नाग पंचमी स्पेशल – नागों के चलते फेमस हुए डेस्टिनेशन
विनोद भावुक/ धर्मशाला
हिमाचल प्रदेश में कई स्थानों पर नाग अथवा नागिन के मंदिर हैं, जिनके प्रति लोगों में गहन आस्था है। इन मंदिरों से जुड़ी कई दंतकथाएं सुनाई जाती हैं। प्रदेश के कई स्थानों के नाम तो इन्हीं मंदिरों के कारण ही पड़े हैं।
नाग पंचमी के अवसर पर चलिए मेरे साथ उन स्थानों की सैर को, जिनके नाम नाग- नागिन की उपस्थिति के कारण पड़े। इसमें से कई स्थानों के बारे में तो आप जानते हैं, पर बहुत से स्थान ऐसे भी हैं, जिनके बारे में कम ही लोगों को पता है।
कमरूनाग: कमरुनाग का वास
मंडी ज़िला की चच्योट तहसील में प्रकृति के रमणीय आंचल में स्थित कमरुनाग एक सुरम्य धार्मिक स्थल है। कमरूनाग मूलतः कामरूप असम के नागवंशीय शासक थे, जिन्होंने बाद में मंडी ज़िला के भंगाल क्षेत्र में आ कर शासन किया। कामरूप नागवंशी शासक होने के ही कमरूनाग कहलाते हैं और इन्हीं के नाम पर इनके मंदिर स्थल का नाम कमरुनाग पड़ा।
कमरुनाग महाभारतकालीन वीर योद्धा थे। जब ये महाभारत के युद्ध में शामिल होने के लिए जा रहे थे तो इनकी वीरता के भय से श्रीकृष्ण ने इनका सिर रणक्षेत्र में पहुंचने से पहले ही धड़ से अलग कर दिया था। इस काटे सिर को देखने का वरदान था, जिसके चलते पूरे महाभारत युद्ध को देखा था।
युद्ध की समाप्ति के बाद पांडवों ने इन्हें अपना आराध्य देवता माना और इस पर्वत स्थान पर इनकी प्रतिष्ठा की। पांडवों द्वारा पूजित होने के कारण इन्हें पांडवों का ठाकुर कहा जाता है। कमरूनाग में एक भव्य झील है और झील के किनारे कमरूनाग का मंदिर है। यहां पर आषाढ़ मास की संक्रांति को सरानाहुली मेला लगता है, जिसमें हजारों लोग पवित्र झील में स्नान करते हैं।
भागसू नाग : अलवर के राजा भगसू से जुड़ा प्रसंग
कांगड़ा जिला मुख्यालय से 9 किलोमीटर दूर भागसूनाग एक पवित्र तीर्थ और आकर्षक दर्शनीय स्थल है। इस स्थान के नाम के संदर्भ में एक दंतकथा प्रचालित है। प्राचीन समय में राजस्थान के अलवर क्षेत्र में भागसू नाम के राजा का राज्य था।
एक बार वहां बड़ा भयंकर सूखा पड़ा। लोगों ने राजा से पानी की कुछ व्यवस्था करने की विनती की। राजा का दिल पसीज गया और वह दृढ़ संकल्प के साथ हिमालय में देवशक्ति स्थल की ओर निकाल पड़ा। उसने धौलाधार पर्वत के आंचल में एक नाग देवता का सरोवर जिसे नागडल कहा जाता है, देखा।
सरोवर से उसने अपना कमंडल भरा और लौटने लगा। इस पर नाग देवता को अपने सरोवर से पानी चोरी होने का पता चला तो वह उस राजा का पास पाहुच गया, जहां वह ठहरा हुआ था। पानी को लेकर दोनों में छीना-झपटी हुई और कमंडल से कुछ पानी धरती पर गिर गया। उस दिव्य पानी से वहां चश्मे फूट पड़े।
भागसू राजा नाग देवता के आगे नतमस्तक हुआ और अपनी प्रजा की व्यथा सुनाई। इस पर नाग देवता ने अलवर की जनता के लिए वर्षा पानी का वरदान दिया।
कहा जाता है कि इसके बाद अलवर में भारी वर्षा हुई और वहां जगह-जगह पानी के स्थायी स्रोत स्थापित हुए। नाग देवता ने भागसू राजा से कहा कि कमंडल के गिरे पानी से बने चश्मे नाग तीर्थ के रूप में महिमामंडित होंगे और यह नाग तीर्थ तुम्हारे नाम पर भागसू के नाम से प्रसिद्ध होगा। इस प्रकार इस स्थान का नाम भागसू नाग प्रचलित हुआ है।
