वाद्ययंत्र बिना पहाड़ पर क्यों अधूरा है हर मंगल कार्य?

कंचन शर्मा/ शिमला
हिमाचली लोक संस्कृति की अपनी एक अनूठी परंपरा है। प्रदेश में अलग-अलग भाषाएं, पहनावा, त्यौहार और खान-पान बेजोड़ हैं। इसके इलावा यहां का लोकनृत्य और लोकसंगीत विशेष महत्व रखता है। हिमाचल प्रदेश का लोक संगीत बिना वाद्ययंत्र के अधूरा सा लगता है। नाटी हो या देवनृत्य, वाद्ययंत्रों के बिना सब अधूरे से लगते हैं।
कल्पना करें यदि किसी पहाड़ी शादी, ब्याह या मेले में लोग नाच रहे हों, देवयात्रा हो रही हो अथवा विशेष त्योहार का आयोजन हो रहा हो और वहां से बजंतरी और वाद्ययंत्र नदारद हों तो कैसा लगेगा?
वैसे ही जैसे ‘नांडा रा नौचणा’ यानी गूंगे का नाच। नाच-गाना हो या मेले-त्योहार, हर स्थान पर वाद्ययंत्र तो चाहिये ही। फिर पहाड़ी वाद्यों की तो बात ही कुछ और है।
देवनृत्य हो या नाटी, बजंतरी तो चाहिये
देवनृत्य हो या नाटी, बजंतरी यानी वाद्ययंत्र बजाने वाले तो चाहिये ही। ये बजंतरी यहां ‘बाज़गी’ भी कहलाते हैं। अलग-अलग साज-बाज बजाने वालों के लिए अलग-अलग नाम हैं जैसे ढोल बजाने वाला ‘ढोली’, करनाल बजाने वाला ‘करनालची’ और शहनाई बजाने वाला ‘सनाईतड़’ या ‘हेसी’।
हिमाचल के अलग-अलग भागों में इन नामों में न्यूनाधिक भिन्नता हो सकती हैं परन्तु ये साज-बाज लगभग एक से हैं।
वाद्यों में सबसे प्रमुख नगाड़ा
नगाड़ा, नक्कारा या नगारा वाद्यों में सबसे प्रमुख माना जाता है। ताम्बे के बड़े तसले के खाली भाग पर चमड़ा कसकर बनाए जाने वाले इस वाद्य को चमड़े की नाड़ से यूं कसा जाता है कि यह बड़ी कर्णप्रिय आवाज निकालता है।
नगाड़े को दो लकडिय़ों से बजाया जाता है। सामान्यत: इसे गले से लटकाकर बजाया जाता है। यात्रा के दौरान इसे एक व्यक्ति पीठ पर लादता है तो दूसरा पीछे से बजाता जाता है। लाहुल के नगाड़े अपेक्षाकृत बड़े होते हैं। नगाड़े का कोई विकल्प नहीं है।
ढोल के साथ नगाड़े का मेल
ढोल एक ऐसा वाद्य है जिसके दो ओर चमड़ा कसा जाता है। दायीं ओर की कसी खाल ही बजाने के काम आती है। ढोल भी ताम्बे या पीतल से बनाया जाता है।
नगाड़े के साथ ढोल का स्वर ताल और लय के लिये आवश्यक होता है। ढोल के बिना नगाड़े का स्वर नहीं बन पाता।
‘ढोंऊसी’ के इशारे पर ताल
ढोल और नगाड़े के स्वर देने और बदलने के लिए ‘ढौंस’ की आवश्यकता रहती है। वास्तव में ‘ढौंस’ बजाने वाला ‘ढोंऊसी’ समूचे वाद्य यंत्र का निर्देशक है। उसी के स्वर से अन्य वाद्यों के स्वर भी बदलने लगते हैं।
ढोंऊस एक छोटा-सा ढोल होता है जिसे कई स्थानों पर ‘डफ’, तुड़क’ या ‘धोंस’ भी कहते हैं। ढौंस का पहला ताल बजते ही समस्त वाद्य एकसाथ बज उठते हैं और उसी का अंतिम ताल समस्त वाद्यों को बंद करने की सूचना देता है।
रणसिंघे की अपनी ही शान
कुछ स्थानों पर इसे ‘नरशिंगा’ या ‘नरसिंघा’ भी कहते हैं। पुराने समय में रणसिंघा युद्ध क्षेत्र में अपनी रणभेरी के लिए प्रसिद्ध था। अंग्रेजी के ‘एस’ आकार के इस वाद्य के दो भाग होते हैं।
