आपातकाल के 50 साल के बहाने : कठिन और खतरनाक दौर में उम्मीद की मशाल जलाई, शांता कुमार ने पहाड़ की जनता के दिल में जगह बनाई

आपातकाल के 50 साल के बहाने : कठिन और खतरनाक दौर में उम्मीद की मशाल जलाई, शांता कुमार ने पहाड़ की जनता के दिल में जगह बनाई
आपातकाल के 50 साल के बहाने : कठिन और खतरनाक दौर में उम्मीद की मशाल जलाई, शांता कुमार ने पहाड़ की जनता के दिल में जगह बनाई
सतीश धर/ नई दिल्ली
25 जून 1975 को देश में जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आपातकाल लागू किया तो यह लोकतंत्र का गला घोंटने की शुरुआत मानी गई। उस दौर में पूरे देश के साथ हिमाचल प्रदेश भी राजनीतिक उथल-पुथल का गवाह बना। उस दौर में कांग्रेस के खिलाफ आवाज़ उठाना कठिन और खतरनाक था, लेकिन कुछ आपातकाल का मुखर विरोध करने वाला एक नाम प्रमुखता से उभरा। यह नाम था शांता कुमार कुमार का। आपातकाल के अंधकार में भी उन्होंने उम्मीद की मशाल जलाई और पहाड़ की जनता को यह विश्वास दिलाया कि एक बेहतर विकल्प हमेशा मौजूद होता है।
अब तक शांता कुमार किसी राजनीतिक दल में शामिल नहीं थे, लेकिन लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए उन्होंने इंदिरा गांधी के खिलाफ साहसिक विरोध किया। चंबा में शांता कुमार की अगुवाई में विपक्षी दलों की एक महत्वपूर्ण बैठक हुई, जिसमें सभी गैर-कांग्रेसी ताकतों ने एकजुट होकर लड़ने का निर्णय लिया। सरकार के विरोध के चलते उन्हें जेल में डाल दिया गया और कठोर यातनाएं दी गईं।
लोकतंत्र दबाया जा सकता है, मिटाया नहीं
आपातकाल की समाप्ति के बाद 21 मार्च 1977 को जब देश में आम चुनाव हुए, तो हिमाचल प्रदेश की राजनीति ने इतिहास रच दिया। शांता कुमार के नेतृत्व में राज्य की 68 में से 60 सीटों पर जनता पार्टी ने जीत हासिल की और हिमाचल प्रदेश की पहली गैर-कांग्रेसी सरकार बनी। यह जीत केवल आंकड़ों में ही बड़ी नहीं थी, बल्कि यह एक साफ संदेश था कि लोकतंत्र दबाया जा सकता है, मिटाया नहीं जा सकता।
हालांकि शांता कुमार की सरकार महज़ अढाई वर्ष ही चल पाई, लेकिन इस छोटे से कार्यकाल में शांता कुमार ने अपने कामों और नेतृत्व से लोगों के दिलों में जगह बना ली। दो बार प्रदेश के मुख्यमंत्री और एक बार केंद्रीय मंत्री रहे शांता कुमार के नाम हिमाचल प्रदेश के राजपूत बहुल मुख्यमंत्री इतिहास में इकलौते ब्राह्मण मुख्यमंत्री होने का बिरला रिकॉर्ड है।
छोटे कद वाले बड़े नेता
छोटे कद वाले शांता कुमार के व्यक्तित्व में कई खूबियां हैं, जो उनके सियासी कद को बड़ा बना देती हैं। हमेशा लोकतंत्र के पक्षधर यह राजनेता संकट के समय खामोश बैठने के बजाय आवाज़ उठाना जानता है। सादा जीवन और उच्च विचार उनके व्यक्तित्व की दो बड़ी खूबियां हैं। उनके राजनीतिक जीवन में कोई बड़ा घोटाला या दाग नहीं जुड़ा है। जातिगत समीकरणों से अलग हटकर उभरने वाले शांता कुमार गैर-परंपरागत नेता के तौर पर स्थापित हैं।
