अब कहां कोई ललारी आता है, कौन पंद बिछता है?
पवन चौहान/ महादेव
‘आयां ओ ललारिया, तूं जायां ओ ललारिया, बैठणे जो दिंगी तिजो पंद, पंद हो ललारिया हो… कांगड़ा जनपद का एक कालजयी गीत है। गीत की नायिका उसके गांव में आए ललारी (दुपट्टा रंगने वाले) को बैठने के लिए पंद (चटाई) ऑफर करती है।
गीत में नायिका का पंद शब्द पर ज़ोर है। जाहिर है नायिका यह जताने की कोशिश कर रही है कि जिस तरह से ललारी को कपड़े रंगने का हुनर आता है, उसी तरह से नायिका को बुनने की कला आती है। इस अनुरोध से यह भी प्रतीत होता है कि नायिका ने पंद अपने हाथों से बनाई है और खूबसूरत बुनाई की है।
पंद और बिन्ने कभी हिमाचल प्रदेश की लोक संस्कृति का हिस्सा रहे हैं। हर घर की महिलाओं और युवतियों को पीढ़ी दर पीढ़ी इसको बनाने का हुनर आता था, तभी तो ये लोकगीतों में ढल गई। पर अब किधर कोई ललारी आता है और कौन पंद बिछता है?
पंद और बिन्ने बुनने का हुनर
आधुनिक जीवन शैली बहुत-सी पारंपरिक चीज़ों को काफी पीछे छोड़ आई है। मशीनीकरण के इस युग ने आज हर वस्तु को नए अंदाज़, नए फैशन और चमक-दमक में पेश करके हाथ से बनी चीज़ों का वजूद ही मिटाकर रख दिया है।
इसी चकाचौंध में दम तोड़ चुके हैं हाथों का हुनर दर्शाने वाले पारंपरिक पंद और ‘बिन्ने’। पंद को मंडी में मांजरी कहा जाता है। इस दौर में अधिकतर युवतियों को मांजरी और बिन्ने बनाने की कला नहीं आती है।
जंगली खजूर के पत्तों की पंद
जंगली खजूर के पत्तों (पाठे) से मांजरी बनाने के लिए पहले पाठे के पत्तों को हाथ से बुनकर कम चौड़ी लंबी पट्टी तैयार की जाती है। फिर इस पट्टी को मांजरी के आकार के पाठे से ही सीलकर जोड़ा जाता है।
यह बेलनाकार तरीके से बुनी जाती है। इसे जब बीच से काटा जाता है, तब हमें आयताकार मांजरी मिल जाती है। पाठे की मांजरी पतली होती है।
पराल की पंद
पराल की मांजरी को समतल ज़मीन पर चार खूंटियां गाड़कर बनाया जाता है। इसे सेबे (जूट) या प्लास्टिक की पतली डोरियों को समान दूरी में बांधकर थोड़ा- थोड़ा पराल लेकर सेबे या प्लास्टिक की डोरी से गांठे देकर तैयार किया जाता है। कांगड़ा जनपद में कई जगह इसे बंदरी भी कहा जाता है। पराल से तैयार की गई बंदरी मोटी व नरम होती है।
कोके का बंता है बिन्ना
बिन्ने का इस्तेमाल सिर्फ एक व्यक्ति के बैठने के लिए होता है। बिन्ना बनाने के लिए मुख्यतः ‘कोके’ (मक्की के भुट्टों का बाहरी छिलका) का इस्तेमाल किया जाता है। हल्दी के पत्ते या पराल से भी बिन्ने बनाए जाते हैं। बिन्ने को आमतौर पर गोल आकार दिया जाता है।
बिन्ने को सुंदर व आकर्षक बनाने के लिए इसमें लगने वाली सामग्री को अलग-अलग प्रकार के रंगों में रंगकर इस्तेमाल किया जाता है।
शादी में पंद- बिन्ने का उपहार
पहले गांवों में मांजरी और बिन्ना बुनने का हुनर हर परिवार की महिलाएं जानती थीं, लेकिन अब यह हुनर कुछ एक महिलाओं तक ही सीमित हो चुका है। मांजरी और बिन्ने बनाने में मेहनत, प्यार, लगन और अपनेपन का अहसास झलकता था।
लड़की की शादी पर उपहार में मांजरी और बिन्ने देने का प्रचालन था। गांवों में आज भी लड़की को शादी पर अन्य चीजों के साथ ये दोनों चीजें देने का प्रचलन कहीं- कहीं जिंदा है।
अब नए रूप- रंग में पंदें
जहां एक तरफ तेज़ी से मांजरी और बिन्ने बनाने का हुनर गायब हो रहा है, वहीं दूसरी तरफ पिछले कुछ वर्षों से मांजरी में महिलाएं रंग-बिरंगे प्लास्टिक के रैपर लगाकर उन्हें एक नए रूप में पेश कर रही हैं। ऐसी पंदें लोगों को अपनी ओर आकर्षित करती हैं।
हुनर की गवाही देती है बुनाई
बेशक हम चाहे मशीनों से बने साजो-सामान व आराम की कितनी भी चीजें घर में सजा लें, लेकिन अपने हाथों से बनाई गई चीज़ों का कोई मुकाबला नहीं कर सकता।
इन चीज़ों को बनाने से जहां खाली समय आराम से कट जाता है, वहीं अपने हुनर की क्रियाशीलता भी बनी रहती है। इस तरह की चीजों से दूर होने का साफ मतलब अपनेपन से दूर भागना है।
फिटनेस का एंगल
पहले जब भी कोई मेहमान घर आता था तो उसे बिन्ने या मांजरी पर बिठाया जाता था। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो बिन्ना या मांजरी पर बैठकर खाने से या बैठने-उठने से शारीरिक व्यायाम हो जाता है जो स्वास्थ्य की दृष्टि से लाभदायक है। आज भी बहुत से बुजुर्ग धरती पर मांजरी या बिन्ने पर बैठकर भोजन करने को बेहतर मानते हैं।
मशीनों ने छीना हाथ का हुनर
मांजरी और बिन्ने सिर्फ गांवों में ही कुछ ही देखे जा सकते हैं। इस आधुनिक युग के आरामपरस्त माहौल मांजरी – बिन्ने बनाने वाले हुनरमंद हाथ भी अब पीछे सरक चुके हैं। लोग रेडीमेड बैठकु या कुर्सियां ज्यादा पसंद करने लगे हैं।
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