लोहे का किला : लोहगढ़ का किला क्यों बन गया था मुगल शासकों की आंख की किरकिरी?

लोहे का किला : लोहगढ़ का किला क्यों बन गया था मुगल शासकों की आंख की किरकिरी?
वीरेंद्र शर्मा वीर / चंडीगढ़
मुगलों की धूल चटाने वाले बंदा सिंह बहादुर का 27 अक्तूबर, 1670 में राजौरी में जन्म हुआ था। बंदा सिंह बहादुर को संबंध सिरमौर जिले से भी रहा। क्यारदा-टून के दक्षिण छोर पर दो बरसाती नाले पमुवाली और दस्कावाली के पास कभी एक विशाल दुर्ग था, जिसे उसकी अभेद्य बनावट के कारण लोहगढ़ का किला अर्थात लोहे का दुर्ग कहा जाता था।
यह किला हिमाचल प्रदेश और हरियाणा राज्यों की सीमा पर स्थित था। कभी इस यह करीब 7000 एकड़ तक फैला फैला था, लेकिन अब वहां केवल छोटा-सा वीरान टीला है, जिस पर जंगली बेर की कंटीली झाडिय़ां और कीकर व साल के पौधे हैं। अपने वैभव काल में यह किला दिल्ली के मुगल शासकों के आंख की किरकरी बना रहा।
ऐसी मान्यता है कि इस किले का निर्माण गुरु हरगोबिंद साहिब के आदेश पर भाई राय बंजारा ने करवाया था। इसका निर्माण 1620 ई. में हुआ था और 1710 ई . में खालसा राज्य की राजधानी घोषित किया था। कई इतिहासकारों का मानना है कि लोहगढ़ और मुक्लिश्गढ़ को एक ही स्थान मान लिया है। इस कारण लोहगढ़ के बारे में अनेक भ्रांतियां हैं। वास्तव में इन दोनों दुर्गों के बीच में करीब किलामीटर का अंतर है।
1709 में खालसा सेना ने इस कस्बे पर अधिकार किया
खालसा राज्य के विस्तार के उद्देश्य से बंदा बहादुर मुगलों से लगातार लोहा लेते रहे। 1709 ई. में खालसा सेना ने इस कस्बे पर अपना अधिकार कर लिया और उसी साल सढैरा को भी अपने कब्जे में कर लिया। इस कारण मुगलों ने खालसा राज्य के खिलाफ जिहाद छेड़ दिया।
मई 1710 को खलासा सेना के मध्य चाप्पर-चिड़ी और सरहिंद में युद्ध हुए, जिसमें बंदा बहादुर की विजयी हुई। विजेता सेना के हाथ बहुत खजाना लगा। वह सारी धनराशि बंदा बहादुर के आदेश से लोहगढ़ में सुरक्षित रख दी गई। एक अनुमान के अनुसार केवल सरहिंद के युद्ध में ही खालसा सेना के हाथ दो करोड़ रुपए मूल्य का खजाना हाथ लगा था।
बंदा बहादुर ने लोहगढ़ में गुरु नानक देव और गुरु गोविंद सिंह के नाम से सिक्के ढाले और उन्हें प्रसारित किया। उन सिक्कों पर फारसी लिपि में लिखा था:
‘सिक्का बरहर दो आलम तेग-इन-नानक वाहिब अस्त
फतेह गोंबिद सिंह शाह-इ-शाहान फजल-इ-सचा साहिब अस्त.
बंदा बहादुर ने लोहगढ़ को अलविदा कहा
साल 1980 में खंडहर लोहगढ़ टीले से सिक्कों का धातु-मल खोजा गया था। उससे पता चला हुआ कि इस स्थान पर कभी सिक्कों की ढलाई होती होगी। लगातार मुगलों के आतंक से त्रस्त होने पर 1715 ई. के आस-पास बंदा बहादुर ने किसी सुरक्षित स्थान की खोज में लोहगढ़ को अलविदा कह दिया।
ऐसा माना जाता है कि वे गुप्त मार्ग से नाहन की ओर निकल गए थे । उसके बाद ,मुगलों और सिरमौर राज्य के शासन ने लगातार प्रयास किए। अतंत:, लोहगढ़ को गिराने का काम एक मुसलमान कारकून मस्सा रंघड़ को दे दिया गया।लोहगढ़ दुर्ग को गिराने का काम 1717 ई . में आरंभ हुआ था और सन 1739 में पूर्ण हुआ।
दुर्ग को गिराने से भारी मात्रा में ईंट और इमारती पत्थर व अन्य सामान इकठ्ठा हुआ था । उस सामान को बहुत दूर अनेक स्थानों ने बिखेर दिया गया था, ताकि दोबारा कोई उस दुर्ग का निर्माण नहीं कर सके। ऐसा कहा जाता है कि अमृतसर में दरबार साहिब को अपवित्र करने पर मस्सा रघंड़ को 1739 ई. में सुखा सिंह और महताब सिंह ने कत्ल कर दिया था।
गुरु गोविंद सिंह ने सौंपी जिम्मेदारी
बंदा सिंह बहादुर ने बहुत कम उम्र में घर को छोड़ दिया और वैराग्य की ओर मुड़ गए। उन्हें माधोदास बैरागी कहा गया। भ्रमण करते हुए वो महाराष्ट्र के नांदेड़ पहुंचे और सिखों के 10वें गुरु गोविंद सिंह से मिले। गुरु गोबिंद सिंह ने उन्हें वैराग्य को त्यागने और पंजाब के लोगों को मुगलों के जुल्मों से छुटकारा दिलाने की जिम्मेदारी सौंपी।
1709 में बंदा बहादुर सिंह बहाुदर और उनके सैनिकों ने सरहिंद के समाना पर हमला किया। इस हमले की वजह यह थी कि वजीर खां वहां रहता था। वही वजीर खां जिसने गुरु गोबिंद सिंह का सिर कलम किया और उनके बेटों को मारा। बंदा सिंह ने 1710 में हमला किया और दो दर्जन तोपों के साथ फतह भी हासिल की।
आमने-सामने की इस लड़ाई में बंदा सिंह के भाई फतह सिंह ने सीधे वज़ीर खां के सिर पर वार करके उसे चित कर दिया। इसका बदला लेने के लिए 1710 में मुगल बादशाह बहादुर शाह ने बंदा सिंह बहादुर को पकडऩे की तमाम रणनीति बनाई, लेकिन सफलता नहीं मिली।
सिर कट गया लेकिन झुकाया नहीं
1712 में बहादुर शाह की मौत के बाद उसके भतीजे ने सल्तनत संभाली और बंदा सिंह बहादुर को पकडऩे की जिम्मेदारी अब्दुल समद खां को सौंपी। उसने सेना के साथ उस किले को घेर लिया जहां बंदा बहादुर थे। मुगल सैनिकों ने अंदर राशन-पानी भेजने पर रोक लगा दी। 8 महीने तक पहरा जारी रखा।
आठ महीने के बाद अंतत: समद खां बंदा सिंह का किला भेदने में सफल रहा। उन्हें गिरफ्तार करके दिल्ली लाया गया. तमाम तरह की यातनाएं दी गईं, लेकिन मुगलों के सामने सिर नहीं झुकाया और अंतत: एक दिन जल्लाद ने तलवार से उनका धड़ सिर से अलग कर दिया।
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