Mecleod Ganj स्कॉटलैंड की याद दिलाता मिनी ल्हासा और तेल अबीव

Mecleod Ganj स्कॉटलैंड की याद दिलाता मिनी ल्हासा और तेल अबीव
हिमाचल बिजनेस कंटेन्ट/ धर्मशाला
हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिला के इंटरनेशनल टूरिस्ट डेस्टिनेशन Mecleod Ganj (मैकलोडगंज) को वर्तमान में ‘मिनी ल्हासा’ के नाम से जाना जाता है, लेकिन बहुत कम लोगों को इस तथ्य के बारे में जानकारी होगी कि एक दौर वह भी था, जब यह हिल स्टेशन ब्रिटेन के स्कॉटलैंड की याद दिलवाता था। 1862 से1863 ईस्वी तक लॉर्ड एल्गिन भारत के ब्रिटिश वायसराय थे। जब इस ब्रिटिश वायसराय ने इस स्थान की सैर की तो उन्हें यह स्थान अपने गृहनगर स्कॉटलैंड जैसा लगा और उन्हें यह स्थान अपने गृहनगर की याद दिलाता था। ब्रिटिश काल के दौरान ही 1885 में इस स्थान का नाम पंजाब के लेफ्टिनेंट रहे डेविड मैकलियोड के नाम पर Mecleod Ganj (मैकलोडगंज) रखा गया।

वायसराय लॉर्ड एल्गिन की कब्र, तिब्बती धर्मगुरु का घर

1959 में तिब्बती धर्मगुरु दलाई लामा Mecleod Ganj (मैकलोडगंज ) पहुंचे। फिर यहां निर्वासित तिब्बत सरकार की राजधानी बनाई बनाई गई। शांति के लिए नोबेल पुरस्कार से सम्मानित दलाई लामा के अनुयायी दुनिया भर से यहां पहुंचने लगे और मैकलोडगंज को मिनी ल्हासा के नाम से पहचान मिली। दू टूक कहें तो दलाई लामा ने फिर से इस शहर से पुनर्जीवित किया।
भारत के ब्रिटिश वायसराय लॉर्ड एल्गिन की मृत्यु के बाद उनके पार्थिव शरीर को Mecleod Ganj (मैकलोडगंज) के नजदीक ही फोर्सिथगंज में स्थित सेंट जॉन्स चर्च इन वाइल्डरनेस में दफनाया गया था, जहां उनकी कब्र आज भी मौजूद है। 1905 में आये एक बहुत भयानक भूकम्प ने इस पहाड़ी क्षेत्र को उजाड़ कर रख दिया। 1959 में तिब्बती धर्मगुरु दलाई लामा Mecleod Ganj (मैकलोडगंज ) पहुंचे। फिर यहां निर्वासित तिब्बत सरकार की राजधानी बनाई बनाई गई। शांति के लिए नोबेल पुरस्कार से सम्मानित दलाई लामा के अनुयायी दुनिया भर से यहां पहुंचने लगे और मैकलोडगंज को मिनी ल्हासा के नाम से पहचान मिली। दू टूक कहें तो दलाई लामा ने फिर से इस शहर से पुनर्जीवित किया।

Mecleod Ganj : तिब्बती और बौद्ध संस्कृति की झलक

भारत के ब्रिटिश वायसराय लॉर्ड एल्गिन की मृत्यु के बाद उनके पार्थिव शरीर को Mecleod Ganj (मैकलोडगंज) के नजदीक ही फोर्सिथगंज में स्थित सेंट जॉन्स चर्च इन वाइल्डरनेस में दफनाया गया था, जहां उनकी कब्र आज भी मौजूद है।
कभी अंग्रेजों की पसंदीदा जगह रही Mecleod Ganj (मैकलोडगंज) अब तिब्बती संस्कृति की गहरी छाप छोड़ता है। यहां कई तिब्बती बस्तियां तो कई तिब्बती मठ देखने को मिल जायेंगे। यह छोटा सा हिल स्टेशन तिब्बती संस्कृति के साथ-साथ बौद्ध संस्कृति का भी गवाह है। बौद्ध व तिब्बतियों के अलावा यहां हिंदू संस्कृति भी देखने को मिलती है। दुनिया भर के पर्यटक इस हिल स्टेशन की तरफ खिचे चले आते हैं, यही कारण है कि विभिन्न देशों का खाना परोसने वाले रेस्टोरेंट्स यहां की ख़ास पहचान हैं।

चीनी यात्री के खतों में कांगड़ा

 कभी अंग्रेजों की पसंदीदा जगह रही Mecleod Ganj (मैकलोडगंज) अब तिब्बती संस्कृति की गहरी छाप छोड़ता है। यहां कई तिब्बती बस्तियां तो कई तिब्बती मठ देखने को मिल जायेंगे। यह छोटा सा हिल स्टेशन तिब्बती संस्कृति के साथ-साथ बौद्ध संस्कृति का भी गवाह है।
कांगड़ा कभी चंद्र वंश की राजधानी हुआ करती थी। इस शहर का उल्लेख वैदिक युग में मिलता है। पुराण, महाभारत और राजतरंगिणी में भी इसका जिक्र मिलता है। राजा हर्षवर्धन के शासनकाल के दौरान 629 से 644 ईस्वी के बीच हून त्सांग (एक चीनी यात्री) ने यहां का दौरा किया था, जिसके बाद उसने अपनी खतों में कई शासकों के बारे में उल्लेख भी किया था। उसकी खतों के अनुसार, राजा हर्षवर्धन ने नगरकोट (कांगड़ा जिले का पुराना नाम) पर कब्जा कर लिया था, जो उस समय त्रिगर्त या जालंधर राज्य की राजधानी हुआ करती थी।

कांगड़ा की लूट से जुड़े मुगलों के किस्से

1009 ईस्वी में नगरकोट के धार्मिक खजाने पर महमूद गजनवी की नजर पड़ी, जिसके बाद कांगड़ा के राजाओं को पराजित कर उसने कांगड़ा किले पर अपना कब्जा जमाया और यहां जमकर लूटपाट की। यह सिलसिला 1360 ईस्वी तक चलता रहा। 1556 ईस्वी में अकबर ने भी इस शहर की ओर रूख किया और कांगड़ा किले पर कब्जा जमाया। इसके अलावा भी कई शासकों का कांगड़ा पर कब्जा रहा। कहा जाता है कि अकबर ने ज्वालामुखी मंदिर में जलती हुई ज्वाला को कई बार बुझाने की कोशिश की, लेकिन वो इसमें विफल रहा और क्षमा याचना माँगी थी।
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