रामसिंह पठानियां : अंग्रेजों से अकेले लड़े नूरपुर के बजीर
विनोद भावुक/ धर्मशाला
भारत की आजादी की लड़ाई के इतिहास में कई- राजाओं- महाराजाओं के अंग्रेजों से टकराने के प्रसंग तो कई दर्ज हैं, लेकिन अपनी रियासत की अस्मिता की रक्षा के लिए किसी बाजीर के ब्रिटिश राज से अकेले लोहा लेने की प्रेरककथा इकलौती ही है।
नूरपुर रियासत के बजीर रामसिंह पठानियां आज भी लोगों के दिल में बसने वाले एक लोकप्रिय नायक हैं, जिनकी शौर्यगाथा हिमाचल प्रदेश, पंजाब और जम्मू-कश्मीर में लोकगीतों में गूंजती है।
बजीर रामसिंह पठानियां ने अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध की ललकार के साथ सत्ता को सीधी चुनौती थी और तीन साल ब्रिटिश हुकूमत की आंख की किरकिरी बने रहे थे।
नूरपुर में जन्म, कश्मीर में बचपन
शाम सिंह पठानिया नूरपुर रियासत के राजा के बजीर थे। उनकी पत्नी का नाम इन्दौरी देवी था। शाम सिंह पठानिया नूरपुर के नजदीक पहाड़ी के आंचल में वासा वजीरां गांव में आकर रहने लगे थे। उनके घर 10 अप्रैल 1824 को बटे का जन्म हुआ, जिसका नाम रामसिंह रखा गया।
सिक्खों के प्रभाव का चलते शाम सिंह पठानिया को अपने अल्पायु के बेटे राम सिंह को कश्मीर के तत्कालीन गवर्नर दीवान किरपा राम के संरक्षण में भेजना पड़ा।
लाहौर दरबार में जवानी
कुछ समय बाद बाजीर शाम सिंह पठानिया ने महाराजा रणजीत सिंह का मन जीत लिया। महाराजा ने उन्हें 3500 रुपये वार्षिक की जागीर प्रदान की और बेटे रामसिंह को कश्मीर से वापिस बुला कर लाहौर दरबार के सेनापति अतर सिंह सन्धेवालिया के संरक्षण में भेज दिया गया।
लाहौर में रामसिंह की परवरिश सैनिक माहौल में हुई, जिसके चलते वे सैन्य कौशल, राजनैतिक दाव-पेच और कठिन व विपरीत परिस्थितियों में भी धैर्य रखने की कला में माहिर हो गए।
राजा की मौत, चंबा में पीएल रहे थे राजकुमार
लाहौर दरबार में 27 जून 1836 को महाराजा रणजीत सिंह की मौत के बाद अव्यवस्था फैल गई। नूरपुर के राजा वीर सिंह ने वजीर शाम सिंह, उनके बेटे रामसिंह और अपने वफादारों की मदद से रियासत के लखनपुर, शाहपुर कंडी, धार तथा मस्तगढ़ किलों को सिक्ख सेना से आजाद करवा लिया और नूरपुर किले की घेराबंदी कर दी। राजा वीर सिंह की अकाल मौत के कारण अभियान को रोकना पड़ा।
राजा की मौत के समय नूरपुर रियासत के उत्तराधिकारी राजकुमार जसवंत सिंह की उम्र 10 वर्ष थी और उनकी परवरिश चंबा रियासत के राजा चढ़त सिंह के सरंक्षण में हो रही थी।
राजकुमार को राजा मानने से अंग्रेजों का इंकार
वजीर शाम सिंह के नेतृत्व में रियासत के वफादारों, दरबारियों और अधिकारियों ने सलाह मशविरे के बाद राजकुमार जसवंत सिंह को चंबा से नूरपुर लाकर खुशीनगर नामक अस्थाई आवास में ठहरा दिया।प्रथम एंग्लो-सिक्ख युद्ध के बाद 6 मार्च 1846 को लाहौर की संधि के अनुसार पहाड़ी क्षेत्र अंग्रेजी संरक्षण में आ गए थे।
