लैंप : कभी अंधेरे से लड़ी लड़ाई, अब वजूद पर बन आई 

लैंप : कभी अंधेरे से लड़ी लड़ाई, अब वजूद पर बन आई 
लैंप

पवन चौहान/ महादेव

यह वह समय था जब मनुष्य ने पत्थर से आग जलाना सीख लिया था। इस आग मनुष्य को अंधेरे से लड़ने की ताकत दे दी थी। कई पड़ावों को पार करते हुए फिर वह समय भी आया जब मिट्टी का तेल घर-घर तक पहुंचने लगा।

इसी कड़ी में मनुष्य ने अंधेरे से लड़ने का एक बेहतर विकल्प खोज निकाला। यह वह विकल्प था जो उसे लंबे समय तक रोशनी देता जाता था, बिना किसी ज़्यादा मेहनत-मशक्त के। जी हां, विकल्प था लैंप।

हैसियत के मुताबिक लैंप

लैंप में मिट्टी का तेल डाल दिया जाता था जो रात भर जलता रहता था और मनुष्य को अंधेरे से बचाता था। ये कई प्रकार के थे। इसके स्वरूप, उसके आकार-प्रकार में अपनी सुविधानुसार समय के हर अंतराल में परिवर्तन होता रहा।

अपनी-अपनी हैसियत के अनुरूप राजा, महाराजाओं ने कई प्रकार की धातुओं के लैंप बनवाए, जिनकी आकृतियां सबको आकर्षित करती हैं।

आम आदमी का टीन का लैंप

आम जनमानस के पास टीन वाला लैंप ज़्यादा प्रचलित रहा। यह शंक्वाकार तो था ही, गोल दवात की तरह भी होता था। इसके साथ ही जब कांच की बोतल आई तो उसे भी मनुष्य ने लैंप के रूप में इस्तेमाल किया।

यह पारंपरिक न होने की दशा में बेहतर और आसान विकल्प था। इसके ढक्कन के केंद्र में एक छेद डालते थे, जहां से धागे या कपड़े की डोरी को पिरोया जाता था।

दवातनुमा लैंप के टॉप से थोड़ा-सा नीचे एक चाबी होती थी, जिसको घुमाकर आप लौ को ज़रूरत के मुताबिक घटा-बढ़ा सकते थे। डोरी कैपिलरी एक्शन प्रक्रिया के तहत तेल को ऊपर की ओर खींचती जाती थी और लैंप रोशन हुए रहता था।

पांच हजार साल पुराना इतिहास

सबसे बाद में इस्तेमाल में आए लैंप सबसे निखरा रूप था।  इसका इतिहास भारत में लगभग 5000 वर्ष से भी पुराना है।

इसके साक्ष्य हमें मोहन जोदड़ो में खदाई के दौरान मिले दीयों के अवशेषों से मिलते हैं। उस समय ये दीये  वर्तमान स्वरूप लिए नहीं थे। यह इनका प्रारंभिक चरण था। दीपक की तरह ही थे।

पहले लकड़ी जला कर होती थी रोशनी

पहले पत्ते, लकड़ी आदि को जलाकर रोशनी का इंतज़ाम किया जाता था, लेकिन, इसकी रोशनी को ज़्यादा देर तक संभाल पाने के लिए उन्हें बहुत मशक्कत करनी पड़ती थी।

फिर समयानुसार इस परेशानी का हल निकाला गया, पत्थर के दीपक बनाकर। पक्के पत्थर को तराशकर उसे हल्के गहरे कटोरे की तरह आकृति देकर उसमें चर्बी या वनस्पति तेल डालकर जलाया जाने लगा। फिर तो क्या कहने थे।

कदम-दर-कदम विकसित हुआ दीपक

उसके बाद यह दीपक हमें कदम-दर-कदम विकसित रूप में मिलता गया। पत्थर के साथ लकड़ी और मिट्टी आदि के दीपक बनाए गए।

