“लोक के राग” : दरबारी गायिका से लोकतंत्र की कलाकार तक के सफर में लोक संस्कृति की हर महफिल को लूटती रही ठियोग की कुब्जा

“लोक के राग” : दरबारी गायिका से लोकतंत्र की कलाकार तक के सफर में लोक संस्कृति की हर महफिल को लूटती रही ठियोग की कुब्जा
“लोक के राग” : दरबारी गायिका से लोकतंत्र की कलाकार तक के सफर में लोक संस्कृति की हर महफिल को लूटती रही ठियोग की कुब्जा
विनोद भावुक/ शिमला
👍रोचक, मनोरंजक और ज्ञानवर्धक कहानियों के प्लेटफॉर्म हिमाचल बिजनेस की अमर लोक कलाकारों को समर्पित नई सृंखला “लोक के राग” में आपका स्वागत है। इस सीरीज की पहली कड़ी में बात ठियोग की लोक गायिका और नर्तकी कुब्जा की। हिमाचल की पारंपरिक जातिगत कला-व्यवस्था में मंगलमुखी, तूरी, वाजगी, बजंतरी और हेसी जैसे समुदायों की अपनी अनोखी भूमिका रही है।
👉ये समुदाय जन्म से लेकर मृत्यु तक, त्योहार से लेकर मेले तक गा-बजा कर सामाजिक जीवन का हिस्सा बनते रहे हैं। इन्हीं परंपराओं से निकलकर आईं थी ठियोग की कुब्जा, जिसके गीत और नृत्य पटियाला, चायल, क्यारकोटी और शिमला तक महफिलों में समा बांध देते थे।
👍लोक संस्कृति की सबसे प्रखर आवाज़
पहाड़ों में जब वसंत की बयार बहती थी और गांव-गांव में चैत गूंजता था, तो एक नाम हर ज़ुबान पर होता था— कुब्जा। “कुब्जा ने जादू डारा रे”—ये बोल आज भी बुजुर्गों की यादों में जिंदा हैं, और क्यों न हों? कुब्जा न केवल ठियोग रियासत की दरबारी गायिका थी, बल्कि हिमाचल की मंगलमुखी लोक संस्कृति की सबसे प्रखर आवाज़ भी थी। कुब्जा का जन्म 1897 के आस- पास ठियोग रियासत की राजधानी पराला में हुआ था।
👉उसके मां सुब्दा और पिता बाहजू—दोनों प्रसिद्ध तूरी कलाकार थे। मां के निधन के बाद कुब्जा को जुनगा की रियासत में पनाह मिली, और यहीं से शुरू हुआ उसका नृत्य-संगीत का सफर।
🙏बूटे खां से सीखा गायिकी का हुनर
1999 में अशोक हंस के संकलन व सम्पादन में हिमाचल प्रदेश भाषा, कला एवं संस्कृति अकादमी शिमला से प्रकाशित पुस्तक ‘पर्वत से उभरे कलाकार’ में कुब्जा के नृत्य-संगीत के सफर पर शोधपरक आलेख शामिल है। उक्त आलेख के मुताबिक क्योंठल के राजा विजय सिंह ने कुब्जा की प्रतिभा को पहचाना और उसे महान संगीत उस्ताद बूटे खां के पास प्रशिक्षण के लिए भेजा।
👉बूटे खां वही संगीत उस्ताद थे, जिनके शिष्यों में फिल्म संगीतकार लच्छीराम और लोकगायिका कमला रानी जैसी हस्तियां शामिल थीं।कुब्जा ने शास्त्रीय रागों के साथ-साथ लोक धुनों को इस तरह साधा कि जब वह ‘कुब्जा ने जादू डारा रे’ —जैसे लोकगीत गाती थी तो श्रोताओं पर मानो जादू सा चल जाता।
👍रियासती महफिलों की शान
दिनों- दिन कुब्जा की ख्याति बढ़ती गई और जल्द ही वह पटियाला, चायल, क्यारकोटी और शिमला तक महफिलों में शिरकत करने लगी। राणा पद्म चंद ने उसे दरबारी गायिका बनाया और संगीत सभाओं में उसकी प्रस्तुति को राजकीय सम्मान मिला। कहा जाता है कि एक बार तो सैंज में दीपक राग गाकर उसने ऐसा समां बांधा कि पद्म चंद ने उसे सौ रुपये नकद इनाम में दिए—जो उस दौर में बड़ी बात थी।
👉कुब्जा न केवल सुरों की साधिका थी, बल्कि उसने लोक नृत्य में भी महारत हासिल की थी। प्रसिद्ध नर्तक ताला परसी के साथ मिलकर नंगी तलवारों पर नाचना और “गज-परण” जैसी विधाएं उसे लोकसंस्कृति की रत्नमाला में पिरोती हैं।
👍दरबारी गायिका, लोकतंत्र की कलाकार
साल 1940 में राजा पद्म चंद के निधन के बाद कुब्जा ने घूंड रियासत के प्रसिद्ध तूरी कलाकार सिंधिया से विवाह किया। दोनों ने मिलकर वर्षों तक स्थानीय देवताओं के यज्ञों, मेले-त्योहारों और कार्यक्रमों में प्रस्तुति दी। यह जोड़ी जहां जाती, वहां ढोल की थाप, चैत की धुन और कुब्जा के बोल गूंजने लगते। लोग महफिलों में पैसे लुटाते, और गांव के बुजुर्ग कहते—‘सिंधिया बजाए ढोल, कुब्जा करे बोल—दोनों बंधे लोक की डोर!’
👉आजादी के बाद, जब हिमाचल प्रदेश का गठन हुआ, तब शिमला में डॉ. यशवंत सिंह परमार की अध्यक्षता में हुए समारोह में कुब्जा को शामिल होने के लिए विशेष आमंत्रण मिला। यह एक प्रतीक था— रियासतों की गायिका अब लोकतंत्र की कलाकार बन रही थी।
राज दरबार से जनता के बीच पहुंचाई लोक कला
साल 1977 में चिखड़ गांव में कुब्जा का देहांत हो गया और उसके दो साल बाद 1979 में सिंधिया भी चल बसे। दोनों की कोई संतान नहीं थी, लेकिन ऊपरी शिमला के हर चैत नाचे में, हर गांव की होली में, हर मेले के राग में उनके गीत, उनका नाच और उनकी विरासत आज भी जीवित है।
कुब्जा का जीवन हिमाचल की लोककला, जातिगत पेशों की सामाजिक व्यवस्था, और कलावंतों की पहचान और संघर्ष का प्रतिनिधित्व करता है। उसने शास्त्रीय और लोक संगीत को एक किया और कला को दरबार से निकालकर जन-जन तक पहुंचाया। “कुब्जा ने जादू डारा रे” — ये सिर्फ एक गीत ही नहीं है, हिमाचल प्रदेश की लोक संस्कृति की धरोहर है।
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Jyoti maurya

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