ब्रिटिश राज ने नवनिर्मित ट्रांस सतलुज स्टेट के शासन के लिए सहायक कमीश्नर एडवर्ड लेक को प्रभारी और जी.सी.बार्नस को जिलाधिकारी नियुक्त कर दिया था। अंग्रेजों ने राजकुमार जसवंत सिंह को नूरपुर रियासत का उत्तराधिकारी मानने से इन्कार कर दिया था।
राजा बनाने के लिए राम सिंह पठानियां के प्रयास
रामसिंह पठानियां राजकुमार जसवंत सिंह को नूरपुर के राजा के रूप में मान्यता दिलवाने के लिए लंबे समय तक प्रयासरत रहे। राजकुमार जसवंत सिंह और राम सिंह पठानिया ने अपना पक्ष ट्रांस सतलुज स्टेट के सहायक कमीश्नर लैफ्टिनेंट लेक व जालन्धर डिवीजन कमीश्नर जॉन लारेंस के सामने रखा।
वे होशियारपुर में लॉर्ड हार्डिंग के सामने भी पेश हुए। अंग्रेज़ अफसर राजकुमार को पेंशन देने को तो राजी थे, लेकिन राजा के रूप में मान्यता से इंकार कर दिया।
अंग्रेजों की आंखों को अखरने लगे बजीर
रामसिंह पठानियां ने अंग्रेजों के इस फैसले को नूरपुर रियासत के वफादारों को बताया तो सभी ने इसे मानने से इन्कार कर दिया।वे अब अंग्रेजों की आँखों की किरकिरी बनाने लगे थे।
पूर्व वजीर सुचेत सिंह की सलाह पर अंग्रेजों ने राजकुमार को नूरपुर रियासत में रहने की अनुमति तो दे दी, परंतु पेंशन की राशि बीस हजार रुपए से कम करके पाच हजार रुपए वार्षिक कर दी। साथ ही शर्त लगा दी कि राजकुमार जसवंत सिंह वजीर शाम सिंह और उनके पुत्र रामसिंह से कोई भी सम्बन्ध नहीं रखेंगे।
शाहपुर कंडी किले पर कब्जा, जसवंत सिंह का राजतिलक
रामसिंह पठानियां ने अंग्रेज शासकों के षडयंत्रों एवं कुटिल चालों को अच्छी तरह समझ रहे थे। उन्होंने नूरपुर रियासत और रावी नदी के पार जसरोटा रियासत में समान विचारों वाले चार सौ युवकों एक संगठन बना लिया।
15 अगस्त 1848 को शाहपुर कंडी के किले को अपने अधिकार में ले लिया और अगले ही दिन उन्होंने किले पर नूरपुर रियासत का केसरिया झंडा फहराकर राजकुमार जसवंत सिंह का राजतिलक करके नूरपुर रियासत का राजा घोषित कर ब्रिटिश शासकों को सीधी चुनौती दे डाली।
गुरिल्ला युद्ध से अंग्रेजों की नाक में दम
रामसिंह पठानियां के इस कदम से अंग्रेज तिलमिला उठे। उन्होंने पूर्व वजीर सचेत सिंह को राजकुमार जसवंत सिंह का संरक्षक नियुक्त कर राजकुमार को पाँच हजार रुपए और उनकी माता को दो हजार रूपये वार्षिक पेंशन के लिए मजबूर कर दिया। इधर, रामसिंह पठानियां ने अंग्रेजों के विरुद्ध अपनी गतिविधियां तेज कर दी और गुरिल्ला युद्ध प्रणाली को अपनाया।
न तो उनके पास स्थाई सैनिक दस्ता था और न ही अच्छे हथियार, इसके बावजूद इसके उन्होंने स्थानीय युवाओं के दम पर 1846 से 1849 तक तीन साल वासा, मऊ के जंगल, कुम्मणी दा पैल, त्रिहाड़ी का किला तथा शाहपुर कंडी को अपनी कर्मभूमि बनाकर ब्रिटिश हुकूमत की नाक में दम कर दिया।
