देवरथ : लोक देवताओं की शान की सवारी
कमल के प्यासा/ मंडी
देवता के दरबार में लोग ही नहीं आते, देवता भी देवरथ पर सवार होकर लोगों के घर पधारते हैं। हिमाचल प्रदेश की देव संस्कृति भी पर्यटकों को मोह लेती है, क्योंकि यहां की संस्कृति से उन्हें कई चमत्कारी व अनोखी बातों को जानने-समझने का अवसर मिल जाता है। यहां का सारा लोक जीवन लोक देवताओं से जुड़ा रहता है।
यहां के सभी तरह के मेलों, तीज- त्यौहारों व शादी-ब्याह में लोक देवताओं का विषेश महत्व बना रहता है। लोक देवताओं की शान की सवारी उनका देवरथ होता है। वे अपने गुर के माध्यम से आम जनता से बातचीत करते हैं। देवता का रूठना- मनाना सभी चमत्कार की ही तो बातें हैं।
कुल्लू में पहियों वाले देवरथ
लोक देवताओं के प्रस्थान के साधनों में पहिये वाले देवरथ तथा बिना पहिये वाले देवरथ प्रयोग में लाए जाते हैं। पहिये वाले रथों का प्रयोग केवल जिला कुल्लू के कुल्लू तथा मनीकर्ण में ही होता है।
कुल्लू में भगवान रघुनाथ की अष्टधातु की प्रतिमा को रख कर रथ को रस्सों से खींचा जाता है। दूसरा छोटा लकड़ी का रथ मनीकर्ण में भी दशहरे वाले दिन इसी प्रयोजन के लिए प्रयोग किया जाता है।
ऐसे होती है रथों की बनावट
शीर्ष भाग:
देवरथ के ऊपरी हिस्से के आधार पर रथ की शैली का भी नामकरण किया जाता है। शीर्ष में सबसे ऊपर लोक देवता का छत्र होता है। यह छत्र सोने-चांदी का बना होता है। छत्र के नीचे देवता की शैली के अनुसार मंडप, छत्तरी, पग्ग व त्रिकोण होता है।
मध्यभाग:
देवरथ के सभी मोहरे सजे रहते हैं। इनकी संख्या एक से लेकर नौ तक होती है। त्रिकोण शैली के रथों में मोहरों की संख्या 16 तक पहुंच जाती है। जेठा मोहरा बड़ा व सामने लगा होता है। इसी मोहरे के गले में सोने-चांदी के हार भी पहनाए जाते हैं, जिसके साथ चानणी भी लगी रहती है। इसके अतिरिक्त डोडा माला भी देवता के शृंगार का विषेश अंग रहती है।
निम्न भाग:
देवरथ का नीचे का हिस्सा आ जाता है, जिसे कपड़े से ढांपा हुआ होता है। इसके साथ ही साथ देव रथ को उठाने वाली बल्लियां (अर्गलें) भी इसी हिस्से में आती हैं। कमर वाले इसी भाग में चांदी के सिक्कों का हार भी चोलू पर सजा रहता है।
खास लकड़ी का प्रयोग
देवरथ का समस्त आंतरिक भाग विशेष प्रकार की लकड़ी से तैयार किया जाता है, जिसमें अखरोट, शिंहा या तुन्ही की लकड़ी की विशेष भूमिका रहती है।
सबसे नीचे वाले भाग में एक पटड़े पर चारों तरफ एक-एक स्तंभनुमा लकड़ी लगी होती है, जिसे थम्मलू कहते हैं।
चारों थम्मलुओं के शीर्ष भाग कपड़े से बाहर निकले रहते हैं तथा इन्हें सोने-चांदी की पत्ती से सजाया जाता है। इन्हें जान्हू या गुड्डियों के नाम से पुकारा जाता है।
खरशु मोहरा की बल्लियां
देवरथ के नीचे वाले पटड़े के ऊपर फिर थम्मलुओं के साथ एक पटड़े की तरह का फटा लगाकर जो डिब्बानुमा ढांचा बन जाता है, उसे कोठरू कहा जाता है।
कोठरू के ऊपर एक अन्य आयताकार लकड़ी का लंबा टुकड़ा लगा होता है, जो ऊपर जाकर शीर्ष भाग को सुरक्षित रखता है तथा इसके मध्य चपटे भाग में मोहरे लगे होते हैं।
इसी कोठरू की बाहर की ओर से उठाने वाली लंबी-लंबी बल्लियां (अर्गलें) लगी रहती हैं। ये बल्लियां लचकदार लकड़ी की बनी होती है, इन्हें राघली के नाम से भी जाना जाता है।
सराज, करसोग में मंडप शैली
