जोड़ुआं-पतरोड़ुआं दी सगरांद क्यों मनाई जाती है ?
विनोद भावुक/ धर्मशाला
काले महीने में जोड़ुआं-पतरोड़ुआं दी सगरांद हिमाचल प्रदेश खासकर निचले हिमाचल की लोक संस्कृति का अहम हिस्सा रही है। कांगड़ा जनपद में इस त्यौहार को कभी बड़ी धूम- धाम से मनाया जाता रहा है। निचले हिमाचल में कृषि और पशुपालन मुख्य लोगों का मुख्य पेशा था। जो लोग सीधे खेती- बाड़ी से नहीं जुड़े थे, वे परोक्ष में किसानों के लिए कृषि के औज़ार बना कर देते थे।
जोड़ुआं-पतरोड़ुआं दी सगरांद का त्यौहार कृषि, पशुपालन और कृषि के औज़ार बनाने वाले समुदायों से जुड़ा होने के कारण यहां के एक बड़े वर्ग से संबन्धित त्यौहार था।
सावन माह के बीतते ही मक्की और धान में बालियां आनी शुरू हो जाती हैं। अच्छी फसल की कामना करते हुए ग्रामीण लोग खुशी मानते थे और इस अवसर पर विशेष पकवान बनाते थे।
जोड़े बटने की शुरुआत
पहाड़ की परंपरागत खेती में पशुओं की भूमिका बेहद अहम थी। पशुओं को खूँटे पर बांधने के लिए रस्से जिसे स्थानीय भाषा में जोड़े कहते हैं, की जरूरत पड़ती है। उस दौर में प्लास्टिक के रस्से प्रचलन में नहीं थे, इसलिए किसान खुद सेहल (ब्यूल का रेशा )से जरूरत के हिसाब से खुद जोड़े तैयार करते थे।
सेहल तैयार करने के लिए ब्यूल की टहनियों को कुछ दिनों तक पानी में दबाकर रखना पड़ता था। बरसात से पहले में पानी में भिगोई टहनियों को पत्थर पर पीट पीट कर छिलके से सेहल निकाला जाता था। इसे सूखाकर लकड़ी के एक यंत्र जिसे स्थानीय भाषा में डाक्कू कहते थे, की मदद से जोड़े तैयार किए जाते थे।
जोड़ुआं-पतरोड़ुआं दी सगरांद के दिन जोड़े बांटने की शुरुआत होती थी। ऐसा माना जाता था कि अब तक सेहल बेहद मजबूत हो चुका होता था और इस सगरांद से बनाए जोड़े बहुत मजबूत होते थे।
कम कमाल की बात नहीं थी कि हर किसान परिवार में कम से कम एक मर्द को जोड़े बांटने का हुनर आता था। कांगड़ा के इतिहास में तो ऐसा भी जिक्र है कि कांगड़ा का एक राजा बाणबट रस्सी बाँट कर अपनी आजीविका चलता था।
पतरोड़ु बनाने की शुरुआत
जोड़ुआं-पतरोड़ुआं दी सगरांद के दिन से ही यहां के किसान कचालू के पत्तों के पतरोड़ु बनाने की शुरुआत करते थे। ऐसा माना जाता था कि इस सगरांद से पहले पतरोड़ु का सेवन करना हानिकारक होता था। आयुर्वेद कहता है कि अरबी के पत्तों में ऑक्सालिक एसिड और कैल्शियम ऑक्सालेट भी पाया जाता है, जो मुंह में खुजली, जलन, दर्द या जीभ और होंठों में सूजन का कारण बन सकता है।
बुजुर्ग मानते थे कि सावन मास में बरसात के कारण अरबी के पत्तों से खतरनाक तत्वों की मात्रा कम हो जाती है, इसलिए जोड़ुआं-पतरोड़ुआं दी सगरांद से इसका सेवन सही माना जाता था।
पवित्र स्नान और दान – पुण्य
भादो माह में सूर्यदेव अपनी सिंह राशि मे प्रवेश करते हैं, इसलिए जोड़ुआं-पतरोड़ुआं दी सगरांद को सिंह संक्रांति भी कहते हैं। इस रोज पहाड़ की पवित्र नदियों और सरोवरों में स्नान कर दान-पुण्य करने की रीत रही है। इस दिन देसी घी का प्रयोग आवश्यक रूप से किया जाता था, इसलिए इसे घी संक्रांति भी कहते थे।
जोड़ुआं-पतरोड़ुआं दी सगरांद के दिन सात्विक चीजों का सेवन किया जाता था और भगवान को भी इन्हीं चीजों का भोग लगाया जाता था। इस दिन सत्य नारायण की कथा करवाने का चलन था तथा सूर्य देव और इष्टदेव की पूजा का विधान था।
सड़क पर बैल, क्या करने जोड़े
एक तो कृषि पर निर्भरता कम होती गई। पावर टिल्लर के कंधों पर सवार आधुनिक कृषि में बैल की भूमिका के गौण होने के चलते गौवंश सड़कों पर आ गया है। जिन चंद परिवारों ने दुधारू पशु रखे भी हैं, सेहल के जोड़ों की जगह प्लास्टिक के जोड़े उनके लिए विकल्प के तौर पर उपलब्ध हैं। जोड़े बांटने का औज़ार और कला दोनों गायब हो चुकी हैं।
जोड़ुआं-पतरोड़ुआं दी सगरांद तो आज भी मनाई जा रही है, लेकिन इस सगरांद से जोड़ू गायब है। केवल पतरोड़ु बनाकर ही इस त्यौहार की औपचारिकता निभाना भर ही बचा है। इस पर इतना ही कहा जा सकता है –
बटणे कयो जोड़े हुण बचे कुथु दांद।
बणाई के पतरोड़ु मनाई लेया सगरांद।।
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