क्यों पहेली बना हुआ है ज्वालामुखी को चढ़ाया छत्र?
हिमाचल बिजनेस/ कांगड़ा
विश्व में एक ऐसा स्थान जो कि प्राकृतिक ही नहीं, अपितु चमत्कारी भी है, ज्वालामुखी का अद्भुत मंदिर है। इस देवी स्थान के बारे में कहा जाता है कि यहां के चमत्कार देख मुगल बादशाह अकबर हैरान रह गया था।
ज्वालामुखी मंदिर में होने वाले चमत्कारों को सुनकर अकबर सेना समेत यहां आया था। यहां जल रही ज्योति को उसने बुझाने के लिए नहर का निर्माण किया और सेना से पानी डलवाना शुरू कर दिया। पानी डलने के बाद भी मां की ज्योतियां जलती रहीं।
यह देख अकबर ने मां से माफी मांगी और पूजा कर सोने का सवा मन का छत्र चढ़ाया था, लेकिन महामाई ने उसका छत्र स्वीकार नहीं किया था और छत्र गिर गया। आज भी अकबर का छत्र मंदिर में मौजूद है, लेकिन वह छत्र अब किसी भी धातु का नहीं है।
ध्यानू भक्त व अकबर से जुड़ी कथा
पौराणिक कथाओं में अकबर और माता के भक्त ध्यानू का प्रसंग है। ध्यानू भगत की ज्वालामुखी में अपार श्रद्धा और गुणगान के कारण राजा अकबर ने ध्यानू भगत की परीक्षा ली। ध्यानू द्वारा किए गए चमत्कारों से हैरान होकर अकबर ने अपनी सेना बुलाई और खुद मंदिर की तरफ चल पड़ा।
वहां पहुंच कर उसने अपनी सेना से मंदिर में नहर का निर्माण कर पानी डलवाया, लेकिन माता की ज्योति नहीं बुझी। यह सब देख उसे मां की महिमा का यकीन हुआ और घुटने के बल मां के सामने बैठ कर क्षमा मांगने लगा।
अकबर का घमंड हुआ चूर-चूर
अकबर की भेंट माता ने अस्वीकार कर दी थी। इसके बाद कई दिन तक मंदिर में रहकर उनसे क्षमा मांगता रहा। बड़े दुखी मन से वह वापस आया।
कहते हैं कि इस घटना के बाद से ही अकबर के जीवन में अहम बदलाव आए और उसके मन में हिंदू देवी- देवताओं के लिए श्रद्धा पैदा हुई।
छत्र का दोबारा परीक्षण नहीं
लोक मान्यता है कि अकबर के घमंड को तोड़ने के लिए ही देवी ने अपनी शक्ति से सोने के छत्र को अज्ञात धातु में बदल दिया। मंदिर अधिकारी बताते हैं कि चूंकि यह आस्था से भी जुड़ा मामला है, लिहाजा मंदिर प्रशासन इसका दोबारा परीक्षण नहीं करा सकता। यह छत्र ज्वालामुखी मंदिर के साथ लगते मोदी भवन में रखा हुआ है।
छत्र किस धातु का, कोई पता नहीं
बादशाह अकबर की ओर से चढ़ाया गया छत्र आखिर किस धातु में बदल गया। इसकी जांच के लिए साठ के दशक में तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की पहल पर यहां वैज्ञानिकों का एक दल पहुंचा। इसके बाद छत्र के एक हिस्से का वैज्ञानिक परीक्षण किया गया तो चौंकाने वाले नतीजे सामने आए। वैज्ञानिक परीक्षण के आधार पर इसे किसी भी धातु की श्रेणी में नहीं माना गया।
एकलौता मंदिर जहां 5 बार होती आरती
ज्वालामुखी मंदिर में पांच बार आरती होती है। सुबह ब्रह्ममूहर्त में पहली आरती होती है, जिसमें मालपुआ, खोआ, मिस्त्री का प्रसाद चढ़ाया जाता है। इसे मंगल आरती कहते हैं। दूसरी आरती पहली आरती से एक घंटा बाद होती है। इसमें पीले चावल व दही का भोग लगाया जाता है।
तीसरी आरती दोपहर के समय की जाती है। इसमें चावल छह मिश्रित दालों व मिठाई का भोग लगाया जाता है। चौथी आरती सांयकाल में होती है, इसमें पूरी चना और हल्वा का भोग लगता है।
रात करीब नौ बजे शयन आरती होती है, जिसमें माता के शयनकक्ष में सौंदर्यलहरी के मधुर गान के बीच सोलह शृंगार के बाद मंदिर के कपाट बंद कर दिए जाते हैं।
लोक भजन में मां की गाथा
मां ज्वालामुखी की गाथा और ध्यानू भगत की आस्था लोक भजन में गाई जाती है। भजन की कुछ पंक्तियां इस प्रकार हैं। ‘सुण कांगड़े देया लोका हो, तेरा शहर ज्वाला माई मंदिर ओ, उच्चेया पहाड़ां बरमा लगेया, जोता जगदियां अंदर ओ।’
गोरखनाथ की गोरख टिब्बी
मंदिर में ज्योतियों से जुड़ी एक जनश्रुति के अनुसार योगी गोरखनाथ यहां तपस्यारत थे। उनकी इच्छा पर मां यहां ज्वाला रूप में प्रकट हुई। बताया जाता है कि गोरखनाथ ने मां से आग्रह किया कि वे भिक्षा मांग कर आते हैं और आप यहां पानी गर्म करने के लिए अग्नि की व्यवस्था करें। गोरखनाथ के आग्रह पर मां ज्वाला रूप में प्रकट हुई। यहां गोरख की याद में गोरख टिब्बी भी मौजूद है।
यहां पानी खौलता हुआ दिखता है, लेकिन हाथ से छूने पर वो शीतल लगता है। कहा जाता है कि जिस समय गोरखनाथ भिक्षा मांगने गए उसके बाद युग परिवर्तन हुआ और गोरखनाथ लौटकर नहीं आए। मान्यता है कि जिस समय गोरखनाथ वापस आएंगे, तब तक ये अग्नि ज्वालाएं जलती रहेंगी।
ऐसे पहुंचे ज्वालामुखी
ज्वालामुखी मंदिर पहुंचना बेहद आसान है। यह जगह वायु मार्ग, सडक़ मार्ग और रेल मार्ग से अच्छी तरह जुडी हुई है। वायु मार्ग से नजदीकी हवाई अड्डा गगल में है जो कि ज्वालाजी से 46 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यहां से मंदिर तक जाने के लिए कार व बस सुविधा उपलब्ध है। रेल मार्ग से जाने वाले यात्री पठानकोट से चलने वाली स्पेशल ट्रेन की सहायता से मारंडा होते हुए पालमपुर आ सकते है। वहां से मंदिर तक बस व कार सुविधा उपलब्ध है।
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