ब्रिटिश सेना को चकमा, राजाओं से मांगी मदद
अंग्रेजों ने सितंबर 1848 में मेजर हडसन के नेतृत्व में प्रथम सिक्ख इन्फैंटरी के साथ रामसिंह पठानियां और उनके सहयोगियों पर हमला किया। इस लड़ाई में ब्रिटिश सेना के अनेक सैनिक गम्भीर रूप से घायल हुए। रामसिंह पठानियां मेजर हड़सन को चकमा देकर अपने साथियों सहित वहाँ से भाग निकले।
उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ झंडा बुलंद करने के लिए काँगड़ा के राजा प्रमोद चन्द, दतारपुर के राजा जगत चन्द, गुलेर के राजा शमशेर सिंह, जसवां के राजा उमेद सिंह तथा ऊना के संत विक्रम सिंह वेदी से मदद मांगी, लेकिन सभी तरफ से असमर्थता जताई गई।
न झुके और बिके, अकेले लड़े
रामसिंह पठानियां ने नूरपुर रियासत के रसूखदार व्यक्तियों को भी अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष में भाग लेने का प्रस्ताव भेजा, परन्तु अधिकतर लोगों की तरफ से जवाब न में मिला। सहयोग न मिलने पर भी उन्होंने अकेले ही अपनी लड़ाई जारी रखी।
अंग्रेज शासकों ने उन्हें कई प्रकार के लालच दिए। यहां तक कि उन्हें कोटला, शाहपुर तथा कांगड़ा के किले जागीर के रूप में देने की पेशकश की गई। अंग्रेजों ने उनके परिजनों, रिशतेदारों और दोस्तों के जरिये उन पर दबाव बनाने की कोशिश की, लेकिन वे तो किसी दूसरी ही मिट्टी के बने हुए थे।
ममून की अंग्रेजी सैनिक चौकी की तहस-नहस
रामसिंह पठानियां ने हरचन्द राजपूतों को अपने विचारों से सहमत कर लिया। राजा शेर सिंह ने भी उन्हें हथियारबन्द सिक्ख सैनिकों के दो दस्ते भेजे, जिनमें पांच सौ सैनिक और अतिरिक्त 100 घुड़सवार थे।
उन्होंने शिवालिक पहाड़ियों में मुकेश्वर के घने जंगलों के बीच चौवारा नामक स्थान पर सैनिक शिविर स्थापित किया। उन्होंने ममून की अंग्रेजी सैनिक चौकी को तहस-नहस करके त्रियाड़ी के किले से अपनी गतिविधियां जारी रखीं ।
बजीर के खिलाफ ब्रिटिश सेना का अभियान
ब्रिटिश सरकार ने जालन्धर फील्ड फोर्स तथा पंजाब डिवीजन के कमांडिंग आफिसर जनरल ब्रिगेडियर व्हीलर को वजीर रामसिंह पठानियां के सैनिक शिविर पर हमले के आदेश दिए। मेजर हड़सन के नेतृत्व में दो पलटनों को कूच करने का निर्देश मिले।
लेफ्टिनेंट जान पील दो कम्पनियों सहित दसूहा में जनरल व्हीलर की सेना में शामिल हो गए। ट्रांस सतलुज स्टेट के कमीश्नर जान् लारेंस भी इस सैनिक अभियान की निगरानी के लिए पठानकोट पहुंच गए।
कमांडिग आफिसर मेजर बटलर, लेफ्टिनेंट स्मिथ और डगलस सैनिक अभियान में जुट गए। रामसिंह पठानियां की सेना और ब्रिटिश सेना के बीच भीषण युद्ध शुरू हो गया। इस युद्ध में लगभग बीस के करीब राजपूत युवक अपनी वीरगति को प्राप्त हुए।