माहूंनाग : मुगल कैद से मुक्त करवाया राजा
माहूंनाग ज़िला मंडी की करसोग तहसील का एक प्रसिद्ध गांव है। गांव में माहूंनाग देवता का मंदिर है और इसी देवता के नाम पर गांव का नाम माहूंनाग पड़ा है। महाभारत के योद्धा दानवीर कर्ण ही यहां माहूंनाग देवता है। जनश्रुति बतलाती है कि सुकेत के राजा श्याम सेन (1620-1650) को मुगल शासक ने दिल्ली में कैद कर दिया। राजा ने सहायता के लिए सुकेत के देवी- देवताओं को स्मरण किया।
ज्यों ही उन्होंने नाग दानवीर कर्ण को याद किया तो वे माहूं (मधु मक्खी) के रूप में उनके सिर पर मंडराए। राजा ने आंखें बंद करके ध्यान लगाया। ध्यान में नाग देवता कर्ण ने अपनी उपस्थिति को जतलाया और कहा कि तुम शीघ्र ही कैद से मुक्त हो जाओगे।
उसी दिन मुगल शासक को शतरंज खेलने की इच्छा हुई। कैदियों से भी यह खेल खेलने के लिए पूछा गया। राजा श्याम सेन शतरंज खेलने को तैयार हुए। बाजी लगनी शुरू हुईं। मुगल शासक एक के बाद एक बाजी हारता चला गया और अंत में उसे अपने दिए गए वचन के अनुपालन में राजा को कैद मुक्त करना पड़ा।
यह नाग देवता दानवीर कर्ण की ही कृपा थी जिन्होंने माहूं के वेश में होकर राजा की सहायता की थी। इसीलिए उस के बाद नाग देवता दानवीर कर्ण माहूं देवता के रुप में प्रसिद्ध हो गए।
राजा ने माहूंनाग देवता का पहाड़ी शित्प का एक भव्य मंदिर बनाया जो आज भी इस गौरव गाथा का बखान करता हुआ विद्यमान है। यह स्थान करसोग से 24 किलोमीटर दूर है। माहूंनाग देवता के मंदिर अनेक अन्य हैं, लेकिन इनका मूल स्थान माहूंनाग ही माना जाता है।
खजियार : खज्जीनाग का बसेरा
देवदार के सदाबहार जंगल के बीच फैला हरा-भरा घास का मैदान और इसके केंद्र में स्थित खजियार झील इस स्थान के सौंदर्य के मनमोहक श्रृंगार हैं। इस झील के समीप ही खज्जीनाग देवता का प्राचीन मंदिर है।
जनश्रुति के अनुसार इस स्थान पर एक सिद्ध देवता रहते थे। बाद में नाग देवता यहां आए तो दोनों में इस स्थान को लेकर झगड़ा हुआ। आखिर में सिद्ध देवता ने यह स्थान यह कहते हुये छोड़ दिया कि तूँ खा और जी, मैं कहीं अन्यत्र जाता हूँ। सिद्ध देवता के कहे खा-जी शब्दों से इसका नाम ख्ज्जी नाग पड़ा। खज्जीनाग के स्थान के रूप में यह स्थान खजियार कहलाया।
नागचला : नागों का चला
एक स्थान पर इकटूठे पानी का भूगर्भीय निकास जिस स्थान से होता उस स्थान को चला कहा जाता है। कहा जाता है कि मंडी ज़िला की रिवालसर झील का एक चला नागों के पहरे में है, जिसका पानी मंडी-सुंदरनगर सड़क पर मंडी से 10 कि.मी. दूर नागचला नामक स्थान पर निकलता है। नागों के चला का पानी यहां आने से ही यह स्थान नागचला कहलाता है।
इस स्थान के सम्बंध में जनश्रुति है कि एक बार एक निःसंतान ने रिवालसर में मनौती की कि यदि उनके पुत्र का जन्म हो जाए तो वे झील की एक मछली को सोने का बालू पहना देंगे। उन्हें पुत्र की प्राप्ति हो गई। मनौती का पालन करते हुए उस दम्पत्ति ने रिवालसर पहुंच कर एक मछली के नाक में सोने का बालू पहना दिया।
