जिसदैं हत्थें डोई अम्मा, तिसदा हर कोई अम्मा
पवन चौहान/ महादेव
रसोईघर में आज आधुनिक तकनीक से तैयार तरह-तरह की धातुओं से बने बर्तन मौजूद हैं, जो अपनी चमक-दमक, आकार-प्रकार व सुंदरता से रसोईघर को एक नई लुक प्रदान करते हैं। इन सभी बर्तनों के बीच हमें आज भी डोई मिल जाती है, जो सदियों से अपनी पहचान बनाए हुए वर्तमान और भूतकाल की खाई को पाट रहा है।
हां, हम बात कर रहे हैं डोई की। डोई अर्थात् पूर्णतया लकड़ी से बना कड़छीनुमा बर्तन। डोई को ‘चटुआ’, ‘छातु’, ‘हेता’, ‘करछुल’, ‘डोए’ , ‘पुञ’, ‘चाटु’ आदि कई नामों से भी पुकारा जाता है।
डेढ़ से दो फुट लंबी होती है डोई
कड़छी के आकार के इस बर्तन की लम्बाई आमतौर पर डेढ़ फुट तक रहती है। आगे से इसका मुख अर्धगोलाकार होता है, जिसका आंतरिक व्यास लगभग अढ़ाई से तीन इंच तक होता है। इसको बनाने के लिए मुख्यतः खड़क या अंजीर की लकड़ी का ही प्रयोग किया जाता है क्योंकि इन पेड़ों की लकड़ी का स्वाद कड़वा नहीं होता।
डोए बनाने के लिए तीन से चार घंटे का समय लग जाता है। इन पेड़ों से निकाले गए लकड़ी के टुकड़े को डोए बनाने वाला कारीगर बहुत ही बढ़िया तरीके से एक कड़छी का रूप प्रदान करता है। जिसमें बढ़िया बनावट और सुंदरता का समावेश रहता है।
कड़छी से पहले थी डोई की हुकूमत
डोई का उपयोग मुख्यतः साग को घोटने के लिए किया जाता है। बुजुर्गों के अनुसार-‘जब तक धातु बनी कड़छी इस्तेमाल में नहीं थी तब तक कड़छी का पूरा कार्य डोए ही करती थी। डोए का मुंह मोटा और चौड़ा होने के कारण इससे जहा साग घोटने पर जल्दी बारीक हो जाता है वहीं बड़े दानों वाली दालों को बारीक करने में भी यह अहम भूमिका निभाती है।
आज बेशक कुकर द्वारा साग या दालें बनाने का काम आसान हो गया है, लेकिन बावजूद इसकेडोए का इस्तेमाल साग को घोटने के लिए पहले की तरह ही होता है। लोक गीतों व कहावतों में डोई जहां रसोई की शान है, वहीं हिमाचल के लोक गीतों में भी डोई का वर्णन देखा जा सकता है।
हंसी-मज़ाक के लिए डोई का प्रयोग
ब्याह-शादी या अन्य खुशी के कार्यक्रम में भी डोई का प्रयोग ‘लाहणियों’ (गीतों के माध्यम से हंसी-मज़ाक की प्रकिया) के जरिए बारातियों या अन्य रिश्तेदारों को चिढ़ाने के लिए बखूबी किया जाता है।
एक अंदाज़ देखिए- ‘काजला री देणी ओइया, इन्हा बारातिआ रे पीछे बान्हणी डोइआ’। मंडी की बोली की एक कहावत में डोए का बखान कुछ इस तरह से भी होता है- ‘जेसरे हाथा डोए, तेरा हर कोए’।
पहले के समय में डोई से बोटी डोए से साग को घोटती महिला शादी या अन्य कार्यक्रमों में दाल-सब्जी बाँटता था । यह उसके हाथ में होता था कि वह किसको ज़्यादा या कम दे। इसलिए खाने बैठने वाले लोग बोटी का सम्मान करते थे।
गांवों में आज भी वजूद
गांव में डोए आज भी हर घर में इस्तेमाल में लाई जाती है। लोग मानते हैं कि साग का स्वाद इसके बिना नहीं है। यह बात सच है। साग और डोई का तो चोली-दामन का साथ है।
आधुनिक तकनीक से लैस गांव के रसोईघरों में वही सदियों पुरानी डोई आज भी अपना अस्तित्व बनाए हुए है। यह सिलसिला चलता ही जाएगा क्योंकि जब भी घर में साग बनेगा तो हमारे हाथ खुद व खुद डोए को थामने के लिए चल पड़ेंगे।
डोई पर विनोद भावुक की एक कविता
जिसदैं हत्थें डोई अम्मा।
तिसदा हर कोई अम्मा ।।
बड्डी नुंह टब्बरे खातर।
सारी उम्र फनोई अम्मा।।
ब्याह कारजां सबतों प्हलैं।
करें अप्पू चाराजोई अम्मा।।
पुतरां लाये बखरे चुलड़ू।
गुगल़घुटुआं रोई अम्मा।।
गर्म खंदोलू सबना तांई।
अप्पू सेन्ना सोई अम्मा।।
नुआं सैह चनारा साई।
सुकी पुघी ओई अम्मा।।
नी तां पुज्जा पुतर कोई।
बुरिया जून्ना मोई अम्मा।।
गहरिया निंदरा सोई अम्मा।
कुनकी लेई खोई अम्मा।।
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