लकड़ी के दीपक ज़्यादा कामयाब नहीं थे, क्योंकि इनमें आग लगने का खतरा हमेशा बना रहता था। यह दीपक एक स्थान पर रखने के लिए तो सही था, लेकिन यदि रोशनी के लिए इसे जलते हुए ही यहाँ-वहाँ ले जाना पड़ता तो तेल से भरे इस दीपक की संभाल बहुत मुश्किल होती थी।

दीपक की कमी को पूरा किया

इसी कमी को पूरा किया लैंप ने लैंप एक बंद आकृति लिए हुए था। इसमें तेल अंदर ही सुरक्षित रहता था। रोशनी के लिए इसे एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने में भी ज़्यादा परेशानी नहीं होती थी।

इससे बहुत मदद मिलने लगी थी। फिर धीरे-धीरे यह दिनचर्या का एक पक्का साथी बन गया ।

वरदान से कम नहीं

इससे  हर कार्य करने के लिए मनुष्य को ज़्यादा समय मिला। नहीं तो रात होते ही सब कार्य रुक जाते थे और व्यक्ति उन कार्यों को करने के लिए सुबह का इंतज़ार करता रहता था। पढ़ाई करने वालों के लिए तो यह एक वरदान जैसा था। लैंप को मिट्टी के तेल से ही जलाया जाता था।

वैसे कड़वे तेल का भी इस्तेमाल करते थे, लेकिन यह बहुत खतरनाक हो जाता था। इससे बनने वाली गैस कई बार लैंप को फाड़ देती थी।

इसलिए इसका उपयोग सिर्फ खुले में रखे तेल के दीये के रूप में ही ज़्यादा किया जाता था। इमरजेंसी के तौर पर ही सिर्फ इस कड़वे तेल के दीये का इस्तेमाल किया जाता था।

ताजमहल के रॉयल गेट पर रोशन

इसके बारे में एक रोचक जानकारी हमें आगरा के ताजमहल से भी मिलती है। ताजमहल के रॉयल गेट पर सौ वर्ष से पुराना चार फुट लंबा ब्रास का भारी-भरकम लैंप लगा है।

ऐसा ही दूसरा लैंप शाहजहाँ और मुमताज की कब्रों के ऊपर भी लगाया गया है। इन लैंपों को अंग्रेजी शासनकाल में वायसराय लार्ड कर्जन ने वर्ष1908 में यहां भेंट किया था। इसे कर्जन ने विशेष रूप से ताजमहल के लिए तैयार करवाया था।

चिढ़ाने के लिए ‘लंप’ का संबोधन

हिमाचल की मंडयाली बोली में ‘लंप’ भी कहा जाता है। यह शब्द किसी व्यक्ति को चिढ़ाने के लिए भी इस्तेमाल में लाया जाता है। यदि कोई व्यक्ति किसी बात को आसानी से, बार-बार बताने पर भी न समझे तो उसे अमूमन यह कहते हैं, ‘यार तू भी क्या लंप है!’ वर्तमान में भी इसे इस संदर्भ में किसी को छेड़ने के लिए इस्तेमाल में लाया जाता है।

इतिहास के आइने में रोशनी का सफर

मंडी के बुजुर्ग कृष्ण चंद जी कहते हैं, ‘लैंप का आना जैसे खुशियों के आने जैसा था। हम बहुत सारे कार्य इसकी रोशनी में निपटा देते थे। सबसे अच्छी बात, हमारे समय के पढ़ने वालों के लिए तो यह एक वरदान जैसा था।’

कहीं यदि हमें आज यह लैंप नज़र आ जाता है तो हमें उस दौर की याद को ताज़ा करवा देता है, जब मनुष्य ने इस हल्की सी रोशनी के सहारे अपनी बहुत सी परेशानियों और भविष्य की आवश्यकताओं को पूरा किया था और अपने जीवन की लड़ाईयों को जीता था।

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