पत्नी इस पर प्रसन्न थी, परन्तु पति प्रायः सोचता कि हमने व्यर्थ सोने का बालू पहनाया क्योंकि पुत्र तो हमारे भाग्य में था, वह तो वैसे भी होना ही था। एक दिन वह इसी सोच में खोया हुआ नागचला के पास से कहीं जा रहा था। उसकी दृष्टि नागचला के जलस्त्रोत पर पड़ी तो उसे पानी पीने की इच्छा हुई।
उसने अंजली फैला कर जैसे ही पानी में हाथ डाला,एक मछली आई और वही बालू जो रिवालसर में मछली को पहनाया था, उसकी अंजली में छोड़ गई। जब वह लौट कर घर पहुंचा तो उसके पुत्र की मृत्यु हो चुकी थी।
तब से लोग मानते हैं कि यहां का पानी रिवालसर झील के नागों के चला का है और तभी से यहां का नाम नागचला प्रचलित हुआ है। नागचला में मछलियों से भरा एक मनोरम तालाब है और इसके साथ ही एक प्राचीन शिव मंदिर है।
सरेउल सर: झील में बूढ़ी नागिन का बसेरा
कुल्लू जिला की आनी तहसील के जलोड़ी पर्वत पर सरेउल सर नामक स्थान स्थित है। यहां एक सुंदर झील है, जिसके साथ बूढ़ी नागिन माता का मंदिर है। नागिन माता अपने भक्तों को बड़े सर्प जिसे स्थानीय भाषा में सराल कहते हैं, के रूप में दर्शन देती है।
सराल का सरोवर होने के कारण ही इस स्थान का नाम सरालसर पड़ा जो सरेउल सर पड़ा है। सर को स्थानीय भाषा आमें सौर भए एकहते हैं, इसलिए इस स्थान को सरेउल सौर भी कहा जाता है। शिमला जिला के सरपारा स्थान के नौ नागों की माता तो कोई कुल्लू के गौशाल में जन्मे 18 नागों की माता भी कहता है।
नागणी : राजा के साथ राजस्थान से आई नागिन
कांगड़ा ज़िला की नूरपुर तहसील में पठानकोट-कुल्लू मनाली राष्ट्रीय मार्ग पर बौड नामक स्थान से एक किलोमीटर की दूरी पर नागणी नामक स्थान है। कहा जाता है कि नूरपुर नरेश जगत सिंह(1619-1646) के समय समय उनके राजस्थान प्रवास से लौटते हुए राजस्थान से एक नागिन देवी उनके साथ आई थी, जिसकी विधिवत् स्थापना इस स्थान पर की गई।
नागिन को स्थानीय बोली ने नागणी कहा जाता है, इस कारण इस स्थान का नाम नागणी पड़ा है। सर्पदंश के उपचार के लिए नागणी माता प्रसिद्ध है। श्रावण और भादों मास में दो महीने प्रत्येक शिवार को नागणी माता के विशेष मेले लगते हैं जिसमें हिमाचल प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, जम्मू- कश्मीर से श्रधालु यहां आ पहुंचते हैं।
लुदर नाग: सर्पीले आकार में बहती जलधारा
कुल्लू जिला की पार्वती घाटी में सुविख्यात तीर्थ स्थल मणिकर्ण से लगभग 12 किलोमीटर दूर लुदर नाग तीर्थ है। इस तीर्थ पर लोगों के अतिरिक्त कुछ देवता भी पवित्र स्नान करने आते हैं।
यहां एक मनमोहक जलघारा एक चट्टान पर सर्पीले आकार में बहती है, जो शिवजी का नाग मानी जाती है। शिव का एक नाम रुद्र है । अतः यह रुद्र नाग है। रुद्र नाग लोक भाषा में लुदर नाग हो गया है और इसी आधार पर इस स्थान का नाम भी लुदर नाग हो गया।
सपनी : गूगे रानी का महल
किन्नौर जिला की सांगला घाटी के सपनी गांव का सम्बंध यहां स्थित नागों से जोड़ा जाता है। नाग के लिए सर्प, सांप शब्द प्रायः प्रयुक्त होते हैं। अतः सर्प या साँप का पूज्य स्थल होने के कारण इस स्थान का नाम सपनी पड़ा।
