पहाड़ी के पहले उपन्यासकार, कई पांडुलिपियां बनीं दीमक का आहार

पहाड़ी के पहले उपन्यासकार, कई पांडुलिपियां बनीं दीमक का आहार
एम कुसुम मटौरवी
  • एम कुसुम मटौरवी का लिखा अधिकतर साहित्य रह गया अप्रकाशित

वीरेंद्र शर्मा ‘वीर’/ मटौर

हिमाचल प्रदेश के वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. गौत्तम व्यथित ने एक बार कहा था कि पहाड़ी के पहले उपन्यासकार एम कुसुम मटौरवी की कथा बुनाई में गजब की कसावट है। उनमें शब्दों के शिल्पकार के रूप में एक बड़ा मनोवैज्ञानिक नजर आता है।

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साहित्य जगत के लिए यह शर्मनाक है कि बीस सालों की सतत् साधना कर पहाड़ी का पहला उपन्यास लिखने वाले पहाड़ी के पहले उपन्यासकार, उच्चकोटी के वरिष्ठ साहित्यकार एम कुसुम मटौरवी का अधिकतर साहित्य अप्रकाशित ही रहा है।

नदी में प्रवाहित करने की शर्त

दुखद यह है कि प्रकाशन के लिए तैयार उनकी दर्जनों पांडुलिपियां दीमक का आहार बन चुकी हैं। मटौरवी में अपनी रचनाओं को प्रकाशित करवाने की हिम्मत नहीं बची है।

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उन्होंने अपनी बेटियों से कह दिया है कि उनकी मौत के बाद उनकी समस्त पांडुलिपियों को नदी में प्रवाहित कर दें, ताकि गलत हाथों में जाने से बच सकें।

छ्प नहीं पाया अधिकतर साहित्य

साहित्यिक समाज में भुलाए जा चुके पहाड़ी के पहले उपन्यासकार ने जिन कागजों पर 49 वर्ष तक धाराप्रवाह लिखा उनमें से 90 प्रतिशत अप्रकाशित हैं। पूर्णतया तैयार पड़ी पांडुलिपियों का भार पचास किलो से अधिक होगा। भाग्य की विडंबना देखिए कि उनके रचित साहित्य को दीमक खा रहा है।

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यह साहित्यिक एवं सांस्कृतिक धरोहर के संरक्षण का ढिंढोरा पीटने वाले संवेदनशील समाज की असंवेदनशीलता का एक बदसूरत नमूना है।

धर्मपत्नी की अकाल मौत, मुसीबतों का पहाड़ टूटा

वर्ष 2002 में मटौरवी की कलम की प्रेरणास्रोत रहीं उनकी धर्मपत्नी कुसुम मटौरवी की अकाल मृत्यु ने मटौरवी की पीठ और दिलो- दिमाग पर मानों मुसीबतों का पहाड़ लाद दिया।

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भाषा, कला एवं संस्कृति विभाग और अकादमी से लेकर उनके अंग-संग रहने वाले लेखकों ने उनकी धर्मपत्नी की अकाल मृत्यु के मात्र दस-पंद्रह दिन तक संवेदना प्रेषित करने के बाद दूरी बनानी शुरू कर दी।

समाज की संवेदनहीनता और छोटे-छोटे बच्चों की जिम्मेदारी ने मटौरवी की कलम ने दो दशक पहले हिम्मत हार दी।

उदासीनता की जंजीरों में जकड़ गई कलम

पहाड़ी के पहले उपन्यासकार मटौरवी धीरे-धीरे चार-दीवारी के भीतर सिमटते चले गए और न चाहते हुए भी भीतर के लेखक को उदासीनता की जंजीरों ने जकड़ लिया।

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वर्तमान पीढ़ी के अधिकतर लेखकों ने शायद ही एम कुसुम मटौरवी का नाम भी कभी सुना हो। दुख की बात तो यह है कि अपने ही गृह जिला कांगड़ा के उनके कई साथी या वरिष्ठ लेखकों ने भी पिछले दो दशक में उनकी कोई सुध नहीं ली है।

बचपन में पड़ गया लिखने का चस्का

कांगड़ा के निकट कांगड़ा-धर्मशाला मार्ग पर मटौर कस्बे में अपने जमाने के हस्तलिखित संपूर्ण जंत्री के निर्माता पुरोहित स्व. पंडित स्वस्ति शर्मा भारद्वाज के पौत्र एवं स्व. रोशनी देवी एवं स्व. दीनानाथ शर्मा के घर 20 जुलाई 1947 को जन्मे मदन मोहन शर्मा उर्फ एम कुसुम मटौरवी तीन बहनों के इकलौते भाई हैं।

