाना जाने लगा।
लोकमत – भृगु श्रृषि और व्यास श्रृषि का संबंध
मनाली से लगभग 25 किलोमीटर दूर स्थित रोहतांग दर्रा स्थित है जिसका पुराना नाम भृगुतुंग था। क्योंकि इस स्थान पर भृगु ऋषि ने तपस्या की थी। इसलिए उसी ऋषि के नाम से भृगुतुंग पड़ गया।
यह भी विश्वास किया जाता है कि भीम ने जहां लात मार कर पानी निकाला था, वहां ब्यास नदी का स्त्रोत बन गया। कई लोगों का विश्वास है कि श्रृषि व्यास ने इस स्थान पर तपस्या की थी।
रोहतांग दर्रा एक दिन में आर- पार
मूरक्राफ्ट पहला यूरोपियन था जिसने साल 1820 में लद्दाख जाते समय रोहतांग दर्रा की ऊंचाई का अनुमान लगाया था। साल 1929 में जरनल बूस के एक गाईड और कैप्टन टॉड को भी रोहतांग दर्रे की तूफानी हवाओं के विकराल रूप का सामना करना पड़ा था।
भारत के तत्कालीन गर्वनर जनरल लार्ड एल्गिन ने 1863 को इस जोत को पार किया था और उसी दिन वापिस भी आए थे।
रोहतांग के लिए पगडंडी का काम
तत्कालीन पंजाब सरकार के सचिव डेविस ने साल 1862 में सरकार को पेश की अपनी ‘ट्रेड रिपोर्ट’ में तिब्बत और लद्दाख के साथ व्यापार बढ़ाने के लिए पहली बार रोहतांग दर्रा के ऊपर से होकर जाने वाली सड़क का महत्व बताया था।
उनके प्रयासों से साल 1863 को रोहतांग दर्रा के ऊपर एक छोटी सी पगडंडी का निर्माण किया गया था। साल 1865 को जालंधर डिविजन के कमिश्नर फोरसिथ ने इस पगडंडी को खोकसर से आगे की ओर भी बनवाने पर बल दिया।
साल 1870-71 के दौरान रोहतांग दर्रा की पगडंडी के लिए सरकार ने पांच हजार रूपए की मंजूरी दी। सड़क बनवाने की देखरेख करने के लिए थियोडोर नाम के व्यक्ति को दो सौ रुपये प्रतिमाह की तनख्वाह पर नियुक्त किया गया था।
सिक्ख जनरल का बनाया हट
ए.एफ.पी. हारकोर्ट ने साल 1870 में लाहुल जाते समय रोहतांग दर्रा के नजदीक मढ़ी में एक छोटा सा परीक्षण हट देखा था, जिसे सिक्ख जनरल लेहणा सिंह ने बनाया था। लेहणा सिंह का यह शरण स्थल रोहतांग की तूफानी हवाओं और ग्लेशियर का सामना नहीं कर सका और कुछ ही महीनों के अंदर इसका नामों निशान मिट गया।
आज़ादी के बाद पंजाब सरकार ने रोहतांग दर्रे पर एक छोटा सा आश्रय बनवाया। कुछ ही समय के बाद वह तूफानी हवाओं और ग्लेशियरों के प्रकोप की भेंट चढ़ गया।
1966 में आया सुरंग का सुझाव
साल 1966 को भारत सरकार के योजना आयोग ने हिमाचल के जनजातीय क्षेत्रों के विकास कार्यक्रमों का मूल्यांकन करने के लिए एक अध्ययन दल की स्थापना की थी। इस अध्ययन दल ने सुझाव यह दिया था कि रोहतांग दर्रा के नीचे एक सुरंग बनाई जाए।
कालांतर में यहां विश्व की सबसे लंबी अटल टनल का निर्माण हुआ और रोहतांग दर्रे के खौफ से निजात मिली और बर्फीले रेगिस्तान में विकास का नया सूरज उगा।
लोककथा एक – तिब्बती राजा की जादुई छड़ी से बना दर्रा
कहते हैं कि किसी जमाने में तिब्बत में ग्यापो-केसार नाम का बहुत ताकतवर राजा था। वह हमेशा अपने प्रिय घोड़े क्याड़ पर ही सवार होकर आता – जाता था। इस घोड़े की विशेषता यह थी कि वह पक्षियों की तरह उड़ भी सकता था। एक बार राजा लाहुल में लूटमार करने आ गया। चन्द्रा और भागा वादियों को लूटते-लूटते वह खोकसर गांव पहुंच गया।
उन दिनों रोहतांग दर्रा नहीं था। राजा को रोहतांग को पार करके जाना था। राजा के साथ एक देवी भी आई हुई थी। दोनों ही एक साथ क्याड़ पर सवार होकर एक ही छलांग में पहाड़ की चोटी पर पहुंच गए।
वहां पहुंचने पर राजा ने गुस्से के कारण अपनी जादुई छड़ी पहाड़ की चोटी पर इतनी जोर से मारी कि वहां सदा के लिए एक दर्रा बन गया।
लोककथा दो – भीम की लात से बना दर्रा
दूसरी लोककथा पांडवों से जुड़ी हुई है। कहते हैं कि बनवास के समय पांडव लाहुल जा रहे थे। मां कुन्ती भी उनके थी। रोहतांग पहाड़ की चोटी पर पहुंच कर उसे जोर की प्यास लग पड़ी, लेकिन पानी तो वहां था नहीं। भीम ने इधर-उधर जाकर पानी ढूंढा, परन्तु निराश ही वापिस आना पड़ा।
मां को प्यास में तड़पते देखकर गुस्से में उसने अपने बाएं पांव को उठा कर इतना जोर से जमीन पर मारा कि वहां पानी निकल आया। पहाड़ की चोटी पर एक दर्रा भी बन गया। इस तरह से रोहतांग दर्रा का उद्भव हुआ।
लोककथा तीन- शिव के चाबुक से बना दर्रा
कहा जाता है कि दर्रा नहीं होने के कारण लोग इस पहाड़ को पार करने में अपने आप को असमर्थ पाते थे। उन्हें परिंदों की सूचना से यह पता लगता रहता था कि पहाड़ के दूसरी ओर भी एक बहुत सुंदर देश है। पहाड़ के उस पार जाने के लिए लोगों ने कई बार प्रयत्न किया, परन्तु सब व्यर्थ रहा।
किसी ने भगवान शिव की मदद लेने का सुझाव दिया। शिव के एक चेले ने मानव बलि देनी देने की बात कही। बलि से खुश होकर भगवान शिव ने अपने चाबुक से उस पहाड़ पर कई प्रहार किए और रोहतांग दर्रा बना दिया। शिव ने मानुषी का रूप धारण कर छलांग लगाई। छलांग के दौरान वह जहां-जहां से भी होकर गुजरे, वहां नीचे जमीन पर रास्ता बनता गया।
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