सपनी को उच्चारण भेद से सापनी भी कहा जाता है। सपनी में राजा बुशहर द्वारा एक किला निर्मित किया गया था। पुरातात्विक महत्व का यह किला आज भी खड़ा है। किले के साथ ही गूगे रानी का महल भी है। राजा की यह रानी तिब्बत जिसे गूगे भी कहते हैं, की राजकुमारी थी। गूगे रानी सपनी में ही रहती थी।
सरही : गेंहू के भंडार में प्रकट हुए नाग
मंडी जिला की करसोग तहसील के इस गांव में वासुकि नाग का देव स्थल है। कहते हैं वासुकि नाग यहा गेंहू के भंडार में एक बड़े सर्प के रूप में प्रकट हुए थे। बड़े सर्प को यहां सराल कहा जाता है। सराल स्थली के रूप में इस स्थान का नाम परिवर्तित होकर बाद में सरही हो गया।
चंबा और कुल्लू में नागणीधार
चंबा जिला की चुराह तहसील की इस धार पर नागिन देवी का मंदिर है। यहां पर भी नागिन शब्द का परिवर्तित रूप नागणी है और इसके साथ धार शब्द पर्वत। धार पर नागिन का मंदिर होने के कारण इसे नागणी धार कहा जाता है।
कुल्लू जिला की कुल्लू तहसील के खोखण परगने में भी एक नागणी धार है। यहां एक नाग देवता का मंदिर तथा सरोवर है। इस धार को नाग वाली धार के कारण नागणी धार कहते हैं।
नाग बण
कांगड़ा जिला की जयसिंहपुर तहसील में महाराजनगर गाँव के साथ के जंगल में एक तालाब के पास नाग देवता का स्थान है। इसी आधार पर इसे नाग का वन कहा गया है। नाग वन के साथ स्थित होने से महाराजनगर गांव को नाग बण गांव के नाम से जाना जाता है।
नाग बणी
चंबा ज़िला की भरमौर तहसील की चन्हौता पंचायत के एक स्थान पर सघन देवदारों के बीच इन्द्रु नाग का मदिर है। वणी के संयोग से यह स्थान नाग वणी नाम को प्राप्त हुआ है।
नागा रा डेहरू
कुल्लू ज़िला की कुल्लू तहसील के महाराजा परगने में ग्राम पीज के अन्तर्गत समुद्र तल से 2500 मीटर की ऊंचाई पर नागा रा डेहरू नामक स्थान है। इस स्थान पर नाग देवता का एक छोटा-सा मंदिर है।
कुल्लुवी में मंदिर के लिए डेहरा शब्द का प्रयोग होता है और छोटे आकार के मंदिरों के लिए डेहरू शब्द प्रयोग में लाया जाता है। इस स्थान पर नाग देवता का छोटे से आकार का मंदिर है जिसे नाग रा डेहरू कहते हैं।
बास्कैर
चंबा ज़िला में चंबा तहसील की बास्कैर नामक चारागाह में व वासुकि नाग ने जम्मू-कश्मीर के भद्रवाह क्षेत्र से आकर बास किया था। अतः वासुकि नाग के इस चारागाह में बास करने के चलते इस स्थान का नाम बास्कैर पड़ा।
यहां से वासुकि नाग चंबा शहर में जाकर बसे। चौगान के समीप भगवती चंपावती के मंदिर के साथ वासुकि नाग का मंदिर है।
नागण
मंडी ज़िला की जोगिंद्रनगर तहसील में चौंतड़ा कस्बे से 5 कि.मी. की दूरी ओर नागण नामक गांव है। इस गांव की बावड़ी के पास एक पिंडी की पूजा नागिन देवी के रूप में की जाती है।
कहा जाता है पहले इस स्थान पर नागिन अर्थात् मादा नाग लोगों को दर्शन दिया करती थी। नागिन को स्थानीय बोली में नागण कहते हैं| इस स्थान का नाम नागिन देवी के होने से ही नागण पड़ा है।
खनाग
कुल्लू जिला की आनी तहसील के खनाग गांव के बारे में कहा जाता कि यहां पर एक नाग (सांप) निकलता था जो लोगों को खाता अर्थात् डंसता था। लोगों खाने वाले इस नाग से ही इस स्थान का नाम खनाग पड़ा है।
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