मंडप शैली के देवरथ कुल्लू व आस- पास के क्षेत्र सैंज तथा मंडी के सराज व करसोग में देखे जा सकते हैं। मंडप शैली के देवरथ का शीर्ष भाग गोलाकार होता है। इसी गोलाकार भाग के ऊपर कहीं-कहीं सोने व चांदी के छत्र भी सजे होते हैं।
अंदर से यह गोलाकार आकृति लकड़ी के ढांचे से ही जुड़ी रहती हैं तथा शेष सारे का सारा भाग खोखला होता है। सोने, चांदी, पीतल या तांबे का बना यह गोलाकार भाग बाहर से सुंदर मखमल कपड़े से भी जड़ा होता है।
गोलाकार मंडप के आधार की ओर एक पट्टी बनी होती है जोकि मंडप को मजबूत करती है। इसी आधार पट्टी के नीचे चारों ओर एक-एक सुंदर लटकती झालर भी देखी जा सकती है। इन्हें धुमक या गुंभक कहा जाता है।
सैंज में छतरी शैली
इस शैली के देवरथ में रथ का शीर्ष भाग छत्तरी की तरह फैला होता है। इस भाग को टोप भी कहा जाता है। समस्त छत्तरी का आंतरिक ढांचा विशेष प्रकार की लकड़ी से तैयार किया जाता है, जिसे बाद में सुंदर कपड़ों से ढांपकर सुसज्जित कर दिया जाता है।
छत्तरी के सामने वाले भाग को सुसज्जित करने के लिए फिर से कपड़े का आवरण चढ़ाया जाता है। इस शैली के देव रथ कुल्लू के सैंज तथा मंडी के करसोग क्षेत्र में भी देखे जा सकते हैं।
चौहार और बालीचौकी में पगड़ी शैली
पगड़ी शैली के देवरथ का शीर्ष भाग पगड़ी की तरह होता है। पग्ग शैली के भी दो प्रकार होते हैं। साधारण पग्ग शैली तथा गुच्छम गुच्छा पग्ग शैली। साधारण पग्ग शैली के देवरथों का शीर्ष भाग सीधा कपड़ा लपेटकर तैयार किया गया होता है।
गुच्छम गुच्छा शैली के देवरथों में कपड़े को ठूस-ठूस भर कर शीर्ष भाग को तैयार किया जाता है, जिससे पग्ग का कपड़ा गुच्छों की तरह दिखाई देने लगता है। इस शैली के देवरथ सैंज, चौहार, बालीचैकी व चच्चोट में देखे जा सकते हैं।
त्रिकोण शैली में देवियों के रथ
इस शैली के रथों का शीर्ष तथा मध्य भाग त्रिकोण आकार में होने के कारण ही यह शैली त्रिकोण शैली के नाम से जानी जाती है।
मंडी क्षेत्र में इस शैली के अधिकतर रथ देवियों से ही संबधित होते हैं। इस शैली के दो प्रकार हैं। ढलवां त्रिकोण शैली व खड़ी-सीधी त्रिकोण शैली। खड़ी त्रिकोण शैली में देवी रथ आते हैं, जबकि ढलवां त्रिकोण शैली में देव रथ भी आते हैं।
अलग ढंग से होती सजावट
त्रिकोण शैली के देवरथों में मोहरों की सजावट भी अलग ढंग से की जाती है, जिनमें एक मोहरे से लेकर 16-16 तक मोहरे होते हैं। इनके साथ-साथ सोने-चांदी के छत्र भी कहीं-कहीं देखने को मिलते हैं।
मुख्य शीर्ष छत्र के साथ दांए-बाएं छोटे-छोटे छत्रों के साथ-साथ नीचे मध्य व निम्न भाग में भी चार-पांच छत्र लगे होते हैं। ढलवां त्रिकोण शैली के देवरथ मंडी, कुल्लू व शिमला के कुछ भागों में देखे जा सकते हैं।
यहां के रथों की खास पहचान
छोटी लंबाई की राघली वाले देवरथ शिमला, महासू, सिरमौर, सोलन व शिमला के साथ लगने वाले क्षेत्र मंडी के करसोग में भी देखे जा सकते हैं। शिमला के ऊपरी व किन्नौर क्षेत्र वाले रथों की बनावट में भारी अंतर दिखाई देता है तथा इनमें ढलान ज्यादा होती है।
किन्नौर क्षेत्र के देवरथों में काफी परिवर्तन देखने को मिलता है। यहां रथ के ऊपरी शीर्ष गोलाकार भाग के छत्र के चारों ओर इतने लंबे और काले बाल होते हैं कि रथ के देवता का चेहरा भी छिप जाता है।
लाहौल की अपनी खास शैली