पीछे से क्रमश: बढ़ता हुआ रणसिंघा सिरे पर चौड़ा मुंह लिये होता है। यह वाद्ययंत्र फूंक से बजने वाला है। इसका स्वर कम्पन लिये होता है, जिसका स्वर मीलों तक सुनाई देता है।
रणसिंघे का साथी करनाल
रणसिंघे की ही तरह का एक अन्य सुशिर वाद्ययंत्र है ‘करनाल’। करनाल भी नरसिंघे के समान पीछे से आगे की ओर क्रमश:चौड़ी होती है। इसका मुंह भोंपू का सा चौड़ा होता है। इसे बजाने की भी विशेष कला है। इसका स्वर रुक-रुककर थिरकन पैदा करता है।
नरसिंघा और करनाल प्राय: दोनों ही चांदी के बनाए जाते हैं। इन पर बड़े सुरुचिपूर्ण ढंग से नक्काशी की जाती है। दोनों वाद्य जोड़े में ही बजाए जाते हैं। दो करनालों या नरसिंघों का स्वर बहुत ही आह्लादकारी होता है।
देवयात्रा में बजता ‘काहल’
‘काहल’ या ‘काहली’ करनाल की ही तरह का सुशिर वाद्ययंत्र है, परंतु करनाल से काफी पतला। इसका स्वर भी इसी के अनुकूल होता है। इसका अधिकांश उपयोग देवताओं के मंदिरों और देवयात्राओं के दौरान होता है।
लाहुल की काहल को ‘भोटू काहल’ भी कहते हैं। कुछ स्थानों पर इसे ‘काहल्टी’ भी कहते हैं।
शहनाई, बांसुरी और गलगोजा
सुशिर वाद्ययंत्र में शहनाई का विशेष स्थान है। बांसुरी का अधिक परिचय देने की आवश्यकता नहीं। इस वाद्य के लिये किसी ढोल-नगाड़े की आवश्यकता भी नहीं।
रात्रि के एकान्त में, दूरस्थ जंगलों और घाटियों में या पर्वतों की चोटियों पर इसका स्वर आनन्दित कर देता है। एक कुशल बंसीवादक को बांसुरी के स्वरों में भी डूबता-उतरता देखा जा सकता है। गीत और नाटियों में बांसुरी वादन का विशेष महत्व है।
बांसुरी की ही भांति एक और वाद्य है ‘गलगोजा’। कई स्थानों पर इसे गड़ोजा, गड़ोजू, अलगोजा या लगोजा भी कहते हैं। गलगोजा बांस या लकड़ी कुरेदकर भी बनाया जाता है। इसे कोई भी नया आदमी आसानी से सीख सकता है। इस वाद्य का हिमाचल प्रदेश में विशेष प्रचलन नहीं है।
भाणा और झांझ
एक समस्त वाद्यतंत्र के लिए आवश्यक है कि उसमें और भी कुछ सहायक वाद्य हों। उदाहरणत: ‘भाणा’ एक ऐसा वाद्य यंत्र है जो कांसे से बनता है। इसे थाली भी कहा जा सकता है। इसे किसी धातु की छड़ी से बजाया जाता है।
झांझ भी कांसे की होती है। दो झांझों को टकराने से निकलने वाली झंकार वातावरण को रसमय बनाती है। मंजीरे और खडताल का अपना ही महत्व है।
वाद्य यंत्र पहाड़ की लोक धड़कन
वास्तव में हिमाचल के वाद्ययंत्र यहां की लोक धड़कन हैं। इनका स्वर ताल फूटते ही लोकमन आह्लाद से भर उठता है। पहाड़ के निवासियों का कोई भी मंगल कार्य,पर्व, मेला अथवा त्योहार इन वाद्यों के बिना अधूरा होता है।
पश्चिमी सभ्यता से रंगे ऊल जलूल के संगीत ने अवश्य ही परम्परागत लोकवाद्यों को ठेस पहुंचाई है, परन्तु पहाड़ी जनजीवन में इनकी इतनी गहरी पैठ है कि इनका महत्व किसी भी दृष्टि से कम होने की कोई सम्भावना नहीं है।
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