साहसिक शॉट : शिमला के हीरो को लेकर तेज तर्रार घोडा, कोलकाता की शूटिंग में मीलों सरपट दौड़ा

साहसिक शॉट : शिमला के हीरो को लेकर तेज तर्रार घोडा, कोलकाता की शूटिंग में मीलों सरपट दौड़ा
विनोद भावुक | शिमला
शिमला की पहाड़ियों में कई कहानियां दबी हैं, लेकिन पंडित विजय कुमार की कहानी उनमें सबसे रोशन है। ‘सुनहरा संसार’, ‘हरि कीर्तन’ और ‘मेरी आशा’ जैसे फिल्मों ने अभिनेता विजय कुमार की लोकप्रियता के ग्राफ के एकाएक चढ़ा दिया था। ये सभी फिल्में उनके कोलकाता प्रवास के दौरान निर्मित की गईं थीं। कोलकाता में ही शूटिंग के दौरान घोड़े पर दिया गया पंडित विजय कुमार का एक साहसिक शॉट आज भी हिन्दी सीने जगत में खूब याद किया जाता है। हुआ यूं कि तेज-तर्रार घोड़ा जिसकी पीठ पर विजय कुमार सवार थे, उनको 15-20 मील दूर अपने मालिक की हवेली तक ले गया। यह देख फिल्म यूनिट घबरा गई थी।
विजय कुमार कुछ समय बाद ही घोड़े की पीठ पर सवार मुस्कुराते हुए लोकेशन पर पहुंचे। इस घटना ने उन्हें फिल्म सेट पर असली ‘हीरो’ बना दिया। कम ही लोगों को पता था कि घुड़सवारी में उनका आत्मविश्वास शिमला की मिट्टी से जुड़ा था। उनके पिता के घोड़ों का बड़ा कारोबार थी और विजय कुमार को बचपन से ही घोड़े नियंत्रित करने का अनुभव था।

10 मार्च 1905 को तत्कालीन पटियाला रियासत के शिमला के नज़दीकी गांव शगीण में पंडित कांशी राम के घर पैदा हुए विजय कुमार के नामकरण के समय ही ज्योतिषियों ने कह दिया था कि यह बालक जीवन में बड़ा मुकाम हासिल करेगा। वक्त के साथ यह भविष्यवाणी अक्षरशः सच साबित हुई।
उस दौर में शिमला अंग्रेज़ी ठाठ-बाट का केंद्र था। माल रोड पर आम हिंदुस्तानियों का आना-जाना सीमित था, लेकिन पंडित कांशी राम का घोड़ों का बड़ा कारोबार होने के कारण वे अंग्रेज़ी समाज से निकट संपर्क में रहे। यही वजह थी कि उन्होंने अपने बेटे विजय कुमार को विशिष्ट व्यक्तित्व बनाने का सपना देखा।

विजय कुमार की पढ़ाई शिमला से हुई। मैट्रिक के बाद वे पटियाला के महेंद्र कॉलेज, फिर लाहौर के एस.डी. कॉलेज और ऑरिएंटल कॉलेज में पढे। पढ़ाई के साथ उनका दिल थिएटर में बसता था। गेयटी थिएटर में उन्होंने कई नाटकों में अभिनय किया। उस दौर की परंपरा के अनुसार उन्होंने कई महिला पात्र भी निभाए।
साल 1920 में आगा हथ कश्मीरी के नाटक ‘असीरे हिंस’ उनका पहला मंचीय अनुभव था। यहीं से अभिनय के प्रति उनकी दिवानगी बढ़ती गई। हिन्दी सिनेमा में उनका थियेटर का अनुभव बहुत काम आया और उनके लिए सिनेमा इंडस्ट्री के दरवाजे खुलते गए।

लाहौर में पढ़ाई के दौरान विजय कुमार की मुलाकात प्रीमियर फिल्म कंपनी के निर्माता से हुई और उन्हें मूक फिल्म ‘दुख्तरे ज़माना’ में नायक का रोल मिल गया। इसके बाद वे मुंबई पहुंचे और ‘संजीव मूर्ति’ नामक सवाक फिल्म से सिनेमा में मजबूती से स्थापित हुए। न्यू थिएटर्स मुंबई के साथ जुड़कर विजय कुमार ने आज़ादी, अभागिन जैसी फिल्मों में नायक, गीतकार और संगीतकार के रूप में काम किया। अभागिन में उनके साथ पृथ्वीराज कपूर और कमलेश कुमारी थीं।
1936 में देवकी कुमार बोस उन्हें कोलकाता ले गए। सुनहरा संसार, हरि कीर्तन, मेरी आशा जैसी फिल्मों से उनकी लोकप्रियता का ग्राफ बढ़ता गया। ‘सुनहरा संसार’ में उन्होंने 17 गीत लिखे और गाए भी। इसी दौरान उन्होंने पहाड़ी लोकगीतों को रिकॉर्ड करवाकर अमर कर दिया।

पिता की बीमारी और बाद में देहांत ने विजय कुमार की फिल्मी यात्रा रोक दी। साल 1947 के बाद वे पूरी तरह घर और ज़मींदारी में व्यस्त हो गए, लेकिन कलाकार का मन मंच और माइक के बिना कहां मानता है? उनके अंदर के कलाकार को घर पर ही हुनर दिखने का मौका मिल गया।
साल 1955 में आकाशवाणी शिमला की स्थापना हुई तो विजय कुमार उससे जुड़ गए। नाटक, लोक नाट्य, गीत-संगीत, हास्य-विनोद, हर क्षेत्र में उन्होंने छाप गहरी छोड़ी। उनका ‘साहब का स्वांग’ गेयटी थिएटर में दर्शकों को लोटपोट कर देता था।

विजय कुमार अपने लिबास, अंदाज और हाज़िरजवाबी के लिए मशहूर थे। स्टूडियो के माहौल को चुटकुलों और चुहल से हंसी-ठहाकों में बदल देना उनकी आदत थी। उनका जीवन कला, साहस और आत्मीयता का संगम था। उन्होंने मंच से लेकर फिल्म और रेडियो तक, हर माध्यम में अपनी पहचान बनाई।
3 नवंबर 1977 को उन्होंने अंतिम सांस ली, लेकिन उनकी आवाज़, अभिनय और व्यक्तित्व आज भी यादों में जिंदा है। गेयटी थिएटर के मंच, माल रोड की पुरानी गलियां और आकाशवाणी का स्टूडियो, सब आज भी उनके किस्सों और गीतों की गूंज से भरे हैं।
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