लाहौर हाईकोर्ट में गूंजे खनियारा के स्लेट

लाहौर हाईकोर्ट में गूंजे खनियारा के स्लेट
  • 1867 में रॉबर्ट बर्कले शॉ ने शुरू की थी कांगड़ा वैली स्लेट कंपनी

  • साल 1930 में ग्रामीणों को मुआवजे के भुगतान पर लग गई रोक

विनोद भावुक/ धर्मशाला

ब्रिटिश सरकार ने 1868 की पहली संशोधित सेटलमेंट्स के तहत उस भूमि का आंशिक स्वामित्व स्थानीय खेतदारों व जमीन मालिकों को सौंप दिया, जहां पर खनियारा की स्लेट खाने मौजूद थी। इसके बदले में स्थानीय जमीन मालिक औपनिवेशक सरकार को भूमि कर का भुगतान करते थे। ब्रिटिश निवेशक रॉबर्ट बर्कले शॉ ने साल 1867 में कांगड़ा घाटी स्लेट कंपनी शुरू की, जिसने स्लेटों का खनन कार्य शुरू किया।

शॉ की कंपनी खनन के लिए उक्त भूमि के उपयोग के लिए खेतदारों और स्थानीय ग्रामीणों को मुआवजा देती थी। साल 1930 में कांगड़ा घाटी स्लेट कंपनी ने खानों की जमीन के उपयोग के बदले ग्रामीणों को मुआवजे का भुगतान करने पर रोक लगा दी।

इस मामले को लेकर खनियारा पंचायत ने लाहौर हाईकोर्ट में मुकद्दमा दायर किया। कोर्ट ने आदेश दिया कि कंपनी को उक्त जमीन का उपयोग करने की एवज में ग्रामीणों को मुआवजा देना पड़ेगा।

समुदाय आधारित खनन प्रबंधन

साल 1947 में भारत आजाद हो गया और सरकार ने शामलात भूमि का पूर्ण स्वामित्व स्थानीय हाथों में सौंप दिया। पंजाब विलेज कॉमन लैंड (रेगुलेशन) एक्ट 1953 के साथ ही खनियारा और दाड़ी ग्राम पंचायतें स्लेट खदानों की नई मालिक बन गईं।
खनियारा में स्लेट खानें।

साल 1947 में भारत आजाद हो गया और सरकार ने शामलात भूमि का पूर्ण स्वामित्व स्थानीय हाथों में सौंप दिया। पंजाब विलेज कॉमन लैंड (रेगुलेशन) एक्ट 1953 के साथ ही खनियारा और दाड़ी ग्राम पंचायतें स्लेट खदानों की नई मालिक बन गईं।

पंचायतों ने स्थानीय गांवों के परिवारों को स्लेट खदान के ठेके देने शुरू दिए। स्थानीय लोगों ने खनन के लिए छोटी-छोटी खानें शुरू की। यह समुदाय आधारित खनन प्रबंधन साल 1971 तक सुचारू रूप से चला। साल 1971 में खानों के अधिकार को लेकर खनियारा व दाड़ी पंचायतों के बीच विवाद शुरू हो गया।

खनियारा- दाड़ी स्लेट क्वैरी बोर्ड

पंचायतों के इस विवाद को सुलझाने के लिए जिला कलेक्टर ने हस्तक्षेप किया और दोनों पंचायतें लाभ की बराबर हिस्सेदारी पर सहमत हुई। खनियारा- दाड़ी स्लेट कैरी बोर्ड का गठन किया गया, जिसमें दोनों पंचायतों के प्रतिनिधि शामिल थे। दोनों पंचायतों के प्रतिनिधि छह-छह माह के लिए बोर्ड के अध्यक्ष बनाए जाते थे।

कैरी बोर्ड का काम खानों को लीज पर देने, खनन के मुनाफे की हिस्सेदारी लेने और प्रशासनिक खर्चे व कर्मचारियों के भुगतान के बाद बचे मुनाफे को दोनों  पंचायतों में बराबर बांटने का काम था।

इस प्रणाली को काफी सफलता मिली। उस दौर पर जब देश की पंचायतों के पास आय का कोई साधन नहीं था, खनियारा और दाड़ी पंचायतों की खनन से सलाना आय पांच लाख से ज्यादा थी।

