कभी भारत की खेती में था कांगड़ा के देसी धान का खास रुतबा, एम.एस. रंधावा की पुस्तक ‘ए हिस्ट्री ऑफ एग्रीकल्चर इन इंडिया’ में कांगड़ा के चावल का विशेष उल्लेख

कभी भारत की खेती में था कांगड़ा के देसी धान का खास रुतबा, एम.एस. रंधावा की पुस्तक ‘ए हिस्ट्री ऑफ एग्रीकल्चर इन इंडिया’ में कांगड़ा के चावल का विशेष उल्लेख
कभी भारत की खेती में था कांगड़ा के देसी धान का खास रुतबा, एम.एस. रंधावा की पुस्तक ‘ए हिस्ट्री ऑफ एग्रीकल्चर इन इंडिया’ में कांगड़ा के चावल का विशेष उल्लेख
विनोद भावुक/ धर्मशाला
कांगड़ा जनपद के पहाड़ी इलाकों में पारंपरिक रूप से धान की अनूठी किस्मों की खेती होती थी। कांगड़ा में पैदा होने वाले देसी, लाल और भूरे चावल अपने खास गुणों के कारण दूर- दूर तक फेमस थे। चौधरी सरवन कुमार कृषि विश्वविद्यालय पालमपुर के शोधकर्ता आर.पी. कौशिक के अनुसार, जटु, मताली, देवल, करड़, छोहारटू और भिर्गु जैसी देसी लाल धान की किस्में कांगड़ा में सदियों से उगती आई हैं।
कांगड़ा जनपद कभी अपनी विशिष्ट धान किस्मों के लिए जाना जाता था, जिनमें मुख्यतः लाल और देसी किस्म शामिल थीं।
भारतीय इतिहासकार, सिविल सेवक, वनस्पतिशास्त्री और लेखक एम.एस. रंधावा ने अपनी पुस्तक ‘ए हिस्ट्री ऑफ एग्रीकल्चर इन इंडिया’ में कांगड़ा की कृषि का विशेष उल्लेख किया है, जो कांगड़ा की धान की विरासत को समझने में मददगार है।
पहले खो दिये बीज, अब जिंदा करने की कोशिश
एम.एस. रंधावा लिखते हैं कि 1950–60 के दशक के बाद पंजाब से नीची ऊँचाई वाले क्षेत्रों में बासमती व अन्य हाई यील्डिंग किस्मों के आगमन ने कांगड़ा की धान की परंपरागत किस्मों को पीछे धकेल दिया, जिसके चलते देसी धान, कालीझीनी, अच्छु और बेगमी जैसी कांगड़ा की देसी धान की किस्में धीरे-धीरे गायब हो गईं।
आगे वाले सालों में भारत की कृषि में हुए तकनीकी बदलावों की आंधी में कांगड़ा के धान के पुराने बीज लगभग गायब हो चुके हैं। पुराने बीज खत्म हो जाने के कारण कांगड़ा के देसी धान की किस्में अब लगभग ख़त्म होने की कगार पर हैं, जिन्हें वैज्ञानिक प्रयासों से पुनर्जीवित करने के प्रयास हो रहे हैं।
कांगड़ा के खेत, कंपनी का बीज
1850–1950 के दौरान कांगड़ा की निचली घाटियों में स्थानीय बीजों जैसे जटु, मताली और देसी धाम की खेती होती थी। ये किस्में पोषक तत्वों से भरपूर और सांस्कृतिक आध्यात्मिक आयोजनों में प्रयोग होती थीं। 1950–60 के दशक में पंजाब से आने वाली बासमती और अन्य उच्च उपज वाली धान की किस्मों ने कांगड़ा के किसानों को धीरे- धीरे बीज में बदलाव करने पर मजबूर कर दिया।
1980 के दशक तक कांगड़ा का किसान अगले सीजन के लिए खुद बीज तैयार करता था, लेकिन 1990 के दशक के आते आते बीज बाजार में बड़ी कंपनियों की दस्तक हो चुकी थी। अब स्थिति ऐसी है कि किसान को हर साल बाज़ार से धान का नया बीज खरीदना पड़ रहा है, क्योंकि कंपनियों से खरीदे बीज से आगे बीज तैयार नहीं होता।
खोज और संरक्षण की धीमी रफ्तार
साल 1978 में स्थापना के बाद चौधरी सरवन कुमार कृषि विश्वविद्यालय पालमपुर ने देसी धान की परंपरागत किस्मों के संरक्षण पर कार्य शुरू किया। साल 1980 के बाद कांगड़ा में देसी लाल धान की खेती के संरक्षण की पहल की है। लाल धान को उसके पोषण, फाइबर और आयरन–जिंक गुणों के कारण पुनर्जीवित किया गया।
सच यह है कि अभी तक कांगड़ा में बड़ी कम मात्रा में लाल चावल की खेती हो रही है। लाल चावल के अलावा कांगड़ा धान की अन्य क़िस्मों को लेकर कृषि विश्वविद्यालय ने कुछ विशेष नहीं किया है। साल 2000 के बाद कांगड़ा के लाल चावल के लिए शुरू हुई जीआई टैग की वकालत अभी भी मुकाम तक नहीं पहुंची है।
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Jyoti maurya

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