कुहल्स ऑफ कांगड़ा: दुनिया का बेस्ट कम्यूनिटी मेनेजमेंट मॉडल

कुहल्स ऑफ कांगड़ा: दुनिया का बेस्ट कम्यूनिटी मेनेजमेंट मॉडल
Kuhls of Kangra

विनोद भावुक/ धर्मशाला  

 कुहल्स ऑफ कांगड़ा : हिमाचल प्रदेश के  कांगड़ा जिला में सिंचाई के लिए दुनिया का सबसे बेहतरीन सामुदायिक प्रबंधन मौजूद रहा है। स्टेट युनिवर्सिटी कैलिफोर्निया के सहायक प्रोफेसर एवं एनवायर्नमेंट एंड काम्युनिटी कॉर्डिनेटर जे मार्क बार्कर ने ‘कुहल्स ऑफ कांगड़ा‘ में  सिंचाई व्यवस्था  के लिए पश्चिमी हिमालय में सामुदायिक प्रबंधन में इस बात का खुलासा किया है।

बार्कर के अध्ययन के मुताबिक कांगड़ा जिला में सिंचाई के लिए दुनिया की सबसे बेहतरीन सामुदायिक व्यवस्था थी, जिसके लिए सरकारी एजेंसियों को कोई पैसा खर्च नहीं करना पड़ता था। किसान परिवार खुद कुहलों का रखरखाव करते थे और खेत तक पानी पहुंचाते थे।

कुहल्स ऑफ कांगड़ा : सिंचाई का सबसे बड़ा साधन

बार्कर ने न्यूगल वाटर शेड के आधार पर किए अपने कुहल्स ऑफ कांगड़ा अध्ययन में कहा है कि 1897 में कांगड़ा जिला में शत- प्रतिशत सिंचाई व्यवस्था कूहलों पर आधारित थी।
Kuhls of Kangra

बार्कर ने न्यूगल वाटर शेड के आधार पर किए अपने कुहल्स ऑफ कांगड़ा अध्ययन में कहा है कि 1897 में कांगड़ा जिला में शत- प्रतिशत सिंचाई व्यवस्था कूहलों पर आधारित थी। कांगड़ा और पालमपुर तहसीलों में कूहलों से सबसे ज्यादा सिंचाई होती थी।

2007 में पूरे किए अपने शोध कार्य कुहल्स ऑफ कांगड़ा में बार्कर ने कहा है कि अभी भी जिला में 95 प्रतिशत सिंचाई व्यवस्था कूहलों के भरोसे है। उनके अनुसार कांगडा जिला में 750 बड़ी और 2500 छोटी कूहले हैं और 30 हजार हैक्टेयर भूमि की सिंचाई की जाती है।

बेहतर थी कुहलों की सामुदायिक व्यवस्था

बार्कर का कुहल्स ऑफ कांगड़ा में कहना है कि साल 1970 से पहले सामुदायिक प्रबंधन से कूहलों का रखरखाब होता था और अधिकतर कूहलों की स्थिति बेहतर थी।
Kuhls of Kangra

बार्कर का कुहल्स ऑफ कांगड़ा में कहना है कि साल 1970 से पहले सामुदायिक प्रबंधन से कूहलों का रखरखाब होता था और अधिकतर कूहलों की स्थिति बेहतर थी।

1970 में प्रदेश के सिंचाई एवं जन स्वास्थ्य विभाग ने सिंचाई व्यवस्था का जिम्मा संभाला, जिसके चलते सिंचाई का यह सामुदायिक प्रबंधन कमजोर होता गया।

कोहली  को जिम्मे पानी का बंटवारा

बार्कर ने अपने कुहल्स ऑफ कांगड़ा अध्ययन में इस बात का भी खुलासा किया है कि कांगड़ा में कूहलों के रखरखाब का जिम्मा कोहली के ऊपर होता था।
Kuhls of Kangra.

