लोकगीत : एक सदी तक चला कबूतरी की आवाज का जादू
डॉ. जगदीश शर्मा/ करसोग
लोक साहित्य में लोकगीत का प्रथम स्थान है। लोकगीत समाज की लोक संस्कृति के गवाक्ष होते हैं। लोकगीत में जो अनुभूतियां, विश्वास, विचार और परंपराएं प्रदर्शित होती हैं, वे जनमानस के सामाजिक और मानसिक विकास का अध्ययन करवाती हैं।
लोक संस्कृति क्षेत्र में अधिकतर लोकगीतों का खजाना गांव की स्त्रियों के पास सुरक्षित है। 106 जीने वाली कबूतरी देवी भी जन्म से लेकर मृत्यु तक के संस्कार गीतों व लोकगीतों का भंडार थी।
16 मई 2018 की सुबह कबूतरी देवी का निधन हो गया। अब इस धराधाम पर कबूतरी देवी की स्मृति-शेष रह गई है।
आख़िरी वक्त तक होंठों पर रहे गीत
अपने अंतिम दिनों में भी जब कबूतरी देवी की जब मानसिक हालत ठीक नहीं थी, तब भी वह अपने कोमल स्वर में लोकगीत गाती गुनगुनाती रहती थी।
साल 2012 में रियासतकाल के गुजरे जमाने की शतायु लोक गायिका के लोकगीत रिकार्ड करने के लिए आकाशवाणी शिमला के वरिष्ठ उद्घोषक डाक्टर हुकम शर्मा, अच्छर सिंह परमार और सौरभ अग्निहोत्री कबूतरी देवी के घर पहुंचे।
आयु के इस पड़ाव में भी कबूतरी देवी के लोकगीत की लय और स्वर से आकाशवाणी के प्रतिनिधि खूब प्रभावित हुए।
सुनहरे दौर की सुखद यादें
कबूतरी देवी का कहना था कि राजाओं के राजपाट नहीं रहे, लेकिन उनकी यादें आज भी आंखों के सामने आ जाती हैं। उस बीते जमाने का शाहीपन, दरियादिल, आदर की भावनाएं, सम्मान और ईमानदारी कबूतरी को आखिरी लम्हों तक याद रहा।
देव महासु नाग कटवाची द्वारा रोजमर्रा के लिए कबूतरी के पूर्वजों को दान में दी गई दस बीघा जमीन कई हिस्सों में बंट गई है। वह थोड़ी सी जमीन पर फसल पैदा कर बड़ी मुश्किल से गुजारा करती रहीं।
राज दरबार की गायिका और नर्तकी
कबूतरी देवी मंडी जिला के नाचण विधानसभा के कुटवाची पंचायत के शहनाई वादकों के पचीकर गांव की निवासी थी। कबूतरी देवी सुकेत राज दरबार की मंगलमुखी गायिका और नर्तकी थी।
बिलासपुर कंजेली में माता रमालु देवी व पिता हजारू राम की बेटी कबूतरी देवी सुकेत के पंजोठ गांव में पली-बढ़ी।
कबूतरी के पिता हजारू राम सुकेत राज दरबार के शहनाई वादक थे। लोकगीत गायकी का हुनर कबूतरी देवी को विरासत में मिला।
कई रियासतों में चलता था जादू
छोटी आयु में ही आत्माराम शहनाई वादक से कबूतरी देवी का विवाह हो गया। गायन में माहिर होने के बाद कबूतरी देवी ने सुकेत राज दरबार में गाना शुरु कर दिया।
कबूतरी की सुकेत रियासत से बाहर मंडी, धामी, जुनगा, बिलासपुर रियासत में भी मंगल गायन कर अपने जादुई स्वर से अन्य गायकों और मरासियों को लोहा मनवाने लगी।
कबूतरी देवी का कहना था कि राज शासन के वक्त हर कार्यक्रम से पहले उन्हें सोने-चांदी की मंजीरें जड़ी लाल और बसंती रंग की पोशाक मिलती थी।
नहीं रहा मंगलमुखियों का सम्मान
वर्ष भर राज परिवार में कोई कार्यक्रम, मांगलिक उत्सव, जन्मदिन, शादी-ब्याह आयोजित होता तो कबूतरी देवी गाना गाने जरूर जाती, लेकिन राज परिवार में मृत्यु होने पर भी ‘कुटण-पीटण’ मृत्यु गीत गाने में ‘दाहुओं’ का नेतृत्व करती, लेकिन कलांतर में मंगलमुखियों का सम्मान खत्म हो गया।
अब तो संक्राति के दिन भी किसी घर से मंगलधुन बजाने का निमंत्रण नहीं मिलता। मंगलमुखियों के पुश्तैनी पेशे को वैज्ञानिक साधनों की चमक-धमक ने प्रभावित कर इनके आर्थिक जीवन को झझकोर कर रख दिया।
अब कहां सुनने को मिलते लोकगीत
कबूतरी देवी का कहना था कि थोड़े से समय में ही बहुत बदलाव आ गए। लोक जीवन और परंपराएं तेजी से बदल गईं।
शादी-ब्याह में तो कोई पारंपरिक मंगल गीत, सीठणायों, कुंजरी जैसे विदाई गीत सुनने को नहीं मिलते हैं। त्योहारों पर गाये जाने वाली रमैण, सिया, आंचली, जति, हणु, वास्तवारा (मातृ-पितृ भक्त श्रवण गाथा), छींज, बारहमासा, ढोलरू, खेती के गीत, बालो, नैणी, दशी जैसे लोकगीत काल की गर्त में समा गाए।
लोग की विरासत का संरक्षण
हमारी समृद्ध संस्कृति, मान-सम्मान, आदर व लोक जीवन का तेजी से ह्रास हो रहा है। शहनाई की जगह बैंड और डैक ने ले ली। फिल्मी गानों पर अब लोग डांस करते हैं।
आज हम ऐसी होड़ व अंधी दौड़ वाली दुनिया का हिस्सा बन रहे हैं जिसमें न हम परिवार व समाज से लगाव साध पा रहे हैं और न ही तो अलगाव।
पूर्वजों की पहचान व विरासत में मिली संस्कृति व संस्कार के लोकगीत को जीवित रखने में साधनारत रहीं कबूतरी देवी नई पीढ़ी के लिए एक आदर्श थी।
इस विषय से संबन्धित अन्य पोस्टें –
- Singer of Himachal Pradesh महेंद्र कपूर को सिखाये लोकगीत
- World Music Day लोक संगीत को देश- विदेश में बनाया लोकप्रिय, हिमाचल प्रदेश की 39 लोकतालों को लिपिबद्ध कर गए लोक गायक, लेखक,नर्तक एवं संगीत निदेशक मोहन राठौर