न डलहौजी का नाम नेता जी सुभाष नगर हुआ न पुस्तकालय बना 

 न डलहौजी का नाम नेता जी सुभाष नगर हुआ न पुस्तकालय बना 
डलहौजी में डॉक्टर धर्मवीर, उनकी पत्नी और मीराबेन के साथ नेता जी।

 मनीष वैद/ डलहौजी 

हिमाचल प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और पूर्व केंद्रीय मंत्री शांता कुमार डलहौजी के नाम को बदल कर सुभाष नगर करने की सालों पैरवी करते रहे। उनके इस आह्वान पर लोग भी मुखर हुए।  शांता कुमार डलहौजी में नेता जी सुभाष चंद्र बोस की स्मृति को तरोताजा रखने के लिए उनके नाम पर लाइब्रेरी खोलने के भी पक्षधर रहे और सांसद निधि से इसके निर्माण के लिए धन की व्यवस्था भी कारवाई।

हकीकत की जमीन पर न तो डलहौजी का नाम नेता जी सुभाष नगर हुआ और न ही सुभाष चंद्र बोस के नाम पर बनने वाला पुस्तकालय बन पाया। शांता कुमार जरूर हिमाचल प्रदेश की एक्टिव पॉलिटिक्स से दूर हो गए। ऐसे में डलहौजी के सुभाष चौक पर लगी नेता जी प्रतिमा सियासी वादों के पूरा नहीं होने का जरूर मखौल बनाती होगी।

नेता जी का डलहौजी प्रवास

ऐसा माना जाता है कि 18 अगस्त 1945 को ताइपे में विमान दुर्घटना में नेता जी की मौत हो गई थी। उनका डलहौजी से गहरा नाता रहा था। वे 1937 में डलहौजी आए थे और करीब पांच माह तक इस हिल स्टेशन पर रहे थे।

उनके स्मृति दिवस पर जानते हैं कि डलहौजी के साथ उनका रिश्ता कैसे जुड़ा और उनका डलहौजी का क्या कारण था? वह यहां अपनी गतिविधियों को लेकर कितने एक्टिव थे ?

डलहौजी में नेता, कलकाता में प्रभाव

डलहौजी में स्वास्थ्य लाभ लेते हुए नेता जी सुभाष चंद्र बोस ने कई राजनीतिक निबंध लिखे। उनकी गुप्त डाक भी डलहौजी पहुँचती थी। रुद्रान्शु मुखर्जी अपनी पुस्तक ‘नेहरू बनाम सुभाष’ में लिखते हैं कि डलहौजी से ही नेता जी ने कलकाता में होने वाली अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की बैठक को रोकने के लिए पत्र लिखा था।

कलकाता में हुई इस बैठक के एक फैसले पर नेता जी का सीधा प्रभाव था। इस बैठक में यह तय हुआ था कि गुजरात के हरिपुरा में होने वाले कांग्रेस के अगले अधिवेशन की अध्यक्षता नेता जी करेंगे।

कैद में  हुआ रोग, उपचार के लिए आए

ब्रिटिश राज की कैद में रहते हुए नेताजी को तपेदिक हो गया था और वे बेहद कमजोर हो गए। बिगड़ते स्वास्थ्य को देखते हुए उन्हें रिहा कर दिया था। तपेदिक उस समय एक खतरनाक बीमारी मानी जाती थी।

इसलिए उनके चिकित्सकों ने स्वास्थ्य लाभ के लिए किसी हिल स्टेशन में जाने की सलाह दी। इसी को मानते हुए वे डलहौजी आ गए थे। कुदरत की गोद में बसे इस हिल स्टेशन पर रहकर उनके स्वास्थ्य में सुधार हुआ और रोग से छुटकारा मिल गया।

पहले होटल, फिर कोठी में रहे

शुरू में नेता जी डलहौजी के गांधी चौक पर स्थित होटल मेहर के कमरा नंबर 10 में ठहरे। इसी दौरान जैन धर्मवीर को नेताजी के डलहौजी का आने का पता चल गया और उन्होंने नेताजी से गांधी चौक के पास पंजपूला मार्ग पर स्थित कोठी कायनांस में रहने का आग्रह किया, जिसे नेताजी ने मान लिया।

नेताजी होटल छोड़कर कोठी में रहने चले गए। जैन धर्मवीर, नेताजी के सहपाठी रहे कांग्रेस नेता डॉ. धर्मवीर की पत्‍नी थीं। कोठी जाते समय नेताजी का शहरवासियों ने भव्य स्वागत किया था।

रोगमुक्त होकर लौटे सुभाष

डलहौजी में रहते हुए नेता जी की दिनचर्या में रोजाना सैर शामिल थी। वे एक बावड़ी के पास जंगल में बैठकर कुदरत के साथ संवाद करते थे। वे इस बावड़ी के पानी का सेवन करते थे। यहाँ के शुद्ध वातावरण में उनके स्वास्थ्य में तेज़ी से सुधार होने लगा।

अक्टूबर महीने में पूरी तरह से स्वस्थ होकर वे डलहौजी से लौट गए थे। उनकी याद में डलहौजी के एक चौक का नाम सुभाष चौक रखा गया है, जबकि जिस बावड़ी का वे पानी पीते थे, उसका नाम सुभाष बावड़ी प्रचलित हो गया।

मौजूद हैं नेता जी की निशानियां

नेता जी डलहौजी के जिस होटल और कोठी में ठहरे थे, वह आज भी मौजूद हैं। नेता जी के इस्तेमाल किए गए बेड, कुर्सी, टेबल और अन्य सामान भी सहेज कर रखा गया है। नेताजी जिस कमरे में ठहरे थे, वहां लोगों का जाना और फोटो लेना वर्जित है।

नेता के प्रवास में प्रमुख रही सुभाष बावड़ी की देख- रेख नगर परिषद डलहौजी करती है। इस बावड़ी को देखने देश- दुनिया के पर्यटक आते हैं।

बिन बताए छोड़ दिया डलहौजी

अक्तूबर 1937 में किसी से मिले बिना और बिना बताए नेता जी ने डलहौजी को छोड़ दिया। बताया जाता है कि नेता अखबार लाने और ले जाने वाली गाड़ी में बैठकर डलहौजी से पठानकोट तक गए थे।

डलहौजी  से लौटते ही नेता जी एक बार फिर स्वतन्त्रता संग्राम में डट गए, लेकिन उनके प्रवास की मधुर यादें डलहौजी से जुड़ गईं। देशप्रेमियों के लिए यह स्थान किसी तीर्थ से कम नहीं है।

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