प्रेरककथा – कैदी उसे ‘मां’ कहते थे, कैदियों का जीवन बदलने वाली अमर कहानीकार, अनुवादक, समीक्षक, उद्घोषिका एवं समाजसेवी सरोज वशिष्ट
विनोद भावुक / शिमला
यह प्रेरककथा है अमर कहानीकार, अनुवादक, समीक्षक एवं उद्घोषिका सरोज वशिष्ठ की, जिन्होंने कैदियों के जीवन में गहरे झांका और कैदियों का जीवन संवारने में अपनी सारी जिंदगी लगा दी।
अपने काम की वजह से वे तिहाड़ से लेकर कैथू और कंडा जेल के कैदियों की इतनी चहेती हो गईं कि कैदी उन्हें ‘मां’ कहते थे।
‘हिमाचल मित्र’ पत्रिका के कैदियों पर आधारित एक अंक में सरोज वशिष्ठ ने बताया था कि उनका कांगड़ा जिला मुख्यालय धर्मशाला के नजदीक योल कस्बे से बचपन से गहरा नाता था।
दूसरे विश्व युध्द के दौरान साल 1941 से 1944 तक इटली के युध्दबंदी योल में बनाये गये शिविरों में नजरबन्द बनाकर रखे गये थे। उद्योगपति शामलाल मैणी योल कैम्प के सिनेमा हॉल में इन युद्धबंदियों को फ़िल्में दिखाते थे।
साल 1931 में पैदा हुई सरोज इस कालखंड में बचपन से किशोरावस्था में प्रवेश कर रही थीं। यहीं पर उन्हें युद्धबंदियों और कैदियों के जीवन में गहरे झांकने का अवसर मिला और उनके जीवन को बदलने की ललक पैदा हुई।
जीवन के आख़िरी लम्हों तक प्रयास
मानो किशोरावस्था में ही सरोज वशिष्ट के जीवन को मकसद मिल गया हो। वे ताउम्र कैदियों के जीवन को बेहतर बनाने के लिए प्रयास करती रहीं। मौत से ठीक पहले तक वे कैदियों के जज्बातों को किताब में उतारने के प्रयासों में जुटी रहीं।
पांच दिसम्बर 2015 की रात को शिमला के विकासनगर की एक रेजिडेंशियल कॉलोनी में हुए आगजनी के हादसे में 84 साल की उम्र में भगवान को प्यारी होने से पहले जिन्दगी के आख़िरी लम्हों तक सरोज वशिष्ठ कैदियों को नए सिरे से जीवन शुरू करने के लिए प्रोत्साहित करने की दिशा में संघर्षरत रहीं।
नाटकों से जगाये कैदियों के जज्बात
प्रसार भारती से रिटायर्ड होने के बाद सरोज वशिष्ठ पूरी तरह से कैदियों के जीवन में बदलाव लाने के लिए समर्पित हो गईं। कैदियों के जज्बातों से उतरे शब्दों को कभी कविताओं तो कभी नाटकों के जरिए बाहर लाने के प्रयास किये।
उन्होंने दिल्ली की तिहाड़ जेल 25 से ज्यादा नाटकों का मंचन किया तो और शिमला की कैथू और कंडा जेल में भी 20 नाटक करवाए। नाटकों के जरिये उन्होंने कैदियों के सोये हुए जज्बातों को जगाने की पूरी कोशिश की। वे विभिन्न अवसरों पर जेलों में जाकर कैदियों को देशभक्ति और देश प्रेम से ओत- प्रोत कवितायेँ सुनाती थीं।
तिहाड़ के कैदियों को बना दिया लेखक
सरोज वशिष्ट ने दिल्ली की कला कर्म संस्था से जुड़कर तिहाड़ जेल के कैदियों की तीन और हिमाचल प्रदेश की कैथू और कंडा जेल के कैदियों की चार किताबें प्रकाशित करवाईं। उन्होंने ‘तन्हाइयों के वे जंगल’, ‘तिहाड़ कारागार से निकली कविताएं’ तथा कवि अकरम खान अकरम की किरण बेदी को समर्पित पुस्तक दुखतर- ए- हिन्द का प्रकाशन करवाया।