बार्कर ने अपने कुहल्स ऑफ कांगड़ा अध्ययन में इस बात का भी खुलासा किया है कि कांगड़ा में कूहलों के रखरखाब का जिम्मा कोहली के ऊपर होता था। कूहलों की सफाई और मरम्मत के लिए कोहली ही किसानों को सूचित कर समय-समय पर उनकी देखभाल करता था।

इसके साथ कोहली ही कूहलों के पानी का बंटवारा करता था। इसकी एवज में कोहली को हर फसल पर किसानों से अनाज मिलता था।

आस्था और सामाजिक सदभाव का प्रतीक कूहलें

बार्कर के अध्ययन कुहल्स ऑफ कांगड़ा के मुताबिक कांगड़ा जिला में सिंचाई के लिए कूहलों के प्रबंधन की सामिदायिक सिंचाई व्यवस्था जहां लोगों की आस्था से बंधी थी, वहीं, इस प्रबंधन के चलते लोगों का सामुदायिक सदभाव भी मजबूत था।

जब भी कूहल में पानी बांधा जाता था तो कोहली पहले पानी और कूहल की पूजा करता था । इस अवसर पर कूहल में पानी बांधने आए लोगों को प्रसाद बांटा जाता था।

आखिरी सांसें ले रहीं अधिकतर कुहलें

कुहल्स ऑफ कांगड़ा के मुताबिक जब कभी कांगड़ा में कूहलों का निर्माण हुआ था तो उस समय हर खेत तक कूहलों का पानी पहुंचता था। जिला में जितनी भी पुरानी कूहलें थी उनमें से अधिकतर कूहलें मरम्मत के अभाव में अंतिम सांसें ले रहीं हैं।

अधिकांश कूहले उजड़ चुकी हैं और जो शेष बची हुई हैं वे भी मुश्किल से 25 प्रतिशत भाग तक ही सिंचाई सुविधा प्रदान कर रहीं हैं। राजस्व विभाग के भूमि रिकॉर्ड की प्रतेक जमाबंदी में सब कूहलें और चौऊ दर्ज हैं।

जिनके माध्यम से भूमि के रिकॉर्ड में जमीन की किस्म अव्वल नेहरी दर्शाई गई है, लेकिन मौके पर कितनी कूहलें और चौऊ नैहरी अव्वल भूमि को सिंचित कर रही हैं सरकार ने ये जानने की कोशिश नहीं की

न विभाग सुधार पाया न मनरेगा से हुआ फायदा

बेशक सिंचाई व्यवस्था का ये जिम्मा अब सिंचाई एवं जन स्वास्थ्य विभाग पर है और मनरेगा के तहत भी कूहलों के रखरखाव के प्रयास हो रहे हैं, लेकिन सच तो ये है कि कांगड़ा, पालमपुर और बैजनाथ की अधिकतर कूहलें अपने जीवन के दुखद दिन  देख रहीं हैं।

सरकार चाहे जितने भी दावे करे लेकिन सच यही है कि सरकार किसानों -बागवानों के प्रति गंभीर नहीं है। सिंचाई व्यवस्था से खिन्न होकर किसान खेतीबाड़ी छोड़ने को मजबूर है और कृषि भूमि बंजर भूमि में तब्दील हो रही है। अधिकतर कूहलें मरम्मत के इंतजार में हैं।

दुनिया भर में पढ़ाया जाता मॉडल

दुनिया में सार्वजनिक परिसंपत्तियों के प्रभावी एवं कुशल सामुदायिक प्रबंधन के बिरले ही उदाहरण मिलते हैं। सार्वजनिक सम्पत्ति के इस सामुदायिक प्रबंधन कुहल्स ऑफ कांगड़ा को विश्व में आदर्श माना गया है।

अमरीका और यूरोप के कई विश्वविद्यालयों में काँगड़ा की कुहलों का विषय समाज शास्त्र और मानवविज्ञान के पाठ्यक्रम में अनिवार्य केस स्टडी के रूप में पढ़ाया जाता है। और कहीं तो अर्थशास्त्र के पाठ्यक्रम में भी पढ़ाया जाता है।

तेज़ी से मिटते कुहलों के विषय पर लोक कवि विनोद भावुक की यह रचना प्रसंगिक है-

धियां- नुआं छलिय़ां कुहलां

मंगदियां आईयां बलियां कुहलां।।

 

देई सनंदरां मंगदियां जातर।

खसम खाणियां जलियां कुहलां।।

 

खुने संदर, कोहली बुडढा।

नी खणोईयां गलियां कुहलां।।

 

बतरां खातर बजियां डोल़ां।

खूब नुहाइयां थलिय़ां कुहलां।।

 

सुकियां खड्डां, मुकियां गल्लां।

तां मिट्टिया रलिय़ां कुहलां।।

 

चैतर महीना लेया सुनाणा।

ढोलरुआं बिच पलिय़ां कुल्हां।।

 

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