शिमला का ‘मस्त’ फ्रांसीसी फकीर, जो पहनता था तेंदुए की खाल
विनोद भावुक/ शिमला
ब्रिटिश राज के दौरान शिमला में एक फ्रांसीसी फकीर बेहद चर्चित था। लोग उसे ‘मस्त’ बाबा के नाम से पुकारते थे। फ्रांसीसी फकीर शिमला की सबसे ऊंची चोटी जाखू पर बने हनुमान मंदिर में रहता था। इस फकीर का नाम चार्स्स डी रसेट था और सन्यास लेने से पहले शिमला के बिशप कॉटन स्कूल का स्टूडेंट रहा था।
सेवानिवृत्त ब्यूरोक्रेट और वरिष्ठ लेखक श्रीनिवास जोशी अपने एक आलेख में कहते हैं कि वह शिमला के मशहूर जाखू मंदिर के बाबा के संपर्क में आया और उनके उपदेश से प्रभावित होकर साल 1880 के दशक में एक फकीर का जीवन अपना लिया और फ्रांसीसी फकीर बन गया।
बिशप कॉटन स्कूल का एक्स स्टूडेंट
कहानी की शुरुआत कुछ ऐसे होती है। उन्नीसवीं सदी में सीडब्ल्यूडी रसेट फ्रांस से भारत आए। वे एक कुशल टेलर थे। वह साल 1850 के दशक में वे अपने दोस्त टी रिंकी के साथ शिमला पहुंचे। उन्होंने फोटोग्राफी करनी शुरू कर दी और जल्द ही व्यावसायिक फोटोग्राफर बन गए।
1864 में उन्होंने फोटोग्राफी छोड़ दी। चार्स्स डी रसेट उनका बेटा था शिमला के बिशप कॉटन स्कूल का स्टूडेंट था। स्कूली शिक्षा पूरी करने के तुरंत बाद अचानक उसकी भारतीय तपस्या और रहस्यवाद में रुचि विकसित हुई और साधु बन कर फ्रांसीसी फकीर के नाम से जाना जाने लगा।
जाखू के बाद लगाया कैथू में डेरा
फ्रांसीसी फकीर चार्ल्स डी स्सेट ने हिंदू धर्म के लिए ईसाई धर्म को त्याग दिया। उन्होंने विरासत में मिली संपत्ति अपनी बहनों को दे दी और जाखू के बाबा के शिष्य के रूप में जीवन व्यतीत किया। वह बाहर खुले में सोते थे और भक्तों से मिला भोजन ही ग्रहण करते थे।
स्थानीय हिंदू बाबा लोग फ्रांसीसी फकीर को बहुत सम्मान देते थे। बाद में फ्रांसीसी फकीर कैथू में अन्नाडेल मैदान के पास एक मंदिर में चले गए। वे तेंदुए की खाल पहनते थे और उनके बाल उलझे हुए होते थे।
जाखू की चोटी पर अंतिम संस्कार
श्रीनिवास जोशी लिखते हैं कि पहाड़ों में भारी बर्फबारी होने पर भी फ्रांसीसी फकीर रसेट खुश और संतुष्ट रहते थे। इस बाबा ने इसके बाद साधुओं की संगति में शिमला छोड़ दिया ओर उनके बारे में कभी नहीं सुना गया।
साल 1926 में अचानक बाबा मस्त राम के रूप में यहां लौट आए और जाखू मंदिर में सेवा का काम संभाल लिया। उन्होंने हिंदू धर्मग्रंथों में महारत हासिल कर ली थी और लोग उनके ज्ञान से आश्चर्यचकित थे। उनकी मृत्यु 27 दिसंबर, 1927 को हुई और उनका अतिम संस्कार जाखू चोटी पर किया गया।
लाहौर की किताब में जिक्र
जॉन कैंपबेल ओमान लाहौर के सरकारी कॉलेज में प्राकृतिक विज्ञान के प्रोफेसर थे। उन्होंने अपनी पुस्तक, ‘द मिस्टिक्स, असेटिक्स एंड सेंट्स ऑफ इंडिया’ के कंटेट के लिए पूरे भारत का भ्रमण किया और कई संतों के साक्षात्कार लिए।
साल 1894 में शिमला में ओमान की लंबी चर्चा फ्रांसीसी फकीर से हुई, जिसमें कई विषयों पर फ्रांसीसी फकीर ने खुल कर अपनी बात रखी थी। ओमान ने हिंदू धर्म, ब्राह्मणबाद, महाभारत ओर रामायण महाकाव्यों पर विद्वतापूर्ण किताबें लिखी हैं।
बुद्धि औसत, सम्मान सर्वोच्च
साधु से मुलाकात के बाद ओमान को पता चला कि फ्रांसीसी फकीर रसेट को उनके उठाए गए कदम पर पछतावा नहीं था। वह एक हिंदू भक्त और संन्यासी के रूप में अपनी स्थिति और जीवन शैली से पूरी तरह संतुष्ट थे।
मुलाकात के दौरान फ्रांसीसी फकीर हिंदू धर्म के पक्ष में ईसाई धर्म छोड़ने के कारणों के बारे में बात करने को तैयार नहीं थे।
प्रोफेसर ओमान लिखते हैं कि उन्होंने ऐसा पाया कि औसत दर्जे की बुद्धि होने के बावजूद रसेट ने शिमला के मूल निवासियों से सर्वोच्च सम्मान प्राप्त किया था।
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