ब्रिटिश सेना के कई सैनिक रामसिंह पठानियां के हाथों मारे गए और ब्रिटिश सेना के दो अधिकारी सर राबर्ट पील व राबर्ट वाउन सैकण्ड-इन-कमांड जॉन पील सहित कई सैनिक गम्भीर रूप से घायल हो गए। लेफ्टिनैंट जान पील की भी बाद में मौत हो गई।
मदद न मिलने पर थमा अभियान
इस लड़ाई के बाद ब्रिटिश शासक खासे दबाव में आ गए। रामसिंह पठानियां को जीवित या मृत लाने वाले को दो हजार रुपए इनाम की घोषणा कर दी गई। वे ब्रिटिश सेना की घेराबंदी से निकलकर रावी नदी के पार सुरक्षित पहुंच कर हमले की अगली योजना बनाने में जुट गए।
राजा शेर सिंह ने आगे के संघर्ष में रामसिंह पठानियां की मदद से इंकार कर दिया तो उन्होंने अपने अभियान को कुछ समय के लिए स्थगित कर दिया। उन्होंने अपने सभी साथियों को अपने घरों को चले जाने की सलाह दी।
इस तरह खुल गया भेद
रामसिंह पठानियां साधु के वेश में ब्रिटिश सेना की गतिविधियों पर नजर रखने लगे। इसी दौरान उनके भरोसेमंद मित्र पहाड़ चन्द को घर कांगड़ा लौटते समय ब्रिटिश गुप्तचरों के पहचाने के बाद ब्रिटिश सैनिकों ने पकड़ लिया।
लालच और भय दिखा कर उससे राम सिंह पठानिया के रावी पार होने की सूचना हासिल कर ली। फिर क्या था उसे दबोचने के लिए अंग्रेजों ने ताना – बाना बुन डाला।
‘वालो दा टियाला’ में बाप- बेटे की मुलाक़ात
ब्रिटिश सेना ने सूचना पाकर गुप्तचरों का जाल बिछा दिया। जम्मू के महाराजा गुलाब सिंह के कुछ सिपाहियों ने उन्हें पहचान लिया और जसरोटा में निहत्थे शूरवीर रामसिंह पठानियां को ब्रिटिश हिरासत में ले लिया।
उन्हें हिरासत में लेकर पालकी में बैठा कर नूरपुर लाया गया। बासा और नूरपुर के बीच पड़ते ‘वालो दा टियाला’ नामक स्थान पर पिता बजीर शाम सिंह की अपने शूरवीर बेटे की आखिरी मुलाकात हुई। रामसिंह पठानियां को कांगड़ा के किले में नजरबन्द कर दिया गया।
मृत्युदंड की सजा काले पानी में बदली
धर्मशाला के डिस्ट्रिक्ट मैजिस्ट्रेट जी सी वारेन की अदालत में उन्हें मृत्युदंड की सजा सुनाई। कमीश्नर ट्रांस सतलुज स्टेट डी.एच. मैकलोड की सिफारिश पर बोर्ड ऑफ एडमिनिस्ट्रेशन पंजाब के हस्तक्षेप से गर्वनर जनरल लार्ड डल्हौजी ने उनकी सजा को आजीवन कारावास में बादल दिया। कुछ समय बाद उन्हें देश निकाला देकर आजीवन कारावास के रूप में सिंगापुर भेज दिया।
आजीवन कारावास की सजा भुगतने के लिए उन्हें बर्मा की राजधानी रंगून की मौलमियन जेल ले जाया गया। यहां पर कई वर्षों तक अमानवीय यातनाएं सहते हुए11 नवम्बर 1856 को उनकी शहादत हो गई।
नूरपुर रियासत के अवदाल जट्टू, धम्मन और बिल्लू ने रामसिंह पठानियां की शौर्यागाथा गाकर अपने नायक को अमर कर दिया। शौर्यागाथा कुछ इस तरह से है-
‘डल्ले दिया धारा डफले बजदे,
कुम्भणी बज्जे तंबूर राजा जी,
कोई ऐसा पठानियां खूब लड़ेया।’
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