’लोक के राग’ – 3 : सुरों की ‘रोशनी’ से चमका लोकगीतों का सूरज, पंडित नेहरू के सामने की गीत- संगीत की संगत

’लोक के राग’ – 3 : सुरों की ‘रोशनी’ से चमका लोकगीतों का सूरज, पंडित नेहरू के सामने की गीत- संगीत की संगत
विनोद भावुक/ शिमला
समय की धुंध में अक्सर कुछ स्वर ऐसे खो जाते हैं, जिनकी गूंज पीढ़ियों तक सुनाई देती है। हिमाचल प्रदेश की लोक-संस्कृति में ऐसी ही एक अमर गूंज का नाम है रोशनी देवी। रोचक, मनोरंजक और ज्ञानवर्धक कहानियों के प्लेटफॉर्म हिमाचल बिजनेस की ’लोक के राग’ सीरीज की आज की कड़ी में
बात उस पहाड़ी गायिका रोशनी देवी की, जिसने सिर्फ 14 साल की उम्र में आकाशवाणी शिमला से गाने की शुरुआत की थी।
फिर जालंधर रेडियो से रोशनी देवी की पंचम तरंगें घाटियों में गूंजने लगीं। उस को गाते सुन लोग रेडियो के पास ठिठकने लगे। बाद में रोशनी देवी दिल्ली, श्रीनगर और मथुरा रेडियो से भी उसके गीत बजने लगे। इतना ही नहीं, उसने देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित नेहरू और फिर प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के सामने भी सुर साधे।
दस साल की उम्र में मखमली आवाज का जादू
20 मार्च 1944 को तत्कालीन बाघल रियासत के एक छोटे से गाँव समोती क्यार में, गरीब तूरी परिवार में जन्मी एक बच्ची नन्हे हाथों से हवा में नाचती थी, और तुतलाती ज़ुबान में गीत गुनगुनाती। माँ नंदी खुद लोकगायिका थीं, और बेटी रोशनी में जन्मजात सुरों की चिंगारी थी।
सांस्कृतिक और सामाजिक समारोहों में माँ-बाप के साथ ज़िद करके जाना और पायल की छनक के साथ थिरकना, यही रोशनी देवी का पहला संगीत विद्यालय था। दस वर्ष की उम्र तक पहुंचते- पहुंचते उसकी मखमली आवाज का जादू चलने लगा था। पंचम स्वर में उसकी तान सुनकर लोग ‘शाब्बास्से’ कह उठते थे।
रोशनी देवी के बिन अधूरे गिद्धा और नाटी
एक वह दौर भी आया जब अर्की तहसील की गलियों से लेकर सोलन और ठियोग की पहाड़ियों तक, नाटी और गिद्धा रोशनी देवी के नाम के बिना अधूरा लगने लगा। उसकी थिरकती उंगलियां और नाटी की लय में डूबा स्वर दर्शकों को रात भर जागने को मजबूर कर देता था।
रोशनी देवी ने फिल्मी गीतों से लेकर भज्जी, बिलासपुर और चम्बा के पारंपरिक गीतों के हर रंग को अपने सुर में पिरोया। “वामणा रा छोरु”, “पहलड़े बाग न जाया मेरेआ भौंरा”, “तू नी दिस्सदा वे मोहणा”
और “चम्बे रे चौगाने डेरा तेरा” जैसे गीत हर पहाड़ी की आत्मा की आवाज़ थे और रोशनी देवी उनकी भाषा बन गई थी।
सामाजिक बदलाव की आवाज
साल 1969 में केंद्र सरकार के गीत एवं नाटक प्रभाग से जुड़ने के बाद रोशनी देवी की गायिकी की यात्रा पूरे भारत तक पहुँच गई। अब वह लोककलाओं से सामाजिक बदलाव की आवाज़ बन चुकी थी। लोकगीतों में वह रूढ़ियों पर प्रहार करती, नारी के संघर्ष को सुर देती और हर श्रोता को सोचने पर मजबूर कर देती थी।
रोशनी देवी सिर्फ एक नाम नहीं, लोक संस्कृति का सूरज थीं। उन्होंने जो स्वर बोए, वे आज भी पर्वतीय बयार में गूंजते हैं। ‘बामणा रा छोरु’ से लेकर ‘चम्बे रे चौगाने’ तक, हर गीत उनकी उपस्थिति का अहसास कराता है।
लोकजीवन में जिंदा है आवाज
हिमाचल प्रदेश भाषा, कला एवं संस्कृति अकादमी ने उन्हें सम्मानित करने की घोषणा की। अकादमी पुरस्कार की घोषणा के कुछ ही दिनों बाद 24 दिसम्बर 1995 को यह स्वर साम्राज्ञी सदा के लिए चुप हो गई। रोशनी देवी को मरणोपरांत साल 1996 में सम्मान मिला, जिसे उनके पति ने ग्रहण किया।
जब भी चैत्र मास आता है, जब भी कोई ढोलक की थाप पर थिरकता है, जब भी कोई लोकगीत गुनगुनाता है – रोशनी की आत्मा वहीं मौजूद होती है। वह चली गई, पर लोक के राग” में आज भी उसकी आवाज़ ज़िंदा है।
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