लोककथा : मौत गले लगाई, प्रेम की रीत निभाई
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भरमौर के गद्दी भूंकू और लाहुल की सुन्नी की प्रेम त्रासदी की लोककथा
लोककथा/ चंबा/ लाहौल
युवा, मस्तमौला और अपनी ही धुन में मस्त भरमौर के गड़रिये भूंकू की लाहौल की अल्हड़, शोख और चंचल सुन्नी से पहली मुलाक़ात हुई तो तकरार से हुई, फिर मनुहार और बात इकरार तक पहुंची। दोनों ने साथ जीने- मरने की कसमें उठाईं, कई सपने बुने और भविष्य की सुनहरी कल्पनाओं में रहने लगे, लेकिन इस लोककथा में कुदरत को तो कुछ और ही मंजूर था।
वादा कर प्रेमी नहीं लौटा तो प्रेमिका के लिए जीने के कोई माने नहीं बचे और उसने जान दे दी। प्रेमी को इसका पता चला तो वह भी नहीं रहा। इस तरह मर कर दोनों एक हो गए और लोककथा को लोकगीतों में ढाल गए।
लोकगीतों में अमर लोककथा
भरमौर के गद्दी भूंकू और लाहुल की सुन्नी की प्रेम त्रासदी की लोककथा आज भी हिमाचल प्रदेश के लोकगीतों और लोक नाट्यों में ज़िंदा है। यह प्रेम कहानी फिल्म के तौर पर भी पेश की जा चुकी है।
इस लोककथा में नायक भूंकू के वादा कर न लौटने पर प्रेयसी चंचल के नदी में कूद कर मौत को गले लगाने का मार्मिक प्रसंग आंखों के कोरों को नम कर देता है। उस पर दुखद यह कि इस खबर को सुन प्रेमी भी अपनी जान दे देता है। आईये, आप भी पढ़िए अमर प्रेम की यह लोककथा।
भरमौर से शुरू होती लोककथा
लोककथा चंबा जिला के भरमौर की पृष्ठभूमि से शुरू होती है, जिसका पुराना नाम ब्रह्मपुर रहा है। पीर पंजाल और धौलाधार पर्वत श्रृंखलाओं से घिरे भरमौर को शिव की भूमि माना जाता है।
पहले चंबा की राजधानी भरमौर थी और इसके संस्थापक राजा जयस्तंभ ने इसका नाम ब्रह्मपुर रखा था। उस दौर में भरमौर गांव भर था। भरमौर में जीवन यापन के लिए खेती के आलावा भेड़- बकरी पालन प्रमुख था। लोककथा का नायक भूंकू भी एक भेड़पालक जिसे गड़रिया भी कहते हैं,रहता था।
मस्तमोला भूंकू घुमक्कड़ी का शौकीन
भुंकू गद्दी समुदाय से था। गद्दी का सारा जीवन यायावर जीवन है। गद्दी अपनी भेड़- बकरियों के साथ शिखर, नगर, ग्राम, नदी और जंगल हर जगह घूमते हैं। भुंकू की जीवन शैली ऐसी ही थी।
लोककथा का यायावर युवा, मस्तमौला और अपनी ही धुन में मस्त रहने वाला भुंकू गद्दी अपने इस हाल पर खुश था। वह इसी धुन में अपने पशुधन के साथ दूर दूर तक निकल जाता था। घुमक्कड़ी उसके जीवन का अहम हिस्सा थी।
लाहुल में सुन्नी से मुलाक़ात
लोककथा अब लाहौल की तरह बढ्ने लगती है, जहां बर्फबारी के चलते सर्दियों में पूरा हिस्सा बाहरी दुनिया से कट सा जाता है। जिस घाटी की बोली भरमौर की बोली से कोई मेल नहीं खाती। पर प्रेम की भी भला कोई बोली होती है। एक बार भुंकू भेड़ें चराने लाहुल की तरफ निकल गया।
भुंकू लाहौल की एक बस्ती में पहुंच गया। वह अनाज लेने के लिए गांव में गया। इसी समय लोककथा में टर्निंग पॉइंट आता है। उसकी मुलाकात अल्हड़ थी, शोख और चंचल सुन्नी से होती है। तकरार से शुरू हुई बात प्यार में बदल जाती है। दोनों में जन्म- जन्मांतर संग रहने के वादे हो जाते हैं। सुन्नी के प्यार में भुंकू गांव, देस, भेड़ें, सब कुछ भूल गया और छह माह बीत गए।
वादा कर भरमौर लौटा भुंकू
सर्दियों के मौसम शुरू होने से पहले ही गद्दी अपने पशुधन के साथ मैदानों की तरह उतरने लगते हैं। लोककथा के मुताबिक गर्मियां बीतीं तो भुंकू के भी विदा होने का समय आया। सुन्नी को जल्द लौट आने का वचन देकर वह चला गया।
लोककथा में जनजीवन के साथ मौसम का एंगल भी खूब बुना गया है। गर्मियां आईं पर भुंकू फिर लौट कर लाहौल नहीं आया। कई तरह की आशंकाएं, शायद उसे कुछ हो गया। सफर में किसी हादसे का शिकार हो गया।
मर कर एक हो गए दो प्रेमी
भुंकू गद्दी नहीं आया तो लोककथा की नायिका सुन्नी भी घर छोड़ कहीं चली गई। वह अपनी ही दुनिया में खोई रहती। कुशल क्षेम जानने का कोई साधन तो था नहीं। कई तरह की आशंकाओं से घिरी रहती। एक दिन दरिया में कूद कर जान दे दी।
लोककथा के एक एंगल के मुताबिक रास्ते में उसके साथ सच में ही हादसा हुआ था और उस हादसे में उसके वफादार कुत्ते ने जान बचाई थी। हादसे से उभर कर अगली गर्मियों में भुंकू लौटा लाहौल लौटा तो
उसने सुन्नी के न रहने की खबर सुनी, जिसने उसे अंदर तक तोड़ दिया। उसे लगा कि उसके जीवन के कोई मायने नहीं बचे, यही सोच कर उसने भी अपनी जान दे दी और दुखांत के साथ लोककथा पूरी हो गई।
प्रेमी अमर, लोककथा में जिंदा
इस दोनों प्रेमियों के अमर प्रेम की लोककथा लोकगीतों व् लोक नाट्यों में ज़िंदा है। गद्दी संस्कृति के संरक्षण में जुटे चंबा जिला के भरमौर के जगपाल चौहान ने गद्दी लोकसंस्कृति से संबंधित सुन्नी- भूंकू फिल्म बनाई है।
सुन्नी- भूंकू की कहानी दुखद अंत लिए है। पहाड़ की लोक परंपरा ने लोककथा को स्मृतियों में संजो रखा है, सदा के लिए।
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