कांगड़ा की ‘प्लास्टिक सर्जरी’ का लंदन तक का सफ़र, यूरोपियन यात्री थॉमस विगने ने सर्जरी की अनूठी प्रथा का पहली बार यूरोप से करवाया था परिचय

कांगड़ा की ‘प्लास्टिक सर्जरी’ का लंदन तक का सफ़र, यूरोपियन यात्री थॉमस विगने ने सर्जरी की अनूठी प्रथा का पहली बार यूरोप से करवाया था परिचय
कांगड़ा की ‘प्लास्टिक सर्जरी’ का लंदन तक का सफ़र, यूरोपियन यात्री थॉमस विगने ने सर्जरी की अनूठी प्रथा का पहली बार यूरोप से करवाया था परिचय
विनोद भावुक /धर्मशाला
जिस दौर में यूरोप ने अभी प्लास्टिक सर्जरी का नाम तक नहीं सुना था, कांगड़ा जनपद में उस समय स्थानीय तौर-तरीकों और स्थानीय औषधियों से ‘नाक प्रत्यारोपण’ जैसी सूक्ष्म शल्यक्रिया प्रचलित थी। 19वीं सदी की शुरुआत में कांगड़ा की यात्रा करने वाले इंग्लैंड के बैरिस्टर एवं क्रिकेटर गोदफ्रे थोमस विगने पहले यूरोपियन थे, जिन्होंने कांगड़ा में होने वाली पारंपरिक प्लास्टिक सर्जरी के बारे में दुनिया को परिचित करवाया था। विगने की यात्रा डायरी एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ है, जो 19वीं सदी के कांगड़ा की चिकित्सा प्रथाओं, विशेषकर लोक-औषधीय शल्यचिकित्सा को दुनिया के सामने लाता है।
लद्दाख और कश्मीर की यात्रा के दौरान विगने ने कांगड़ा को अपना एक मुख्य पड़ाव बनाया था। 1842 में प्रकाशित विगने की यात्रा डायरी पुस्तक ‘ट्रेवल्स इन कश्मीर’ में कांगड़ा किले और कांगड़ा की पारंपरिक प्लास्टिक सर्जरी को विज्ञान के अद्भुत चमत्कार के तौर पर वर्णित किया है। विगने लिखते हैं कि ये कांगड़ा की पारंपरिक चिकित्सा अत्याधुनिक विदेशी चिकित्सा पद्धति से भी कहीं आगे थी।
ऐसे होती थी प्लास्टिक सर्जरी
विगने ने लिखा है कि 19वीं सदी में कांगड़ा में कटे हुये नाक और कान को प्लास्टिक सर्जरी से जोड़ा जाता था। स्थानीय लोग इस पर गर्व करते थे और उनको ईश्वरीय शक्ति से जोड़ कर देखते थे। प्लास्टिक सर्जरी करने से पहले मरीज को बेहोश करने के लिए पर्याप्त मात्रा में अफीम, भांग या शराब का सेवन करवाया जाता था। माथे की त्वचा लेकर नाक अथवा कान के ऊपर लगाकर उसे सील दिया जाता था और सूती कपड़ों के टुकड़ों से सहारा दिया जाता है। घाव पर तब नीले तांबे की एक मरहम लगाई जाती थी।
अफीम और भांग जैसे औषधीय पौधों का इस्तेमाल ऑपरेशन से पहले मरीज को बेहोश करना और घाव पर नीले तांबे (ब्लू वाइट्रिओल) वाली मरहम एक जैविक उपचार पद्धति थी। विगने ने अपनी यात्रा के रास्ते में कई ऐसे लोग देखे थे, जिनके नाक अथवा कान की सफल सर्जरी हुई थी। विगने के जरिये ही कांगड़ा में प्रत्यारोपण की अनूठी प्रथा विश्व इतिहास में पहली बार दर्ज हुई।
बिलासपुर,मंडी, कांगड़ा, नूरपुर, और चंबा होते हुए कश्मीर
विगने ने साल 1831 में इंग्लैंड छोड़कर फारस की खाड़ी और फिर भारत की दिशा में यात्रा की। साल 1834 से 1838 तक उन्होंने कश्मीर, लद्दाख, बाल्टिस्तान व वर्तमान हिमाचल प्रदेश के कई भू भाग घूमे और स्थानीय समाज, शासन व्यवस्था व सांस्कृतिक संदर्भों का अध्ययन किया। साल 1842 में प्रकाशित विगने की यात्रा डायरी पुस्तक ‘ट्रेवल्स इन कश्मीर’ में मार्च 1839 में दर्ज है कि वे बिलासपुर के रास्ते मंडी, कांगड़ा, नूरपुर और चंबा होते हुए कश्मीर पहुँचे थे।
विगने ने स्थानीय क़िस्म की वनस्पति, परिधान, रीति-रिवाज और कृषि पद्धति पर नोट्स तैयार किए थे, जो उनके प्रकाशित रिकॉर्ड में भी दर्ज हैं। उन्होंने कांगड़ा किले और कांगड़ा में होने वाली प्लास्टिक सर्जरी का विशेष तौर पर उल्लेख किया था।
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Jyoti maurya

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