काले महीने में मायके क्यों रहती थीं नई दुल्हनें ?

काले महीने में मायके क्यों रहती थीं नई दुल्हनें ?

हिमाचल बिजनेस/ धर्मशाला

भाद्रपद की सक्रांति के साथ ही शुक्रवार से काला महीना शुरू हो गया है। काले महीने में कांगड़ा जनपद में नई-नवेली दुल्हनें ससुराल से मायके भेज दी जाती थीं, जिसे वरसाला रहना कहा जाता था। मान्यता के अनुसार काले महीने में सास-बहू और दामाद-सास का एक दूसरे का देखना वर्जित होता था।

इसलिए काला महीना शुरू होने से पहले कई तरह के पकवान बना कर एक बड़े टोकरे में भर कर नई दुल्हन को ससुराल पक्ष मायके छोड़ आता था। काले महीने बहू का गर्भवती होना भी अशुभ माना जाता है। नई दुल्हन को वरसाला भेजने के पीची विभिन्न तर्क दिये जाते थे।

क्या गरीबी था कारण ?

कहा जाता है कि पुराने समय में काले महीने को साल का तेहरवां महीना माना जाता था। अधिकतर लोगों के घरों में इन दिनों अनाज की कमी रहती थी। इस दौरान कमाई के साधन व काम- धंधा भी नहीं होता था।

नई दुल्हन को ससुराल में किसी चीज की कमी का अहसास न हो इसलिए गरीबी छुपाने के लिए ससुराली उसे मायके भेज देते थे। दामाद के सामने नई बहू अपनी मां को ससुराल की कमियां गिनवाए, इसलिए दामाद और सास को नहीं मिलने दिया जाता था।

इंफेक्शन का खतरा था कारण ?

वैज्ञानिक तर्क है कि काले महीने इंफेक्शन का खतरा ज्यादा रहता है, इसलिए नव विवाहिताओं को दूर रखा जाता था। बुजुर्ग इस बात को सीधा नही कहते थे, इसलिए काला महीना बता कर नए पति- पत्नी को अलग रखते थे।

बरसात में फंगस और गन्दे पानी से कई बीमारियां होती हैं। उस दौर में ये बीमारियां असाध्य होती थी, शायद इसी कारण इस महीने को अशुभ मानते थे।

अब फैशन तक सिमटा वरसाला जाना

काले महीने में अब भी नव विवाहितों को वरसाला भेजने की व्यवस्था जारी है, लेकिन अब पुराने रीति – रिवाज की जगह यह रीत फैशन ज्यादा बन गई है। संचार के साधनों के चलते वरसाला के दौरान भी नव विवाहिता वीडियो कॉल पर ससुराल पक्षा से बातचीत करती रहती है।

अब न तो पहले जैसी व्यवस्था रही है और न ही पहले जैसी बन्दिशें भी नहीं बची हैं। धीरे- धीरे लोक संस्कृति से जुड़ी यह रस्म कमजोर पड़ती जा रही है। हालांकि अभी तक यह पूरी तरह से खत्म नहीं हुई है और ग्रामीण क्षेत्रों में इस पर अब भी अमल होता है।

लोक ऋतु में काला महीना

लोक ऋतु के हिसाब से कांगड़ा जनपद में सावन महीने के आखिरी 8 दिन और भादों की संक्रांति (काले महीने) के पहले 8 दिन को कुरल और कुरलाणी कहते हैं। इन दिनों कांगड़ा जनपद में खूब बारिश होती है।

पहले कुरल बैठता है। अगर कुरल के बैठने के दौरान कम बारिश हो तो कुरलानी के बैठने पर अधिक बारिश होती है। अगर कुरल के बैठने के दौरान ज्यादा बारिश हो तो कुरलानी के बैठने पर कम बारिश होती है।

सिम्बल के पेड़ों पर प्रवास

लोक मान्यता है कि कुरल और कुरलाणी नर और मादा पक्षी हैं, जो कांगड़ा जिला में ब्यास नदी के नरियाह्णा पत्तन के पास कालेश्वर महादेव के किनारे सिम्बल के पेड़ों पर सोलह दिन के लिए आकर बैठते हैं।

पहले आठ दिन कुरल बैठता है और खाने की व्यवस्था कुरलानी करती है, जबकि अगले आठ रोज कुरलानी बैठती है और व्यवस्था का जिम्मा कुरल पर होता है।

देवताओं और डायनों की लड़ाई

देव संस्कृति में मान्यता है कि काले महीने डायनों से युद्ध करने (हार पासा खेलने) देवी- देवता घोघड़धार जाते हैं। मंडी जिला के अधिकांश और कुल्लू जिला के आंशिक क्षेत्रों में इस महीने में देवी- देवताओं के मंदिरों के कपाट बंद रहते हैं।

नागपंचमी को दोबारा से कपाट खोले जाते हैं फिर देवी- देवता युद्ध के आधार पर आगामी वर्ष की भविष्यवाणी करते हैं।

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