नया बिजनेस आइडिया : जापान-कोरिया से लो ज्ञान, सुरा बने हिमाचल की पहचान

नया बिजनेस आइडिया : जापान-कोरिया से लो ज्ञान, सुरा बने हिमाचल की पहचान
नया बिजनेस आइडिया : जापान-कोरिया से लो ज्ञान, सुरा बने हिमाचल की पहचान
विनोद भावुक
हिमाचल प्रदेश में पारंपरिक रूप से तैयार किए जाने वाले ध्रुवली, अंगूरी, लुगड़ी, छांग और बहमी जैसे पारंपरिक पेयों का वैज्ञानिक आधार पर फाइटोकेमिकल और औषधीय गुणों का परीक्षण हो तो इन्हें आयुर्वेदिक प्रमाणित सुरा के रूप में विपणन किया जा सकता है। भारतीय खाद्य सुरक्षा एवं मानक प्राधिकरण (एफएसएसएआई) के अनुसार जिन पारंपरिक पेयों को बनाने की विधियों का वैज्ञानिक दस्तावेजीकरण हो तो ऐसे पारंपरिक पेयों को विशिष्ट श्रेणी में वर्गीकृत किया जा सकता है। आयुष मंत्रालय ने साल 2023 में आयुष आहार की परिभाषा में ऐसे पेयों को भी शामिल किया गया।
सीएसआईआर आईएचबीटी पालमपुर की 2020 की एक रिपोर्ट के अनुसार हिमाचल प्रदेश की पारंपरिक सुरा में ऐसे लाभकारी खमीर पाए गए जो पाचन और प्रतिरक्षा के लिए उपयोगी हैं। नेशनल मेडिसनल प्लांट बोर्ड की 2022- 23 की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार बहमी जैसी पारंपरिक सुरा में प्रयुक्त अश्वगंधा, अर्जुन और सफ़ेद मूसली जैसे घटकों को फंक्शनल फूड की श्रेणी में लाया जा सकता है। मेडिसनल प्लांट बोर्ड ने एक प्रोजेक्ट के अंतर्गत उत्तराखंड और हिमाचल के कुछ क्षेत्रों में इस तरह के पेयों पर शोध शुरू किया है।
जापान और दक्षिण कोरिया से सीखने की जरूरत
आज बहुराष्ट्रीय कंपनियां एप्पल साइडर, विनेगर और फ्रूट वाइन जैसे उत्पादों को हिमाचल प्रदेश की धरोहर के रूप में वैश्विक बाजार में पेश कर रही हैं। लोक परंपरा आधारित ध्रुवली, लुगड़ी या छांग को गैरकानूनी या अस्वस्थ कहकर हाशिए पर डाला जा रहा है। सांस्कृतिक उपनिवेशवाद का यह आधुनिक रूप पहाड़ी जनता की आत्मनिर्भरता, आर्थिकी और ज्ञान परंपरा पर सीधा हमला है।
समय आ गया है कि ‘पहाड़ी पेय विज्ञान मिशन’ बना कर कृषि विश्वविद्यालय, आयुर्वेद संस्थानों और लोकज्ञान विशेषज्ञों को इस दिशा में समूहिक प्रयास करने चाहिए। लुगड़ी, अंगूरी, बहमी जैसे उत्पादों को जीआई टैग दिलाकर हिमाचल प्रदेश की जैव सांस्कृतिक धरोहर को कानूनी संरक्षण मिल सकता है। होलिस्टिक वेलनेस टूरिज्म के अंतर्गत ‘पहाड़ी पेय महोत्सव’ के बहाने जापान और दक्षिण कोरिया की तर्ज पर ऐसे पेयों अनुभव पर्यटकों को कराया जा सकता है।
पंचायत स्तर पर माइक्रो-ब्रूअरी
ध्रुवली, अंगूरी, लुगड़ी, छांग और बहमी न केवल हिमाचल की पारंपरिक जैवविविधता और संस्कृति की वाहक हैं। ये लोकसंस्कृति, सामाजिक जीवन, लोकचिकित्सा, और जैव-विविधता संरक्षण से जुड़े हुए हैं। सामाजिक उत्सवों, देव अनुष्ठानों और स्थानीय चिकित्सा प्रणाली का हिस्सा रही ये परंपराएं घरेलू स्तर पर महिलाओं की सहभागिता और पारिवारिक-आर्थिक संतुलन का भी आधार रही हैं। पर्वतीय समुदायों के लिए ये परंपराएं सामाजिक आत्मनिर्भरता का प्रतीक रही हैं।
इन पारंपरिक विधाओं को वैज्ञानिक तकनीक से जोड़कर पंचायत स्तर पर आधुनिक माइक्रो-ब्रूवरी स्थापित करना समय की मांग है। नेशनल मेडिसनल बोर्ड के क्षेत्रीय सुगमता केंद्र जोगिन्द्रनगर के क्षेत्रीय निदेशक डॉ अरुण चंदन कहते हैं कि ये आत्मनिर्भर ग्रामीण अर्थव्यवस्था के लिए भी महत्वपूर्ण हैं। इसके लिए इन्हें हाशिए से निकाल कर अनुसंधान, संरक्षण और संवर्धन के जरिये मुख्यधारा में लाना होगा।
ये हैं हिमाचल प्रदेश के खास पेय
ध्रुवली: मुख्यतः मक्की, जौ या चावल से बनी यह घरेलू मदिरा प्राकृतिक किण्वन की प्रक्रिया से बनती है। इसमें माण्ड (उबले चावल का पानी) और प्राकृतिक खमीर का प्रयोग होता है।
अंगूरी: हिमाचल के किन्नौर और शिमला जिलों में यह अंगूरों से बनाई जाती है। इसका ज़िक्र औपनिवेशिक दौर के दस्तावेज़ों में भी मिलता है।
लुगड़ी: कुल्लू, लाहौल-स्पीति और मनाली क्षेत्र में जौ/चावल से बनाई जाती है। यह हल्फ फ़र्मेंटेड होती है और गर्मियों में ठंडी और शक्तिवर्धक मानी जाती है।
छांग: यह लद्दाख और लाहौल की परंपरा से जुड़ी हुई है और तिब्बती संस्कृति में भी महत्वपूर्ण मानी जाती है। जौ के अलावा मिलेट का भी प्रयोग होता है।
बहमी सुरा: यह आयुर्वेदिक पद्धति से विभिन्न औषधीय जड़ी-बूटियों के साथ बनाई जाती है और कई बार इसे ‘दवा’ के रूप में भी इस्तेमाल किया जाता है, विशेष रूप से हाजमे और रक्त शुद्धि के लिए।
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Jyoti maurya

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