शांता कुमार का नाम हिमाचल प्रदेश के राजनीतिक इतिहास में संविधान संरक्षक, लोकतंत्र और ईमानदारी के प्रतीक के रूप में लिया जाता है। कई किताबों के लेखक के तौर पर उनका साहित्यकार हमेशा उनके राजनेता पर भारी पड़ा है। प्रदेश की लेखकीय बिरादरी में भी उनका नाम बड़े अदब के साथ लिया जाता है। विश्वसनीय नेतृत्व की चर्चा में शांता कुमार जैसी शख्सियतें उदाहरण बन जाती है।
शांता कुमार ने 26 जून 2020 को अपने फेसबुक अकाउंट पर कुछ यूं लिखा है-
आइये याद करें 26 जून, 1975
देश को 25 व 26 जून आपातकाल को हमेशा – हमेशा बड़ी गंभीरता से याद करते रहना चाहिए। 25 को आपातकाल की घोषणा हुई थी और 26 जून को पूरा देश जेल खाना बन गया था। दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र एक पार्टी की तानाशाही में बदल गया। सविधांन निलम्बित कर दिया गया। मूल अधिकार निलम्बित कर दिये गये। जेल में बंद हम सब की तरफ से जब न्यायालय मे कहा गया कि हमारा जीने का अधिकार भगवान ने दिया है और सविंधान ने भी दिया है। तब सरकार की ओर से कहा गया कि जीने का अधिकार भी समाप्त कर दिया गया है। यह भी याद रखना चाहिए कि तब कोई विदेषी आक्रमण नहीं हुआ था न कोई भूचाल आया था और न ही बाढ़ आई थी। केवल और केवल श्रीमति इन्दिरा गांधी द्वारा चुनाव जीतने के लिए अवैध तरीके अपनाने के कारण इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने उन्हें अयोग्य ठहराया था। वे प्रधानमंत्री नही रह सकती थी। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र को इसलिए जेल खाना बनाया गया क्योंकि श्री जय प्रकाश नारायण के नेतृत्व में समग्र क्रान्ति का आन्दोलन सफल हो रहा था और इन्दिरा गांधी जी की कुर्सी चली गई थी।
स्वतन्त्रता आन्दोलन के योद्धा श्री जयप्रकाश नारायण जिन्होने अंग्रेज की जेल को तोड़ कर आजादी की लड़ाई लड़ी थी। उन्हें भी जेल में बंद किया गया । इतना ही नहीं उन्हें देश का शत्रु बताया गया। यह भी याद रखना चाहिए कि 1977 का चुनाव भारत के इतिहास में एक मात्र ऐसा चुनाव है जिसे पार्टियांेनेनहींजनता ने लड़ा। हम जेलों से निकले थे, कुछ नहीं था हमारे पास । जनता ही पार्टी बन गई और जनता का धन ही पार्टी का कोश बन गया।
हमें याद रखना चाहिए कि उस समय का आन्दोलन देश में बढ़ते भ्रश्टाचार के विरूद्ध था क्योंकि भ्रश्टाचार सबसे बड़ा शत्रु है। गरीबी का सबसे बड़ा कारण है। आज भारत में लोकतंत्र की जड़े तो पूरी तरह से मजबूत हुई है। परन्तु दुर्भाग्य से भ्रश्टाचार कही-कहीं अभी भी पनप रहा है। हम सबको उससे खबरदार रहने की आवष्यकताहै । मैं उस समय के नाहनजेल के अपने साथियों को भी याद करता हॅू। उन मे से बहुत से इस दुनिया को छोड़ का चले गये। उन्हें अपनी श्रंद्धाजली अर्पित करता हॅू।
उस समय की कुछ यादें व कवितायें
जेल के कुछ साथी कैदी पैरोल पर चले गये, कुछ हस्पताल गये। कुछ दिन हम दो तीन अकेले रहे। उन दिनों का अकेलापन बहुत ही अखरता था। उन्ही दिनों की लिखी एक कविता: –
मैं विवश बंदी
मैं विवश बंदी
बंधनों में बंधनों की
बंद प्रतिमा-सा !