लाहुल क्षेत्र के देवरथों के शीर्ष भाग में सोने-चांदी का छत्र सजा रहता है। मध्य भाग में केवल देव मोहरा होता है, जोकि विभिन्न रंग-बिरंगे कपड़े लपेट कर गोलाकार बना दिया जाता है।
इस तरह मोहरा पूर्ण रूप से कपड़े से ढांप दिया जाता है। ढंपे हुए इसी गोलाकार मोहरे पर लोग कपड़े चढ़ाते हैं। देवरथ के शीर्ष भाग को जो व्यक्ति अपने कंधों पर उठाता है, उसे हरूक कहा जाता है।
देवरथ को जब भूमि पर रखा जाता है तो इसके ठहराव के लिए वाई आकार की सहारा देने वाली विशेष लकड़ी का प्रयोग किया जाता है, जिसे ब्रंच कहा जाता है।
विशेष रथ से घाटी का दौरा
देव घेपन के इसी प्रकार के देवरथ में एक अन्य छोटा सा मोहरा देवी माता घेपन का नीचे की ओर लगा होता है, जो दिखाई भी देता है। इस प्रकार के रथ को उठाने के लिए केवल मात्र एक ही बल्ली (राघली) का प्रयोग होता है तथा लाहुल में इस बल्ली को चर्र के नाम से संबोधित करते हैं।
यह चर्र रंग-बिरंगे कपड़ों से सजी होती है तथा इन रंग-बिरंगों कपड़ों को यद कहा जाता है। चर्र के दूसरे सिरे का दूसरा हरूक रथ को उठाने को लगाता है।
देव घेपन जोकि जमलूदेव का छोटा भाई बताया जाता है, सारी लाहौल घाटी का चक्कर अपने इसी विशेष प्रकार के रथ से ही लगाता है तथा इसी रथ के साथ अपने भाई जमलू देव से मिलने मलाणा भी जाता है।
देव पालकी की अपनी पहचान
यात्राशील देव पालकी भी प्रदेश के कई भागों में आम प्रचलित है। देव पालकी को दो प्रकार से देखा जा सकता है। साधारण मूर्ति पालकी व देव मोहरा पालकी।
साधारण पालकी आयताकार आकार में बनी लकड़ी की पालकी होती है। ऐसी पालकी के चारों ओर लकड़ी को सुंदर तराश करके रोक लगाई जाती है। पालकी के पीछे की रोक दाएं-बाएं व आगे की रोक से ऊंची होती है।
पालकी की छत्त भी दो प्रकार की होती है। पिरामिडाकार छत्त तथा स्पाट छत्त। दोनों तरह की पालकियां सुंदर कपड़ों, छत्रों, फूलों व हारों से सजी रहती है।
पालकी में सवार होते हें माधोराय
मंडी के माधव राव की पालकी में अष्टधातु की राज माधव की प्रतिमा रखी जाती है। यह पालकी शिवरात्रि और होली पर्व पर शहर की परिक्रमा के लिए निकाली जाती है।
माधव राव की अष्टधातु की इस प्रतिमा के आधार पर प्रतिमा के निर्माण करने वाले सुनार का नाम व निर्माण वर्ष भी अंकित किया गया है।
इसी तरह की पालकी कुल्लू के सुल्तानपुर से ढालपुर में देव रघुनाथ को पहुंचाने के लिए भी प्रयोग में लाई जाती है। जिला सिरमौर में परशुराम की प्रतिमा वाली पालकी निकाली जाती है। सिरमौर की मां शारदा की पालकी में देवी के मुखौटे के साथ ही प्रतिमा भी चलती है, लेकिन गांव धरोटी से केवल मुखौटा ही चलता है।
मांसाहारी व शाकाहारी पालकी
देवी पालकी का चलन शााकाहारी या मांसाहारी के रूप में भी जाना जाता है। शाकाहारी पालकी की यात्रा में किसी प्रकार का मांसाहारी भोजन का आहार नहीं चलता, जबकि मांसाहारी यात्रा में देवी को बलि चढ़ाई जाती है तथा साथ जाने वाले लोग मांसाहारी भोजन का सेवन ही करते हैं।
मांसाहारी यात्रा हर तीसरे वर्ष में आती है, जबकि शाकाहारी यात्रा वार्षिक रहती है। पालकी में मूर्तियों की संख्या 6-7 तथा मुखौटे 3-4 होते हैं सुंदरनगर में महामाया देवी की प्रतिमा को भी पालकी में (नलवाड़ मेले) में निकाला जाता है।