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परिवार का मान-सम्मान तो बहुत था, किंतु माली हालात ठीक नहीं थी। मनोरंजन के साधन तो होते ही नहीं थे, पठन-पाठन का माहौल भी नहीं था। बावजूद इसके मदन मोहन को बाल्यकाल में ही लिखने-पढऩे की आदत पड़ गई।

लिखने के लिए मां के हाथों पिटे

मदन मोहन सबसे छिपते-छिपाते कुछ न कुछ लिखते रहते। पुराने मकान का एक कोना इनका मुफीद ठिकाना था, मां आवाज लगाती तो भी कई बार अनसुना कर देते।

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एक बार जब आवाज देते-देते और ढूंढते हुए मां घर की बौहड़ में पहुंच गई तो कागजों के बंडल देखे और उनके पास ही बैठे मदन मोहन (उम्र करीब तेरह वर्ष रही होगी)।

मां ने बहुत पिटाई की, गुस्से में आकर सब लिखा हुआ चूल्हे में जला दिया और कहा ‘कुछ काम भी कर लिया कर। ये कागज किसी काम नहीं आने हैं तुम्हारे’।

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किंतु मदन मोहन के मन-मष्तिष्क में तो शब्दों की गंगोत्री हमेशा ही बहती रहती थी, इसलिए किसी के रोके नहीं रूके।

पत्नी ने किया लेखन के लिए प्रेरित

शादी हुई तो धर्मपत्नी कुसुम ने पति की भावनाओं की कद्र करते हुए पहाड़ी के पहले उपन्यासकार को लेखन के लिए प्रेरित किया।

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मटोरवीं कहते हैं कि उनकी पत्नी अकसर कहती थीं कि यहां-वहां जाते नहीं हो, किसी से ज्यादा मिलना-जुलना पसंद नहीं है तो ये करो कि कुछ न कुछ लिखते रहा करो, खाली कभी न बैठा करो।

केलंग में मिला लिखने का मौका

पत्नी की प्रेरणा संबल बनी। जब उनकी नौकरी लगी और उनकी नियुक्ति लाहौल-स्पीति के केलंग में हुई और लगभग बारह वर्ष वहां पर रहे तो अनवरत धाराप्रवाह लिखा। मटौरवी दिन-रात, सालों- साल हिंदी और हिमाचली पहाड़ी में बराबर लिखते चले गए।

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गद्य और पद्य दोनों विधाओं में उनका बराबर हस्तक्षेप रहा, किंतु पहला प्यार गद्य लेखन रहा। कथा, कहानी, नाटक, कविता, उपन्यास सब पर कलम की कसावट लिए सफलतापूर्वक लिखा।

पहाड़ी का पहला उपन्यास

पहाड़ी के पहले उपन्यासकार के लेखन के विषय रीति-रिवाज, आम जनमानस व हमारे आस-पास के दैनिक भोगी शब्दावली और चीजों रहे।

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वर्ष 1976 में हिमाचली पहाड़ी भाषा मे उपन्यास लिखना शुरू किया और साल 1996 में ‘दुडुंज्जे दे बूटे हेठ’ लिखकर पहले पहाड़ी उपन्यासकार होने का गौरव प्राप्त किया।

 महान साहित्यकारों के साथ सृजन

साहित्य एवं समाजसेवा के उद्देश्य से उस समय के महान साहित्यकारों प्रो. चंद्रवर्कर व बल्लभ डोभाल के मार्गदर्शन, ओपी ‘टाक’ के निर्देशन, शम्मी शर्मा के संरक्षण तले ‘श्री हंसवाहिनी भाषा, साहित्य एवं कला संगम’ नाम की संस्था गठित की, जिसमें विधि सिंह दरिद्र संस्थापक अध्यक्ष, ओंकार फलक उपाध्यक्ष, पहाड़ी के पहले उपन्यासकार स्वयं महासचिव बने और कुशल जोशन को कोषाध्यक्ष बनाया।

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एक समय था जब मदन मोहन शर्मा उर्फ एम कुसुम मटौरवी और उनके साहित्य को हर कोई हाथों हाथ लपक रहा था। बड़े-बड़े साहित्यकार मटौरवी को पसंद करते और उनकी कलम का लोहा मानते हुए नमन करते।

