कभी पेडू हर घर में था खास, अब मिट रहा इतिहास
पवन चौहान/ महादेव
‘जिन्हां देयां पेडुआं दाणे।
तिन्हां दे झल्ले भी स्याणे।।‘
पहाड़ पर जिनके पेडू आनाज से भरे होते थे, उनके साधारण बच्चे भी समझदार माने जाते थे। बांस के इस बर्तन को लेकर यहां आज भी कई कहावतें आज भी जिंदा है, यह दूसरी बात है कि इस बर्तन का खुद का वजूद खतरे में है। आर्थिकी पर संकट है उन समुदाय की, जो पीढ़ी दर पीढ़ी हाथ के हुनर से बांस के बर्तन बनाता आ रहा है।
कभी पेडू हर घर के किसी हिस्से में रखा दिखता था, लेकिन तेज़ी के लुप्त हो रही वस्तुओं में शामिल हो चुका है। यह बांस से बुना गया एक ड्रमनुमा कंटेनर होता था, जिसके भीतर किसान खेतों से निकाले गए अनाज को संग्रहित करके रखता था। खासकर, इसमें धान रखे जाते थे।
ऐसा होता बांस का यह बर्तन
पेडू बेलनाकार होता था। इसके आधार की परिधि ऊपर के इसके खुले मुंह की अपेक्षा ज़्यादा होती थी। मध्य में यह हल्का-सा बाहर की ओर फूला रहता था। औसतन इसके के मुंह की परिधि 80 से 85 इंच, आधार 90 से 95 इंच तथा ऊंचाई 4 से 4.5 फुट रहती थी।
इसका मुंह गोलाई में बांस की मोटी स्ट्रीपों से कसा गया होता था, ताकि इनकी मजबूती बनी रहे। बांस का यह बर्तन काफी मजबूत होता था और इसे कई वर्षों तक इस्तेमाल में लाया जाता था।
‘भुरकली’ और ‘खार का पेडू’
इस बर्तन की भी कई किस्में होती थीं। सबसे छोटे रूप को भुरकली कहते थे जिसमें दो लाख दाना अनाज आता था। पहले अनाज को ‘पाथे’ से लाख के हिसाब से तोला जाता था। पाथा लोहे, पीतल, लकड़ी या बांस का बना एक छोटा बेलनाकार बर्तन होता था जिसमें लगभग एक बट्टी (दो किलोग्राम) अनाज आता था।
‘भुरकली’ के बाद 5 लाख, 10 लाख, 15 लाख और 20 लाख क्षमता वाले बांस के बर्तन होते थे। 20 लाख की क्षमता वाले बर्तन को ‘खार का पेडू’ कहा जाता था। 20 पाथों में एक लाख दाना आता है।
ऐसे होती थी कीमत
एक पेडू को बनाने में 2 से 3 दिन का समय लग जाता था। इसकी कीमत आकार के से तय की जाती है। वर्तमान में यह कीमत 500 रुपए से 1500 रुपए तक है। पहले बहुत संख्या में इस बर्तन को बनाने का काम होता था, अब इसके खरीदार न के बराबर हैं। बांस के बर्तन बनाने वाले समुदाय की नई पीढ़ी इस हुनर से महरूम हो चुकी है।
लिपाई के बाद होता था प्रयोग
हर घर में पेडूओं की संख्या खेतों से आने वाले अनाज की मात्रा देखकर तय होती थी। बांस के इस बर्तन को गाय के गोबर से अंदर और बाहर दोनों तरफ से लीपा जाता था, ताकि बांस की बुनाई के बाद बचे हुए छेद पूरी तरह से ढक जाएं। पेडूओं की लिपाई साल में एक बार या फिर नई फसल पर या उस वक्त की जाती थी।
लोक संस्कृति में उपयोग
हमारी रोज़मर्रा की इस्तेमाल की ऐसी बहुत सारी चीजें हैं जिनके आकार-प्रकार के अनुसार उन्हें हम किसी को चिढ़ाने के लिए भी इस्तेमाल में लाते हैं। इस शब्द को भी हम इस तरह से इस्तेमाल में लाते हैं। जैसे ‘मुआ खाई खाई कने पेडू हुई गईरा तु’ अर्थात् तुम खा-खाकर मोटे हो गए हो।
पेडूओं के अंदर छुपकर बचाई थी जान
पेडुओं के विषय में एक बात प्रचलित है। भारत-पाकिस्तान विभाजन के दौरान जब चारों ओर मार-काट का दौर चला हुआ था, उस वक्त बहुत से लोगों ने इन पेडूओं के अंदर छुपकर अपनी जान बचाई थी। पेडूओं से जुड़े कई किस्से-कहानियां हम आज भी अपने बुजुर्गों की जुबानी सुनते हैं।
पेडूओं के दीदार को तरस आंखें
आज हम पेडूओं का दीदार करने के लिए भी तरस गए हैं। यह बर्तन अपने अस्तित्व की लड़ाई हार रहा है। हम उन हुनरमंद हाथों की कारीगरी देखने से भी चूक रहे हैं, जो इस मशीनी युग में भी अपनी कार्यकुशलता और अथक मेहनत का पाठ पढ़ाती हैं। विकल्प के तौर पर इनका स्थान अब जीसी. शीट या फिर प्लास्टिक के कंटेनरों ने ले लिया है।
नी पेडुयां दो मण दाणे
बांस के इस बर्तन के मिटते वजूद को विनोद भावुक की एक पहाड़ी रचना में पढ़ा जा सकता है।
सैह गल्लां ने क्या टरकाणे।
हुण बड़े स्याणे होये न्याणे।।
नी मन्ने तां खल़णा तोंदिया।
जादा नी कदी गंड दबाणे।।
रोज रोज क्या हथ अडणे।
कदी घरैं भी जाग जमाणे।।
राजां काजां कने घरां कारजां।
अन्नेयां बिच तां राजे काणे।।
नी घराल़ां हुण सैह जोगां।
नी पेडुयां दो मण दाणे।।
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