रवींद्रनाथ टैगोर ने डलहौजी में रची ‘गीतांजलि’!

रवींद्रनाथ टैगोर ने डलहौजी में रची ‘गीतांजलि’!
  • 12 साल की उम्र में वह अपने पिता के साथ डलहौजी आए थे रवींद्रनाथ टैगोर

मनीष वैद/ चंबा

गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर को जिस विश्व विख्यात काव्य संग्रह ‘गीतांजलि’ के लिए वर्ष 1913 में नोबेल पुरस्कार मिला था, उसके सृजन की शुरुआत चंबा के डलहौजी शहर में हुई थी। बाल्यकाल में जब टैगोर यहां आए थे तो यहां के कुदरती नजारों से आकर्षित हो गए। साल 1873 में 12 साल की उम्र में वह अपने पिता के साथ यहां आए थे।

पहली डलहौजी यात्रा से ही यह बालक इतना प्रभावित था कि यहां बार- बार आने के ख्वाब देखता रहा। दिल में हसरत तो यह थी कि कुदरत की गोद में बसे इस इलाके में सदा के लिए बस जाएं। हालांकि ऐसा मुमकिन नहीं हुआ, पर डलहौजी के साथ अपने खास रिश्ते को वे हमेशा याद करते रहे अपने रचनाकर्म में।

बकरोटा की पहाड़ियों पर ‘स्नोडन’ में  ठहरे

रवींद्रनाथ टैगोर डलहौजी के बकरोटा की पहाड़ियों पर स्थित 'स्नोडन' भवन में आकर ठहरे थे। डलहौजी में वे कुदरत की बेपनाह खूबसूरती के कायल हो गए थे और यहीं पर उन्हें कविता लिखने की प्रेरणा मिली।
बकरोटा की पहाड़ियां। फोटो साभार – HIMBUS

रवींद्रनाथ टैगोर डलहौजी के बकरोटा की पहाड़ियों पर स्थित ‘स्नोडन’ भवन में आकर ठहरे थे। डलहौजी में वे कुदरत की बेपनाह खूबसूरती के कायल हो गए थे और यहीं पर उन्हें कविता लिखने की प्रेरणा मिली।

उनके आलेखों और पत्रों में ऐसे रेफरेंस मिलते हैं कि प्रकृति के प्रति गहरा लगाव रखने वाले गुरुदेव को डलहौजी में की शांति निकेतन का आइडिया मिला था और उन्होंने यहां रागों पर भी अध्ययन किया था।

कविता में किया डलहौजी का जिक्र

उन्होंने लिखा है कि अगर उनकी आंखों ने दो पल भी आराम किया तो वे दृश्य ओझल हो जाएंगे, जिनकी उन्हें तलाश है। गुरुदेव ने अपने पत्रों, कविताओं और लेखन में  डलहौजी की खूबसूरती का खूब उल्लेख किया है।
गीतांजली, जिस पर नोबल पुरस्कार मिला।

रवींद्रनाथ टैगोर ने ‘मेरा अतीत’ कविता में लिखा है, ‘इस खूबसूरत स्थान के प्रवास के दौरान उनकी आंखों को दो पल सुकून नहीं मिला, क्योंकि यहां की खूबसूरती ने उनके दिल में जगह बना ली थी।

उन्होंने लिखा है कि अगर उनकी आंखों ने दो पल भी आराम किया तो वे दृश्य ओझल हो जाएंगे, जिनकी उन्हें तलाश है। गुरुदेव ने अपने पत्रों, कविताओं और लेखन में  डलहौजी की खूबसूरती का खूब उल्लेख किया है।

डलहौजी में बसने की हसरत

रवींद्रनाथ टैगोर के प्रवास के ऐतिहासिक पल का गवाह स्नोडन आज भी बकरोटा की पहाड़ियों में मौजूद है। टैगोर की ताउम्र डलहौजी आने और यहीं पर बसने की हसरत रही, लेकिन व्यस्तता ने उन्हें यहां दोबारा आने का मौका नहीं दिया।
टैगोर का आखिरी फोटोग्राफ।

रवींद्रनाथ टैगोर के प्रवास के ऐतिहासिक पल का गवाह स्नोडन आज भी बकरोटा की पहाड़ियों में मौजूद है। टैगोर की ताउम्र डलहौजी आने और यहीं पर बसने की हसरत रही, लेकिन व्यस्तता ने उन्हें यहां दोबारा आने का मौका नहीं दिया। हालांकि यह टीस उन्हें उम्र भर रही और इसका इझहार भी करते रहे।

टैगोर ने पहली कविता आठ साल की उम्र में लिखी थी और साल 1877 में केवल सोलह साल की उम्र में उनकी लघुकथा प्रकाशित हुई थी। उनके काव्य संग्रह गीतांजली की खूब धूम मची थी, जिसका आइडिया डलहौजी में ही मिला था।

दो देशों का राष्ट्रगान बनीं रचनाएं

रवींद्रनाथ टैगोर का जन्म 7 मई, 1861 को कोलकाता के जोड़ासांको ठाकुरबाड़ी में हुआ। उन्हें बांग्ला साहित्य के माध्यम से भारतीय सांस्कृतिक चेतना में नई जान फूंकने वाले युगदृष्टा के रूप में जाना गया।

वे एकमात्र कवि हैं, जिनकी दो रचनाएं दो देशों का राष्ट्रगान बनीं। भारत का राष्ट्रगान जन गण मन व बांग्लादेश का राष्ट्रीय गान आमार सोनार बांग्ला गुरुदेव की ही लिखी रचनाएं हैं। उनकी रचनाएं आज भी प्रासंगिक हैं और उनके साहित्य के प्रति लोगों में दिवानगी है।

शांति निकेतन का विचार

टैगोर को बचपन से ही प्रकृति का सानिध्य बहुत भाता था। वह हमेशा सोचा करते थे कि प्रकृति के सानिध्य में ही विद्यार्थियों को अध्ययन करना चाहिए।  यही कारण था कि जब बचपन में वे डलहौजी आए थे तो यहीं पर उन्हें ‘शांति निकेतन’ संस्थान में शिक्षण के क्षेत्र में परवर्ती प्रयोगों की प्रेरणा भी मिली।

इसी सोच को मूर्तरूप देने के लिए वह साल 1901 में सियालदह छोड़कर आश्रम की स्थापना करने के लिए शांतिनिकेतन आ गए। प्रकृति के सान्निध्य में पेड़ों, बगीचों और एक लाइब्रेरी के साथ टैगोर ने शांति निकेतन की स्थापना की।

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