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पहाड़ी के पहले उपन्यासकार कुसुम मटौरवी ने उच्च कोटि का साहित्य किसी धूमकेतु सी तीव्रता लिए लिखकर समाज को अल्पकाल में ही बेहतरीन कृतियां भेंट कीं।

मटौरवी के बौद्धिक खजाने पर नजर

अगर कविता की बात हो तो काव्य सिंधु, कविता संगम, काव्य संगम, भजन सरिता (हिंदी) और कांगड़ी कविता (पहाड़ी), रूह-ए-फरियाद, चंद अशआर, गज़ल गुलुवंद (हिंदी-उर्दू शायरी), चौगिरदे के आस-पास (विचार बिंदु)

हिन्दी – पहाड़ी में लघुकथा

पहाड़ी के पहले उपन्यासकार ने दो गज़ ज़मीन, जादू की जंजीर, राजकुमारी प्रभासुंदरी, भाग्य-चक्र, पुरानी फाइल, साहब का अटैचीकेस, सुपरिटैंडेंटेंट, ठीक है साहब, जूनियर इंजीनियर, पांचवी प्रोमोशन, फॉरगो, चंदू चपड़ासी, साहब की बीवी, ड्राइवर सेवक राम, पंद्रह दिन का प्रवास, गैजेटिड हॉलिडे, मैडम माधवी, शार्ट लीव, बड़े साहब का आगमन, सब फ्रॉड है, साहब का पीए, साहब का चश्मा, चमचागिरी, डिक्टेशन, मिसिंग मेटिरियल, रेट कांट्रेक्ट, बाबू बनारसी, ऑडिट के  आठ दिन आदि भ्रष्ट आफिस कल्चर पर सात सौ से ज्यादा (हिंदी लघुकथा) व पांच सौ से ज्यादा (म्हाचली पहाड़ी) लघुकथा लिखीं ।  मंथन सीरीज (कुल नौ लघुकथा संग्रह)

हिंदी- पहाड़ी में लिखे उपन्यास

पहाड़ी के पहले उपन्यासकार ने हिंदी- पहाड़ी में कई उपन्यास लिखे, जिनमें गुनाहों के फूल, नीले आकाश तले, बाबू, एक ठहरी हुई जिंदगी, क्या यह रिवाज ही ऐसा है, आज की सती, छोटे साहब बड़े साहब, रत्नाजलि, दोस्ती और प्यार, जब लाद चलेगा बंजारा, फाउंटेन पैन, सात शर्तें, बादल बिजली रिमझिम बरखा, अधूरा फैशन, सावन की बरखा, पतझड़ी बहार, मेरे देवता, यादों के दायरे, धुंधली किरण  (सभी हिंदी उपन्यास) शामिल हैं।

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पहाड़ी के पहले उपन्यासकार ने पहाड़ी में दुडुंज्जे दे बूटे हेठ, क्या एह रुआज इ देह्या ऐ लाड़े दा चमचा, करमों, उस्ताद, सैह देह देहइयां गल्लां, न्हेरडडी लो, दुर्गुए दा दबू  उपन्यास लिखे हैं।

बालप्योगी साहित्य का सृजन

एक बीमार की कहानी, अपना-अपना भाग्य, पाप और पुण्य, जात-पात, शन्नो जल गई, नकल नहीं अकल चाहिए, अपना जान पराया छान, छोड़ो कल की बातें, मातृभूमि तुझे नमन है (बालप्योगी साहित्य)  कहानी, यथार्थ चिंतन-एवं संक्षिप्त विचार बिंदुभाग-1/ 2 ।

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पहाड़ी के पहले उपन्यासकार के अप्रकाशित उपन्यासों में  भूतकाल भविष्य के बीच में रेंगता हुआ वर्तमान, धुंधली किरण, हड़ताल हमारा नारा है, सोने की जंजीर, बदले परिवेश में ठहरी हुई जिंदगी, अधूरा फैशन, खूबसूरत धोखा, अनुपम उपासना, नीले आकाश तले, प्रायश्चित शामिल हैं तो  चुंग-बू्रक पहाड़ी उपन्यास भी अप्रकाशित है।

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अप्रकाशित कुसुम मटौरवी ने ‘दफ्तर के दायरे में’ और ‘खूबसूरत धोखा’ उपन्यास लिखे हैं, जो अप्रकाशित हैं। उनके जो उपन्यास भाषा अकादमी शिमला में प्रकाशन के लिए जमा कराए थे, उनका भी कोई अता- पता नहीं है।

 

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