उन्होंने तस्करी के आरोप में पकड़ी गई विदेशी और भारतीय महिला कैदियों की अंग्रेजी कविताओं की किताब का भी प्रकाशन करवाया। उन्होंने किरण बेदी के विशेष आग्रह पर ‘ऐसे जैसे कुछ हुआ ही नहीं’ किताब लिखी।
कैथू और कंडा जेल के कैदियों की कविताएं
सरोज वशिष्ट ने कैथू और कंडा जेल के कैदियों कवियों के काव्य संग्रह ‘क्षितिज के उस पार हाशिए पर लटका भविष्य- हिमाचल प्रदेश के कारावासों से निकली कविताएं’, रिहा हो चुके कैदी सुधीर शर्मा की पुस्तक ‘ टूटे अरमानों की आवाज शिमला कंडा जेल की ऊँची दीवारों के पीछे, रिहा हो चुके कैदी विजय सिंह का काव्य संग्रह ‘शिमला के कैथू कारागार से निकली कविताएं सुलगते सवाल सलाखों में बंद’, और कैदी देवेन्द्र कुमार की लिखी पुस्तक ‘मां’ का प्रकाशन करवाया।
मिले कई सम्मान, वृत्तचित्र भी बना
सरोज वशिष्ट को कैदियों के जीवन को बदलने के लिए कई सम्मान मिले। विजय गुजराल फाउंडेशन की तरफ से उन्हें सम्मानित किया गया तो महावीर संस्था ने भी उनके काम को सम्मान दिया। उन्हें हिमाचल प्रदेश का गवर्नर अवार्ड और रेड एंड वाइट ब्रेवरी अवार्ड भी मिला।
कैदियों के जीवन में बदलाव लाने को लेकर किये गए उनके कार्यों को लेकर एक वृत्तचित्र भी बनाया गया है, जिसे विशेष अवसरों पर कैथू और कंडा जेल के कैदियों को दिखाया जाता है।
किरण बेदी की किताब में सरोज का जिक्र
वर्तमान में पांडिचेरी की लेफ्टिनेंट गवर्नर एवं पहली महिला आईपीएस किरण बेदी ने अपनी पुस्तक ‘इट्स आलवेज पोसिबल’ में तिहाड़ जेल में कैदियों के बीच किए गए सरोज वशिष्ट के कार्य का उल्लेख करते हुए लिखा है कि उन्होंने तिहाड़ जेल के कैदियों के जीवन में सार्थक परिवर्तन लाने में बहुमूल्य योगदान दिया है।
उन्होंने लिखा है कि साल 1993 में उनकी उम्र 60 वर्ष थी, किंतु वह देखने में काफी कम उम्र लगती थी। जीवन के प्रति उनका उत्साह आदित्य था।
‘हौसला देने जाती हूं, वे टूट न जाएं’
साल 2014 के शुरुआती दिनों में वरिष्ठ पत्रकार राकेश पथरिया ने उनसे फोन पर साक्षात्कार किया था, जो पंजाब केसरी की ‘नारी’ मैगजीन में प्रकाशित हुआ था। राकेश पत्थरिया कहते हैं कि सरोज वशिष्ठ प्रभावित करने वाला व्यक्तित्व था।
उनसे फोन पर करीब 45 मिनट बात हुई। उन्होंने बहुत सी बातें बताई पर बाद में लगा कि अभी भी बहुत सी बातें पूछने को रह गईं। सरोज वशिष्ट ने कहा था मैं कैदियों को हौसला देने जाती हूं, ताकि किसी तरह से टूट न जाएं।
हम लोगों को तो जकड़ कर रख सकते हैं, मगर उनके जज्बात और एहसास हम कभी जकड़ नहीं सकते इन्हें खुले आसमान में पक्षियों की तरह उड़ना चाहिए। अक्सर जेल में सजा काट रहे लोग नासमझी में गुनाह कर बैठते हैं, पर गुनाहगार में भी अच्छा इंसान और जज्बात होते हैं।
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