लोक नृत्य :  नाचने के हुनर में हम दुनिया के उस्ताद

लोक नृत्य :  नाचने के हुनर में हम दुनिया के उस्ताद

विनोद भावुक/ धर्मशाला

लोक संस्कृति की विराटता लोक संगीत में निहित है। लोक नृत्य जीवन की एकसरता को तोडकऱ उसमें नवीनता का संचार कर नई चेतना एवं उल्लास भरते हैं और जीवन से थके-हारे, निराश टूटे मन को संजीवनी प्रदान करते हैं। वास्तव में हिमाचल प्रदेश नृत्यों की धरती है। इनमें यहां की संस्कृति पलती है, परंपराएं बोलती हैं, रिवाज जीते हैं, लोक हंसता व नाचता है।

ये नृत्य जीवन की एकसरता को तोडकऱ उसमें नवीनता का संचार कर नई चेतना एवं उल्लास भरते हैं और जीवन से थके-हारे, निराश टूटे मन को संजीवनी प्रदान करते हैं।

लोक संगीत और लोक नृत्य का मेल

पहाड़ सी पहाड़ी जिंदगी को सरल, सुखद एवं मस्त बनाकर दिव्यानंद से समूची घाटी को स्पंदित करने की सामर्थ्य रखते हैं हिमाचली लोक संगीत व लोक नृत्य।

देव-भूमि में जहां एक ओर मंदिरों एवं देवालयों की भरमार है, जहां आस्था का सैलाब उमड़ता रहता हैं, वहीं दूसरी ओर लोक संगीत हिमाचल के लोगों के दिलों की धड़कन है।

हिमाचली जन-जीवन के सुख-दुख की झलक मिलती है यहां के लोक गीतों में। शादी हो या त्योहार, मेला हो या कोई भी पारिवारिक उत्सव, लोग संगीत व नृत्य में डूबे नजर आते हैं।  इन नृत्यों में स्थानीय इतिहास, सांस्कृतिक परंपराएं एवं लौकिक मान्यताएं प्रतिबिम्बित मिलती हैं।

देवभूमि में कई तरह के नृत्य

लवी का मेला हो या मंडी की शिवरात्रि, कुल्लू का दशहरा हो या रेणुका का मेला, सब उत्सव हिमाचली लोक संगीत में सरोबार नजर आते हैं। देव-नृत्य, राक्षस नृत्य, डंगी-नृत्य, लासा नृत्य, नाटी नृत्य, नागस-नृत्य, डुमशोम नृत्य, द्रोणी नृत्य आदि लोक नृत्य बड़े चाव एवं मस्ती में नाचे जाते हैं और घंटों तक चलते हैं।

किन्नौरी, सिरमौरी, चंबयाली, मंडयाली, कुल्लवी नृत्यों के नर्तक जब अलग-अलग परिधान पहनकर नृत्य करते हैं तो देखने वालों की धडकऩें थम सी जाती हैं। प्रदेश के हर जिले का अपना लोक संगीत है।

वीरगाथाओं से लबरेज नृत्य

सिरमौर की धरती देवभूमि के साथ-साथ वीरों एवं वीरांगनाओं की भी धरती है। इसलिए यहां के लोकनृत्य एवं लोकगीत वीर रस व वीरगाथाओं से लबरेज हैं।

कमना, मदना, सामा, नोंटराम, हाकू सिंगरा, सिंगरौ, पझौता आदि के वीरों पर न जाने कितने लोकगीत व नृत्य बने हुए हैं।

बिलासपुर में स्वांग और धाज्जा

बिलासपुर में स्वांग के अलावा एक अन्य प्रमुख नृत्य धज्जा है, जिसमें कलाकारों द्वारा ऐतिहासिक पात्रों का सजीव अभिनय किया जाता है।

इस नृत्य की यह विशेषता है कि इसे एक जाति विशेष ही प्रस्तुत करती है जिसमें जिले की पुरातन संस्कृति के सजीव दर्शन होते हैं।

धाज्जा की एक और विशेषता है कि इसमें पुरुष ही स्त्री कलाकारों की भूमिका निभाते हैं। इस नृत्य को घरों में करवाना लोग शुभ मानते हैं।

अनेक रूपों में प्रचलित नारी-नृत्य

सिरमौर, महासू, चंबा, मंडी, कुल्लू आदि क्षेत्रों में नारी-नृत्य अनेक रूपों में प्रचलित है। कुल्लू में ऐतिहासिक दृष्टि से इसे ‘सिराजी नाटी’ कहा जाता है। इसमें गीत कुल्लू से तथा सुर-ताल भीतरी सिराजी से लिए हैं।

कुल्लू में कोई भी पारवारिक मांगलिक उत्सव हो, त्योहार हो या विश्व प्रसिद्ध कुल्लू का दशहरा, नाटी का प्रदर्शन ज़रूर होता है।

कुल्लुई नाटी मौज-मस्ती के लिए नाच-गाने की हुल्लड़बाजी नहीं है, बल्कि अनुशासन में किया जाने वाला लोक नृत्य है, जिसमें नर्तकों को अपने दल के नेता का अनुसरण करना होता है।

ताल परिवर्तन के साथ बदलते बोल और स्वर

नेता हेसी और ढोली की ताल का अनुसरण करता है। ताल परिवर्तन के साथ गाने के बोल और उनका स्वर भी बदल जाता है और साथ ही नाच की मुद्राएं भी बदल जाती हैं जिसे देखकर मन झूम-झूम कर गुनगुनाते लगता है और पांव थिरकने लगते हैं। ‘नाटी’ की यही विशेषता है।

मुखौटे पहन कर नृत्य

किन्नौर क्षेत्र का लोक नृत्य एक अनूठी मिठास लिए हुए है। किन्नौरी महिला के नृत्य में तो आठ किलोग्राम भार के आभूषण पहनने की परंपरा है। किन्नर क्षेत्र में पारंपरिक लामाओं तथा देवताओं के नृत्य तथा राक्षस संबंधी नृत्य आदिम जीवन की याद दिलाते हैं। किन्नरों को तो ‘हिरण नर्तक’ की संज्ञा दी गई है।

राक्षस नृत्य मुखौटे पहनकर नाचा जाता है। ये मुखौटे तीन, पांच, सात, नौ की संख्या में होते हैं। दुरात्माओं तथा राक्षसों से फसल की रक्षा हेतु इस लोक नृत्य

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