500 ठेकेदारों व ट्रांसपोर्टरों को कारोबार

सामुदाय आधारित खनन प्रबंधन के इस मॉडल में खनन खूब चमका। 500 ठेकेदार व ट्रांसपोर्टर स्लेट खानों के काम से प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से जुड़ गए।

खनन की बढ़ती गतिविधियों ने जम्मू-कश्मीर के खान श्रमिकों को खनियारा के लिए आकर्षित किया। खनियारा पंचायत ने कई सामुदायिक योजनाएं शुरू कीं।

400 स्लेट खानों का प्रबंधन

मजदूरों के रेस्ट रूम और टॉयलेट सहित शानदार पंचायत भवन का निर्माण किया। 12 बिस्तर वाले अस्पताल की स्थापना के अलावा छह नए स्कूल भवनों का निर्माण कर स्थानीय प्राथमिक पाठशाला को हाई स्कूल में स्तरोन्नत किया गया।

गांवों के आसपास सड़कों और पक्की गलियों का निर्माण किया गया। खानियारा- दाड़ी स्लेट क्वैरी बोर्ड ने पूरे भारत की अन्य पंचायतों के लिए एक प्रेरणादायक मॉडल प्रदान किया। 625 हेक्टेयर पर 400 स्लेट खानों का प्रबंधन यह बोर्ड देखता था। यहां चार से छह हजार श्रमिक कार्य करते थे।

कानूनी उलझनों के बीच खनन

खानियारा- दाड़ी स्लेट क्वेरी बोर्ड 1952 के बाद से स्लेट खनन के कामकाज का प्रबंधन कर रहा था। 45 वर्ष के लंबे कार्यकाल में जहां दोनों पंचायतें एक-दूसरे के खिलाफ कानूनी मामलों में उलझी, वही सरकार के खिलाफ भी कानूनी लड़ाई लड़नी पड़ी।

साल 1965 में प्रदेश सरकार ने इंडियन फोरेस्ट एक्ट-1927 के तहत अधिसूचना जारी कर दोनों पंचायतों के खनन अधिकार को निलंबित कर दिया। पंचायतों ने सरकार की इस अधिसूचना को अदालत में चुनौती  दी। साल 1971 में एडिशनल जज कांगड़ा ने पंचायतों के पक्ष में निर्णय सुनाया।

हाईकोर्ट से भी जीतीं पंचायतें

वर्ष 1974 में हिमाचल सरकार ने हिमाचल प्रदेश कॉमल लैंड एक्ट 1974 लागू किया। इस एक्ट के तहत पंचायतों के अधिकार वाली कॉमन लैंड पर प्रदेश सरकार का स्वामित्व हो गया।

सरकार के इस निर्णय के खिलाफ पंचायतों ने हाईकोर्ट शिमला का दरवाजा खटखटाया। अप्रैल 1978 में एक बार फिर से 625 हैक्टेयर भूमि पर  खानों के प्रबंधन का अधिकार पंचायतों को मिला।

याचिका पर रुका स्लेट का खनन

1980 के दशक में किसान सभा ने सुरक्षा और पर्यावरण को आधार बनाकर स्लेट खानों के खिलाफ कानूनी लड़ाई शुरू की। साल 1997 में अधिवक्ता तृषा शर्मा ने  पर्यावरण संकट को आधार बनाकर हाईकोर्ट शिमला में याचिका दायर की। हाईकोर्ट ने इस याचिका पर सुनवाई करते हुए स्लेट के खनन पर पाबंदी लगा दी।

1.65 करोड़ एनपीवी, 25 हैक्टेयर पर खनन

वर्तमान में खनन का काम प्रदेश का उद्योग विभाग देखता है। केंद्रीय वन और पर्यावरण मंत्रालय ने प्रदेश सरकार को प्रदेश पर्यावरण नियंत्रण बोर्ड के अनापत्ति प्रमाणपत्र के अधीन चयनित 25 हेक्टेयर भूमि के क्षेत्र में खनन कार्यों को अनुमति दी है।

खनन के लिए नेट प्रेजेंट वेल्यू राशि जमा न करवाने पर केंद्र सरकार ने यहां खनन पर पाबंदी लगा दी थी। प्रदेश सरकार 1.65 करोड़ रुपए की नेट प्रेजेंट ने वेल्यू (एनपीवी) केंद्र सरकार के पास जमा करवा कर स्लेट खानों पर आए संकट को टाला।

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