खज्जीनाग मंदिर : भाई मानकर पूजे जाते खज्जीनाग
मनीष वैद/ चंबा
हिमाचल प्रदेश के धौलाधार पर्वत शृंखलाओं के बीच कई नाग मंदिर हैं। इनमें खजियार का खज्जीनाग मंदिर प्रमुख है। इस मंदिर के प्रति स्थानीय लोगों में बहुत ही आस्था है और यहां हर सांप को भाई के समान माना जाता है एवं उनकी पूजा की जाती है।
खज्जीनाग की पूजा पद्धति अन्य मंदिरों से काफी अलग है। हर रोज सुबह और शाम नाग देवता की एक घंटे तक पूजा होती है। पूजा के दौरान मंदिर का घंटा लगातार बजाया जाता है।
इसके साथ ही कई ग्रामीण पंरपरागत वाद्ययंत्रों को बजाते हैं। स्थानीय लोग कोई शुभ कार्य करने से पहले खज्जीनाग मंदिर में हाजिरी जरूर लगाते हैं।
पांच पांडवों की काष्ठ प्रतिमाएं
खज्जीनाग मंदिर के प्रांगण में पांच पांडवों की काष्ठ प्रतिमाएं स्थापित की गई हैं। पांडवों की पांच प्रतिमाएं 16वीं सदी में चंबा के राजा बलभद्र वर्मा ने स्थापित करवाई थीं। काठ की बनी होने के बावजूद प्रतिमाएं काफी अच्छी हालत में हैं।
राजा पृथ्वी सिंह के कार्यकाल में 1641-44 के बीच उनकी धर्म परायण दाई ने मंदिर की प्राण-प्रतिष्ठा कराई थी। जिला प्रशासन की ओर से मंदिर को मूल प्रारुप में ही संरक्षित किया गया है। मंदिर के मुख्य भवन के निर्माण में भी काठ का प्रयोग ज्यादा किया गया है।
चार नागों की कहानी
सदियों पुरानी बात है। चंबा जिले में राणे हुआ करते थे। एक बार उनकी नजर लिली नामक गांव में पहाड़ के ऊपर जलती रोशनी पर पड़ी।
खजाना समझकर जब उन्होंने उसे खोदा तो वहां से चार नाग प्रकट हुए। चारों को समानपूर्वक एक पालकी में डालकर वहां से लाया गया। इस दौरान नाग देवताओं ने कहां जहां से हमारी पालकी भारी हो जाएगी, वहीं हम चारों अलग-अलग हो जाएंगे।
सुकरेही नामक स्थान पर पालकी भारी हो गई। वहीं से चारों नाग अलग-अलग हो गए। चार नाग भाई क्रमश: चघुंई, जमुहार, खजियार और चुवाड़ी में बस गए।
सिद्ध बाबा हुए पराजित
खज्जियार में पहले से ही सिद्ध बाबा का वास था। खज्जीनाग ने उन्हें अपने बड़े भाई की मदद से खरपास (एक प्रकार के खेल) में पराजित किया। इस तरह खज्जीनाग ने यह जगह जीत ली। सिद्ध बाबा ने अपनी हार के बाद कहा- ‘अब तू यहीं खा और यहीं जी’।
इस तरह नाग देवता का नाम पड़ा खज्जीनाग। इस जगह का नाम इस तरह खजियार पड़ गया। खज्जीनाग का पौराणिक नाम पंपूरनाग भी था।
नाग पंचमी पर विशेष पूजा
खज्जीनाग मंदिर में नाग पंचमी धूमधाम व श्रद्धा से मनाई जाती है। इस दिन नागों की पूजा होती है। गांवों में इसे नागचैयां भी कहते हैं। इस दिन ग्रामीण लड़कियां किसी जलाशय में गुडिय़ों का विसर्जन करती हैं। ग्रामीण तैरती हुई इन निर्जीव गुडिय़ों को डंडे से खूब पीटते हैं।
माना जाता है कि सावन मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी को जो सांपों को भाई के रूप में पूजते हैं तो उनके सभी कष्ट और विकार दूर हो जाते हैं।
झील का है पौराणिक महत्व
खज्जीनाग मंदिर के सामने स्थित झील का भी पौराणिक महत्व है। कहा जाता है कि यह झील अंतहीन है और उसमें शेषनाग के अवतारी खज्जीनाग स्वंय वास करते हैं।
कई बार उन्होंने स्थानीय लोगों को दर्शन भी दिए हैं। इस झील में मणिमहेश यात्रा के दौरान लोग पवित्र स्नान भी करते हैं।
झील में गिरी बालियां पनिहार से निकलीं
एक लोककथा के अनुसार एक बार एक गड़रिया प्यास लगने पर इस झील का पानी पीने लगा। उस दौरान उसके कानों की बालियां झील में गिर गईं।
चलते-चलते जब गडरिया चंबा शहर के पास सुल्तानपुर पहुंचा तो वहां बने एक पनिहार पर पानी पीने लगा इसी दौरान उसकी दोनों बालियां वापस उसके हाथ में आकर गिर गईं। इसलिए लोग इस झील को चमत्कारी मानते हैं।
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