धरोहर : भगवान परशुराम ने बसाया निरमंड
मनोज चौहान/ रामपुर बुशहर
कुल्लू का सबसे बड़ा ऐतिहासिक गांव निरमंड अपनी समृद्ध विरासत और संस्कृति के लिए प्रसिद्ध है। सतलुज की बहती शीतल जल धाराओं के दाईं ओर कुर्पन घाटी के आंचल में बसे निरमंड के नामकरण के बारे में एक रोचक कथा का उल्लेख मिलता है।
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राजा हरीशचंद्र कालीन विश्वामित्र से एक-दो पीढ़ी बाद जन्मे परशुराम (राजा प्रसेनजित की पुत्री रेणुका और भृगुवंशीय ऋषि जमदग्नि के पुत्र) ने जब पिता के आदेश पर अपनी माता का वध कर दिया तो उनका बिना धड़ वाला शरीर इस स्थान पर गिरा।
फलस्वरूप इस स्थान का नाम निरमुंड (बिना सिर वाला) पड़ा और कालांतर में बदल कर निरमंड हो गया। महर्षि परशुराम को विष्णु के दस अवतारों में से छठा अवतार माना जाता है।
माता का सिर काटने को पिता का आदेश
भगवान परशुराम द्वारा अपनी माता रेणुका की हत्या करने के पीछे दंतकथा है कि ऋषि जमदग्नि को नित्य पूजा के लिए जल की आवश्यकता होती थी, जिसकी जिम्मेदारी रेणुका की थी।
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एक दिन नदी में जल लेने गई रेणुका किसी गंधर्व जोड़े की क्रीड़ा देखने के कारण आसक्त हो गईं और उन्हें जल लाने में देर हो गई।
ऋषि जमदग्नि को जब इसका आभास हुआ तो वे क्रोधित हो उठे और उन्होंने अपने ज्येष्ठ पुत्र परशुराम को रेणुका का सिर काटने का आदेश दे दिया।
हत्या का अपराधबोध, निरमंड में तप
पिता की आज्ञा का पालन करते हुए परशुराम ने अपनी माता का सिर काट दिया। इससे प्रसन्न होकर ऋषि जमदग्नि ने उन्हें कोई वरदान मांगने को कहा। परशुराम ने माता को पुन: जीवित करने और माता की स्मृति से उनकी हत्या होने की बात भुलाने का वरदान मांग लिया।
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ऋषि जमदग्नि ने तथास्तु कहकर वरदान पूरा कर दिया, मगर परशुराम माता की हत्या करने से अपराध बोध महसूस करने लगे। इसका प्रायश्चित करने के लिए हिमालय की ओर रुख किया और निरमंड में तपस्या की तथा नर मेघ यज्ञ संपन्न करवाया।
विस्थापितों का पुनर्वास
मान्यता है कि परशुराम ने लगभग 4000 वर्ष पुरानी सरस्वती सिंधु क्षेत्र के विनाश के बाद विस्थापित लोगों को निरमंड में बसाया था, जिनमें वैदिक और तांत्रिक सिद्धियों से परिपूर्ण 500 ब्राह्मण, 60 शिल्पी और 120 कृषक थे।
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तपस्या और यज्ञ वाले स्थान पर उसी समय एक मंदिर का निर्माण किया गया था, जो आज भी उस काल का साक्षी बनकर खड़ा है।
निरमंड की परशुराम कोठी
इस मंदिर को परशुराम कोठी के नाम से जाना जाता है। इसके निर्माण में ज्यादातर लकड़ी का इस्तेमाल किया गया है और इसमें प्राचीन काष्ठ कला का समावेश मिलता है।
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मंदिर के बाहर लगी पट्टिकाओं में वर्णित इतिहास के अनुसार, यह कोठी वैदिक काल से ही दो महानतम आयोजन करती आ रही है, जिसमें इंद्र वृत्र संघर्ष और पुरुष मेघ जैसे मेघी यज्ञ शामिल हैं।
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प्राचीन नाभि कुंड, जो कि बूढ़ी दिवाली एवं भुंडा नाम से विख्यात है। यह दोनों आयोजन ऋग वेद के वर्णनानुसार इस कोठी द्वारा निरमंड में ही मनाए जाते हैं।