विचारों की व्योम छूती उड़ानें
क्षणों में सिंधु पाताल चीरती
कल्पना की पैनी
लकीरें खींचता
इस अनजान खामोश बस्ती में
खामोशी जहां
खामोश हो बे होश होती है
कल्पना की कल्पना में-
कल्पना करता विचरता हॅू
मैं विवश बंदी।
मेरी धर्मपत्नी सन्तोष कभी-कभी मुझे कविता लिख भेजती थी। मुझ से दूर अकेली घर बैठी उसकी भावनाएं इन पंक्तियां में: –
ओ प्रवासी मीत मेरे!
काश ! तुम तक पहुंच पाते
आज बंदी गीत मेरे।
और – तुम यह देख पाते
नैन-जिनमें कैद हैं,
सपने मिलन के।
जेल की अवधि लम्बी होती गई। सन्तोष और मैं पत्र लिख-लिख कर थक गये। एक बार सन्तोष के पत्र की लम्बी इन्तजार के बाद एक भरा सा लिफाफा मिला। सोचा लम्बा पत्र होगा। खोला तो सफेद कागज की एक बड़ी पुढ़िया –लिखा कुछ नहीं-उसमें एक और पुढ़िया – तीन – चार पुढ़िया खाली – कही –कही आंखों के आंसुओं के निशान – आखिरी पुढ़िया में एक उर्दू कवि की ये दो पंक्तियां: –
उजाले अपनी यादों के
हमारे पास रहने दो
न जाने किस गली में
जिन्दगी की शाम हो जाए
जरा सोचिए – जेल के कैदी को जब ऐसा पत्र मिला होगा तो उसके मन की स्थिति क्या होगी। अन्धेरा जीवन -जेल के दरवाजे खुलने की कोई उम्मीद नहीं – सन्तोश के पत्र का ही एक सहारा – आज वह पत्र भी आंसु लेकर आया:
जेल के कमरे के एक कोने में जाकर बहुत देर सोचता रहा । आंसु बहाता रहा। फिर आंसु पोंछे और एक लम्बी कविता सन्तोष को लिख भेजी । कविता की अन्तिम चार पंक्तियां: ……….. देखिये आसुओं में भी कितना आत्मविष्वास व आशा थी।
तुम्हारे प्यार की पाती
रहे नित जेल में आती
न जाने कौन सी पाती
तुम्हारे पास ले आये
उस समय की प्रधानमंत्री श्रीमति इन्दिरा गांधी बार-बार यह कहती थी कि विपक्षी दलों ने लोकतंत्र को नीचे गिरा दिया। देश टुकड़े-टुकड़े हो रहा था। देश की सुरक्षा को बचाने के लिए उन्हें एमरजेंसी लगानी पड़ी थी। उन्हें सम्बोधित करते हुए मैंने यह कविता लिखी थी: –
तुम्हारा झूठ हारेगा
एक महिला के अहम् ने
देष के सौभाग्य की
स्वातंत्र्न्य की
जनतंत्र की
उजली धुली तसवीर को
बस, नोच डाला है!
क्या कहा-
”जनतंत्र पटरी से गिरा था ?
स्वतंत्रता लाइसेंस बनती जा रही थी?
विपक्षी कर रहे थे देश के टुकड़े?
सुरक्षा देश की विच्छिन्न होती जा रही थी?“
ओ झूठ की देवी!
पाखंड-प्रतिमे!
निज पद सुरक्षा के लिए
किया देश का सब कुछ निछावर ?
एक कुर्सी को बचाने के लिए
जनतंत्र की
स्वातंन्न्य की
पावन परंपरा की धरोहर
रौंद डाली तृण समझकर
पर याद रखना-
ये तृण कभी
विद्रोह की अग्निबनेंगे
छल-कपट के फूस को
स्वाहा करेंगे!
तब तुम्हें अपना आ पही
धिक्कारेगा
यह देश जीतेगा,
तुम्हारा झूठ हारेगा!
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Jyoti maurya

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