पर्यावरण संरक्षण : कश्मीर से पैदल कोहिमा
मनीष वैद/ चंबा
पर्यावरण संरक्षण की इस प्रेरककथा के नायक हैं चंबा जिला की भटियात घाटी के कामला गांव के 75 साल के कुलभूषण उपमन्यु। कुलभूषण उपमन्यु पिछले साढ़े पांच दशक से पर्यावरण संरक्षण व सामाजिक चेतना के लिए समर्पित रहे हैं।
कश्मीर से कोहिमा तक पदयात्रा करने वाले कुलभूषण उपमन्यु ने पर्यावरण को बचाने के लिए जेल की यात्रा भी है। जिन्दगी की ढलान पर भी वे पर्यावरण संरक्षण व सामाजिक चेतना के लिए संघर्षरत हैं।
पर्यावरण संरक्षण के लिया आंदोलन
5 फरवरी, 1949 को कामला गांव के प्रतिष्ठित परिवार में जन्मे कुलभूषण उपमन्यु को कॉलेज की पढ़ाई के बाद सरकारी नौकरी मिल गई, लेकिन वे तो किसी दूसरे ही मकसद के लिए पैदा हुए थे।
नौकारी को ठोकर मारकर कुलभूषण उपमन्यु ने पर्यावरण संरक्षण की खातिर सामजिक आन्दोलन के लिए खुद को समर्पित कर दिया। हिमाचल प्रदेश की पर्यावरण व वन सम्बन्धी नीति में बदलाव में उनका विशेष योगदान रहा है।
जन आंदोलनों को समर्पित चेहरा
जय प्रकाश नारायण के सम्पूर्ण क्रान्ति आन्दोलन से प्रभावित होकर कुलभूषण उपमन्यु उस आन्दोलन में कूद पड़े। साल 1980 के दशक में उत्तराखण्ड में पर्यावरण संरक्षण से संबन्धित चिपको आन्दोलन के दौरान प्रख्यात पर्यावरणविद सुन्दरलाल बहुगुणा के साथ देश भर में यात्राएं कर वन संरक्षण नीति को बदलवाने के लिये आन्दोलन किये।
उत्तराखण्ड में इस मॉडल के सफल रहने के बाद उन्होंने हिमाचल प्रदेश में भी इस आन्दोलन की बागडोर सम्भाली और प्रदेश के गांव – गांव घूमकर लोगों को जागरूक किया।
कश्मीर से कोहिमा पदयात्रा
वर्ष 1981 में पर्यावरणविद सुन्दरलाल बहुगुणा के साथ मिलकर पर्यावरण संरक्षण के लिए कुलभूषण उपमन्यु ने ‘कश्मीर से लेकर कोहिमा’ तक पदयात्रा की। इस दौरान उन्होंने सारे हिमालयी राज्यों की परेशानियाँ समझीं और उन राज्यों के लोगों को संगठित किया।
उन्होंने लोगों के साथ मिलकर बिना सरकारी मदद के ग्रामीण समितियां गठित कर खुद वन भूमि पर पौधरोपण किया और आदर्श मॉडल प्रस्तुत किया। उन्होंने लोगों को वन अधिकारों के लिये भी जागरूक किया।
उखाड़ दी चीड़ और सफेदे की नर्सरियां
अस्सी के दशक में हिमाचल प्रदेश सरकार प्राकृतिक जंगलों को काटकर व्यापारिक हित के लिये चीड़ व सफेदे के पौधे लगा रही थी। पर्यावरण संरक्षण के लिए कुलभूषण उपमन्यु ने इसका बड़े पैमाने पर विरोध किया और भटियात क्षेत्र में बड़ा जनान्दोलन छेड़ दिया।
उन्होंने लोगों के साथ मिलकर की चीड़ और सफेदे की सरकारी नर्सरियां नष्ट कर दीं। विभाग ने उन पर केस कर दिया और पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया।
जेल होने पर भड़क उठे लोग
पर्यावरण संरक्षण को लेकर शुरू हुये चिपको आन्दोलन के दौरान कुलभूषण उपमन्यु ने एक के बाद एक कई जगह आन्दोलन खड़े कर दिये। सरकारी नर्सरियां नष्ट करने के लिए उन्हें वर्ष 1988 में तीन साथियों के साथ जेल में बन्द कर दिया।
उनके जेल जाने से यह पर्यावरण संरक्षण आंदोलन और भड़क गया और सरकार डर गई। कुलभूषण उपमन्यु ने चीड़ और सफेदे की जगह पशुओं और कृषि के लिये फायदेमन्द चौड़ी पत्ती वाले पौधे लगाने की वकालत की।
कोयला माफिया से टक्कर
कुलभूषण उपमन्यु दो महीने तक जेल में रहे। जेल से बाहर आते ही उन्होंने आन्दोलन को धार दी और तेज किया। क्षेत्र में सरकारी और अवैध कोयला भट्ठियों बंद करने की मुहिम छेड़ दी।
लोगों से मिल कर उन्होंने कोयला माफिया से टक्कर ली और सारी भट्ठियां उखाड़ दीं। इसकी विस्तृत रिपोर्ट बनाकर सरकार को भेजी, तो सरकार की टीम ने मौके का जायजा लेकर यह कारोबार करने वालों को जुर्माना किया।
हरे पेड़ों के कटान पर रोक
कुलभूषण उपमन्यु ने ‘हिमालय बचाओ समिति’ का गठन कर पंचायती राज को मजबूत करने और देश की वन नीति बदलवाने के लिये आन्दोलन शुरू किया।
वर्ष 1998 में सरकार को जॉइंट फॉरेस्ट मैनेजमेंट का सुझाव देते हुए फॉरेस्ट पॉलिसी के रिव्यू के लिये दबाव बनाया। सरकार ने नीति में दो बड़े बदलाव किये।
प्रदेश में हरे पेड़ों के कटान पर प्रतिबन्ध और कृषि योग्य भूमि व प्राकृतिक वनों में चीड़ व सफेदे के रोपण पर रोक लगा दी। ओक के पेड़ का इस्तेमाल कर कोयला बनाने पर भी रोक लगा दी गई।
पेड़ों को राखियां बांधने वाला संत
हरे पेड़ों को बचाने के लिए कुलभूषण उपमन्यु ने हिमाचल प्रदेश में पड़ों को राखी बांधने का अभियान छेड़ा। उन्होंने हिमाचल प्रदेश में बड़े हाइड्रो प्रोजेक्टों के निर्माण से होने वाले नुकसान के विरोध में जनान्दोलन छेड़ा और विस्थापित लोगों के पुनर्वास और उनके वनाधिकार के लिये लड़ाई लड़ी। वे कई नीतियों में बदलाव करवाने में कामयाब रहे।
वे हिमालय के लिये अलग विकास मॉडल और नीति की लड़ाई लड़ रहे हैं। ग्राम सभाओं को मजबूत करने व ग्राम आधारित रोजगार के लिए भी आन्दोलनरत हैं।
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