लाहौल घाटी से मिले लोटे ने पहली बार खोले कौन से राज ?
हिमाचल बिजनेस/ केलंग
लाहौल घाटी से मिले एक लोटे ने पहली बार दुनिया के सामने बड़े राज खोले हैं। पहली बार इस बात का खुलासा हुआ है कि तिब्बत से पहले लाहौल घाटी में बौद्ध धर्म का आस्तित्व था।
लाहौल घाटी के गन्धोला में ऐसे कुछ पुरातात्विक अवशेष प्राप्त हुए हैं, जिसका केवल लाहौल में ही नहीं, पूरे भारतीय इतिहास में महत्व है। ब्रिटिश राज के दौरान साल 1857 में मेजर हे कुल्लू में असिस्टेंट कमिश्नर नियुक्त थे। उनके कार्यकाल में गन्धोला में किसी स्थान पर मन्दिर के कुछ अवशेष ज़मीन से निकाले गए थे।
मेज़र हे के उस स्थल पर पहुंचने से पहले कई चीजें लुप्त हो चुकी थी, लेकिन उनमें एक खास चीज़ बच गई थी। वह मिश्रित धातु से बना एक लोटा था। लोटे पर रथ पर बैठ कर शोभायात्रा जाते हुए एक राजकुमार का चित्रण उकेरा गया था।
बताया जाता है कि लाहौल घाटी से मिले इस लोटे पर उकेरा गया चित्र सिद्धार्थ का है, जब वे अभी राजकुमार थे। गौतम से महात्मा बुद्ध होने से पहले उनके ऐसे चित्र भारत में और भी कई स्थानों से प्राप्त हुए हैं।
कब का बना हुआ है बना लोटा?
उस समय लाहौल घाटी से मिले इस इस लोटे का काल तृतीय सदी अनुमानित किया गया था, परन्तु प्रसिद्ध इतिहासकार ए. एल. बाशम ने अपने ग्रन्थ ‘द वंडर सेट वाज़ इंडिया’ में इस लोटे के निर्माण का समय पहली-दूसरी सदी आंका है।
मंदिर के अवशेषों में कुछ और भी बहुमूल्य वस्तुएं उपलब्ध हुई हैं, जिनमें संगमरमर की मुकुटधारी एक मूर्ति है, जिसका केवल शरीर का ऊपर का भाग ही दिखता है। लाहौल घाटी के इतिहास और संस्कृति के विद्वान तोबदन अपने आलेखों में इसका जिक्र करते रहे हैं।
दो नदियों के मध्य पहाड़ के शिखर पर गन्धोला
लाहौल घाटी के गन्धोला की भौगोलिक स्थिति अत्यन्त महत्वपूर्ण है। यह क्षेत्र दो नदियों के मध्य एक पहाड़ के शिखर पर स्थित है। लाहौल घाटी का उस समय की अंतरराष्ट्रीय भौगोलिक परिस्थितियों में एक विशेष स्थान था।
लाहौल घाटी के रास्ते होकर कर मध्य एशिया के व्यापारिक केन्द्र से लद्दाख, लाहुल, कुल्लूत,कांगड़ा, पाकिस्तान और अफगानिस्तान के कई महत्वपूर्ण शहरों तक व्यापारी व्यापार करते थे।
लाहुल से लद्दाख के बीच खाली स्थान है, जो तकरीबन एक सप्ताह का पैदल या खच्चर का रास्ता है। इसलिए उस समय इस ओर यात्रा शुरू करने से पहले लाहौल घाटी में राशन की पूर्ति करना जरूरी हो जाता था।
चौरासी सिद्धों से जुड़ा स्थान
लाहौल घाटी के गन्धोला के ऊपर की पहाड़ी को डिल्बू-री कहते हैं। जिसका मतलब है घंटा पर्वत। यह स्थान चौरासी सिद्धों में एक डिल्बूपा अर्थात घंटापाद से यह संबन्धित माना जाता है।
इसी परम्परा का शिखर शैली में बना त्रिलोकीनाथ का मंदिर तथा उदयपुर का पहाड़ी-पैगोड़ा शैली में निर्मित हिन्दु-बौद्ध मृकुला देवी मंदिर भी है। ऐसे में यह सवाल उठता है कि त्रिलोकीनाथ मंदिर और मृकुला देवी मंदिर भी उसी काल में निर्मित हुए हैं?
कुषाण काल में स्थापित मंदिर के अवशेष
कुछ इतिहासकारों का अनुमान है कि लाहौल घाटी में बौद्ध धर्म की शुरुआत आठवीं सदी में तांत्रिक गुरु पद्मसम्भव के काल में हुई, लेकिन लाहौल घाटी में कुषाण काल में स्थापित मंदिर के अवशेष गवाही देते हैं कि लाहौल में बौद्ध धर्म का प्रवेश सम्राट अशोक के काल में हो गया था।
अवशेष इस तरफ भी इशारा करते हैं कि यह भी संभव है कि उस समय लाहौल घाटी में बौद्ध धर्म के कुछ मंदिरों की नींव भी पड़ चुकी थी। अवशेष सिद्ध करते हैं कि तिब्बत से पहले लाहौल में बौद्ध धर्म उपस्थित था।
तिब्बती बौद्ध धर्म ने संभाली विरासत
भारत में जब बौद्ध धर्म की लौ बुझने लगी तो लाहौल घाटी में इस धर्म की विरासत को लामा धर्म अथवा तिब्बती बौद्ध धर्म ने संभाल लिया। लामा धर्म ने इन स्थापत्यों को उन्होंने संभाला तथा नए मंदिर स्थापित किए।
ओथंग, मने गोन्पा, शशुर, गिमुर, करदंग इनमें प्रसिद्ध हैं। ‘शशुर’ गोम्पा का पूरा नाम है टशी- शुगलिंग अर्थात मंगलकारी देवदारू का स्थान।
इसे सन 1601 में जंखर से आए एक आचार्य दे-वा ग्यम्छो ने स्थापित किया था। वे तिब्बत के प्रसिद्ध गुरु तग छंग रेपा के समकालीन थे। तगछंग रेपा ने तिब्बत से लाहौल घाटी से होते हुए अफगानिस्तान तक तीर्थ यात्रा की थी। लाहौल घाटी में गिमूर का मन्दिर उनसे सम्बन्धित है।
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