कश्मीर की महारानी ने की परशुराम की मूर्ति स्थापित
निरमंड की इस कोठी में भगवान परशुराम समाधिस्थ माने जाते हैं। उनकी त्रिमुखी मूर्ति की स्थापना कश्मीर रियासत की महारानी अगरतला द्वारा करवाई मानी जाती है।
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इस मूर्ति के मुख्य मुंह पर तीसरी आंख के रूप में हीरा जड़ा होने की बात भी सुनने को मिलती है, मगर अब यह हीरा कहां है, ये कोई नहीं जानता।
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परशुराम की इस मूर्ति पर चांदी का मुखौटा भी हुआ करता था, जिसके चोरी होने की बात कही जाती है।
यहां स्पिति के समुद्रसेन नामक शासक के समय का स्वर्ण पात्र भी मौजूद है। इसके अलावा भगवान परशुराम द्वारा प्रयोग में लाई गई सभी चीजों को सुरक्षित सहेज का रखा गया है।
विष्णु भगवान की सबसे पुरानी मूर्ति
मंदिर में जाते ही प्रवेश कक्ष में भगवान विष्णु की पाषाण मूर्ति विराजमान है। स्थानीय विद्वान दिवगंत पंडित पदम चंद कश्यप का मत था कि इस मूर्ति का निर्माण छठी-सांतवी ईसवी में हुआ है।
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विष्णु भगवान की यह मूर्ति हिमाचल प्रदेश में सबसे पुरानी है। चंबा के हरिराय मंदिर की पंचमहातत्व मूर्ति का निर्माण काल ग्याहरवीं शताब्दी में माना गया है।
रेणुका का अवतार माता अंबिका
माता अंबिका का मंदिर इस कोठी से लगभग 500 मीटर की दूरी पर स्थित है। मान्यता है कि माता अंबिका भगवान परशुराम की माता रेणुका का ही अवतार है। इस मंदिर में माता की मुख्य मूर्ति की स्थापना परशुराम द्वारा की गई थी।
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निरमंड गांव के किसी भी रास्ते से चला जाए, वह परशुराम कोठी के पास ही निकलता है। यहां पर अठारह दशनानी, जूना अखाड़ा, दक्षिणी महादेव, लक्ष्मी-नारायण, पुदरी नाग जैसे कई मंदिर है, मगर परशुराम ही गांव के मुख्य आराध्य देव माने जाते हैं।
12 साल बाद खुलते कपाट
मंदिर के अंदर गुफानुमा समाधि स्थल के कपाट सामान्यत: बंद रहते है और 12 साल के अंतराल में होने वाले भुंडा उत्सव के दौरान खुलते हैं।
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इस दौरान परशुराम की त्रिमुखी मूर्ति और उनके द्वारा प्रयोग में लाई गई वस्तुओं को दर्शनार्थ बाहर निकाला जाता है।
ऐसे पहुंचें निरमंड
राष्ट्रीय उच्चमार्ग-5 पर शिमला से लगभग 134 किलोमीटर दूर रामपुर से 5 किलोमीटर पहले बजीर बाबड़ी पुल आता है। इसी पुल को पार करते हुए लगभग 13 किलोमीटर सड़क मार्ग से निरमंड पहुंचा जा सकता है।
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आसपास के दर्शनीय स्थलों में देवढांक, श्रीखंड महादेव, पदम पैलेस, बौध मंदिर, महिषमर्दनी महालक्ष्मी मंदिर, माता भीमाकाली मंदिर, माता श्राईकोटि मंदिर, निरथ का सूर्यनारायण मंदिर, दत्तनगर का स्वामी दतात्रेय मंदिर आदि शामिल हैं।
यात्रा के लिए ये भी हैं विकल्प
राष्ट्रीय उच्चमार्ग-21 (चंडीगढ़-मनाली) से औट नामक स्थान से बंजार और जलोड़ी जोत होते हुए भी यहां पहुंचा जा सकता है।
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शिमला के रास्ते से नजदीकी रेलवे स्टेशन और एअरपोर्ट शिमला है और राष्ट्रीय उच्चमार्ग-21 से औट नामक स्थान से नजदीकी रेलवे स्टेशन जोगिंद्रनगर और नजदीकी एअरपोर्ट भुंतर है।