निरमंड कुल्लू में परशुराम की पालकी निकाली जाती है और इसी तरह से चंबा में भी देव पालकी मिंजर मेले में निकलती है।
देव मोहरा पालकी
ऐसी पालकी साधारण पालकी से थोड़ी भिन्न होती है। इस प्रकार की पालकी में रथ और पालकी दोनों तरह की रचना शमिल रहती है। इस प्रकार की देव मोहरा पालकियां किन्नौर व शिमला के ऊपरी क्षेत्रों में देखी जाती है। इनमें मूर्तियों के स्थान पर देव मोहरे स्थापित रहते हैं।
करंडू में आते हैं देवता
देवरथ से पूर्व देव मोहरे एक स्थान से दूसरे स्थान पर कंडुओं के माध्यम से पहुंचा करते थे। करंडू एक बांस की बनी पिटारीनुमा टोकरी को कहा जाता है, जिसमें देवता के मोहरे के साथ चावल, गेहूं व कपड़ा भी रखा जाता है।
देव करंडू भी दो प्रकार के होते हैं। हाथ से उठाए जाना वाला करंडू व सिर पर रखने वाला करंडू। हाथ से उठाए जाने वाले करंडू को अर्धवृत्ताकार बांस के बने हत्थे से उठाया जाता है, जबकि सिर पर उठाए जाने वाले करंडू में कोई हत्था नहीं होता है। ऐसे करंडू वाले देवता देव जमलू, नीरू थाची, मंडी की शिवरात्रि में शामिल होते हैं।
मोहरों के रूप में आते देवता
मंडी के देव कमरू नाग देवता का सूर्य पंखा ही देवता का प्रतिनिधि है और वही उनकी उपस्थिति देता है। शिवरात्रि में देव कमरूनाग का सूर्य पंखा ही टारना मंदिर पहुंच कर कमरूनाग की उपस्थिति देता है।
देव कमरूनाग, जिन्हें भगवान विष्णु का स्वरूप माना जाता है कि स्पष्ट आकृति इसी सूर्य पंखे में अंकित मिलती है। पत्ते के आकार वाला यह पंखा सोने व चांदी का बना है। सोने वाले हिस्से के मध्य में भगवान विष्णु को बैठी मुद्रा में दिखाया गया है।
भादों मास में देव गुग्गा के प्रतिनिधि लोहे की छड़ी को उठाकर घर-घर पहुंचते हैं। गुग्गारूपी लोहे की इस छड़ पर लाल डोरी, लोहे के कड़े व शीर्ष पर लाल रंग की झंडी लगी रहती है। कांगड़ा क्षेत्र में छड़ी के साथ चुडिय़ां भी लगी रहती है।
भादो मास में ही (राधा अष्टमी) को चंबा से देव चरपट नाथ की छड़ी राजघराने से मणिमहेश यात्रा पर जाती है। मंडी के नारायण गढ़ के जमलू देव की चांदी की छड़ भी शिवरात्रि मेले में शाामिल होकर देव का प्रतिनिधित्व करती है।
छाती से बांध दिया जाता मोहरा
जिला सिरमौर में पालकियों के साथ-साथ देव मोहरों को मानव के साथ भी एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाते हुए देखा जा सकता है।
देव मोहरा व्यक्ति के शरीर अर्थात छाती से बांध दिया जाता है, जिसके लिए कमीज रूपी बंदक का प्रयोग किया जाता है। देव मोहरा ले जाने वाला यह व्यक्ति गणिता कहलाता है।
गणिता अपनी सारी यात्रा देव मोहरे के साथ नंगे पांव करता है। दिन में एक बार स्वयं तैयार किया हुआ भोजन ग्रहण करता है।
देवयात्रा में देव संगीत
तीर्थयात्रा करने वाले देवताओं में शिरगुल महाराज तथा देवता विजिर महाराज हैं। ये दोनों देवता रिश्ते में भाई जाने जाते हैं तथा इनकी सिरमौर के राजगढ़, सराहां तथा शिमला में बड़ी मान्यता है।
तीर्थयात्रा के दौरान शिरगुल देवता का प्रथम ठहराव राजगढ़ के गुरु ऐतवारनाथ मठ (मंदिर), ठोर कोलन में, दूसरा रेणुका में तथा अंतिम पड़ाव चूडधार में होता है। देवताओं की यात्रा के दौरान ढोली, नगारची, हेसी, करनालची, नरसिंहगची शामिल होते हैं।
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